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विजयो ह्यत्र सन्नीत्या दुर्लभस्तत्त्ववादिनः । तद्भावेऽप्यन्तरायादिदोषोऽदृष्टविघातकृत् ॥५॥
भावार्थ:--विवाद में छल एवं जाति की मुख्यता होने के कारण तत्त्ववादी अर्थात् सत्यवादी की सच्चे न्याय द्वारा विजय दुर्लभ है पौर कदाचित विजय हो भी जाय तो भी साधु को प्रतिवादी के परलोक में विघ्न डालने रूप अन्तराय आदि दोष लगते हैं। अभिप्राय यह है कि यदि प्रतिवादी हार जाय तो उसको जो लाभ, कीर्ति प्रादि मिलने वाले थे, उनके न मिलने के कारण उसमें अन्तराय रूप होने से प्रतिवादी के मन में द्वेष प्रादि पैदा होते हैं। इससे प्रतिवादी का परलोक बिगड़ जाता है और इसमें साधुपुरुष के निमित्त कारण बनने से साधुपुरुष को अन्तराय आदि दोष लगते हैं-[५]
परलोकप्रधानेन मध्यस्थेन तु धीमता। स्वशास्त्रज्ञाततत्त्वेन धर्मवाद उदाहृतः
भावार्थ-जिस वाद में वाद करने वाले वादी, प्रतिवादी एवं मध्यस्थ तीनों अपने-अपने मन में परलोक की मुख्यता रखने वाले अर्थात् परलोक से डरने वाले हों और जो वाद मध्यस्थ और स्वसमयविज्ञ (अपने शास्त्रों के ज्ञाता) बुद्धिमान व्यक्ति के साथ होता है, उसे धर्मवाद कहते हैं--[६]
विजयेऽस्य फलं धर्मप्रतिपत्त्याद्यनिन्दितम् । पात्मनो मोहनाशश्च नियमात्तत्पराजयात् ॥७॥