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इस अष्टक द्वारा हमें यह ज्ञात होता है कि--पहला विषय प्रतिभास ज्ञान मिथात्वसंयुक्त है, दूसरा आत्म-परिणतिमत ज्ञान संयम-सर्वविरति ग्रहण न करने वाले सम्यक् दृष्टि आत्माओं के लिये सम्यक्-ज्ञानरूप है क्योंकि पंचम श्लोक में इसे वैराग्य का कारण भी बताया है और तीसरा तत्त्वसदन ज्ञान यथाशक्ति चरित्र-सयम-सनविरति-चारित्र अंगीकार करने वाले श्रावक से लगाकर मोक्ष जाने वाले साधुओं तक के विशिष्ट सम्यक् ज्ञान रूप है।
वैराग्याष्टकम्
[१०] प्रार्तध्यानाख्यमेकं स्यान्मोहगर्भ तथाऽपरम् । सज्ज्ञानसङ्गतं चेति वैराग्यं त्रिविधं स्मृतम् ॥१॥
भावार्थ--वैराग्य तीन प्रकार का है। (१) प्रार्तध्यान नामक गैराग्य (२) मोहभित वैराग्य (३) सद्ज्ञान युक्त वैराग्य ।
इष्टेतरवियोगादिनिमित्त प्रायशो हि यत् । यथाशक्त्यपि हेयादावप्रवृत्त्यादिवजितम् ॥२॥ उद्वेगकृद्विषादाढयमात्मघातादिकारणम् । प्रार्तध्यानं ह्यदो मुख्यं वैराग्यं लोकतो मतम् । ॥ ३ ॥
भावार्थ-जो प्रायः इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग के निमित्त से उत्पन्न होता है, जो यथाशक्ति हेय या उपादेय का क्रमशः त्याग