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या अंगीकार-स्वीकार नहीं करता, जो उद्वैग उत्पन्न करने वाला है, जो विषाद अर्थात् दीनता से परिपूर्ण एवं आत्मघात आदि में कारण भूत है , वह वस्तुतः आर्तध्यान ही है, फिर भी लौकिक दृष्टि से वह गैराग्य कहलाया है । इसीलिए प्रथम प्रार्तध्यान नैराग्य कहा है । शास्त्रों में इस प्रार्तध्यान नैराग्य को दुःख गर्भित वैराग्य भी कहा ह-[२-३].
एको नित्यस्तथाऽबद्धः क्षय्यसह सर्वथा। प्रात्मेति निश्चयाद्भू यो भवनैगुण्यदर्शनात् ॥४॥ तत्त्यागायोपशान्तस्य सद्वृत्तस्यापि भावतः । वैराग्यं तद्गतं यत्तन्मोहगभंमुदाहृतम् ॥५॥
भावार्थ--आत्मा एक ही है, अथवा आत्मा नित्य ही है, अथवा अबद्ध ही है, अथवा क्षणिक ही है, अथवा असद्रूप ही है, ऐसे निश्चय द्वारा अनेक बार संसार की असारता देखने से संसारत्यागहेतु निगृहीत इन्द्रियों वाले साधुचरित पुरुषों को भाव से भवविषयक जो वैराग्य होता है वह मोहभित अर्थात् अज्ञानजन्य वैराग्य कहा जाता है-[४-५]
भूयांसो नामिनो बद्धा बाह्य नेच्छादिना ह्यमी । प्रात्मानस्तद्वशात्कष्टं भवे तिष्ठन्ति दारुणे ॥६॥ एवं विज्ञाय तत्त्यागविधिस्त्यागश्च सर्वथा। वैराग्यमाहुः सज्ज्ञानसङ्गतं तत्त्वदर्शिनः ॥७॥
युग्मम् भावार्थ-नाम-पर्याय परिणाम वाले अर्थात् अपने स्वरूप का त्याग किये बिना पर्याय रूप से उत्पन्न एवं नष्ट होने के स्वभाव वाले, बाह्य