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भावार्थ-ऊपर पुण्य या पापबन्ध से बचने का उपाय प्रच्छन्न अर्थात् गुप्त भोजन बताया गया है। प्रमादवश प्रकट भोजन आदि में अप्रीति, शासन-द्वेष, धर्म का अभाव आदि परिणाम होते हैं। अतः शास्त्र धिधान का भंग होने के कारण प्रकटभोजी साधु को पाप का बन्धन होता है, ऐसा कहा गया है--[६].
शास्त्रार्थश्च प्रयत्नेन यथाशक्ति मुमुक्षुणा। अन्यव्यापारशून्येन कर्तव्यः सर्वदैव हि ॥७॥
भावार्थ--मुमुक्षुत्रों को अन्य प्रवृत्ति से शून्य होकर यथाशक्ति शास्त्रार्थ अर्थात् प्रागमों का यथाविधि वाचन, मनन आदि करना चाहिये-[७].
एवं ह्यभयथाप्येतद्द ष्टं प्रकटभोजनम् । यस्मान्निदर्शितं शास्त्रे ततसत्यागोऽस्य युक्तिमान् ॥८॥
भावार्थ--उपर्युक्त प्रकट भोजन, दोनों प्रकार से यानी देने और न देने, दोनों प्रकार से दोष युक्त हैं, ऐसा शास्त्र में बताया है, इस हेतु उसका त्याग ही उचित एवं युक्ति-युक्त है-[८].
प्रत्याख्यानाष्टकम्
द्रव्यतो भावतश्चैव प्रत्याख्यानं द्विधा मतम् । अपेक्षादिकृतं ह्याद्यमतोऽन्यच्चरमं मतम्
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