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भावार्थ--पुण्यबन्ध भव अर्थात् संसार का कारण होता है अतः वह मोक्षाभिलाषी संयमियों के लिये इष्ट नहीं है । शास्त्रों में कहा है कि पुण्य और पाप के क्षय से मोक्ष मिलता है। शास्त्रों में कहा गया है कि पुण्य स्वर्ण की जंजीर सा और पाप लोहे की जंजीर जैसा है। मोक्ष में जाने के लिए दोनों ही जंजीरें बन्धन रूप हैं, दोनों ही धातु भार रूप हैं । संसारी गृहस्थों को स्वर्ण पसन्द है और लोहा नापसन्द, पर मोक्षमार्ग में दोनों ही बाधक हैं ।--[३].
प्रायो नचानुकम्पावांस्तस्यादत्वा कदाचन । तथाविधस्वभावत्त्वाच्छक्नोति सुखमासितुम् ॥४॥
भावार्थ--साथ-साथ अनुकम्पा वाला व्यक्ति क्षुधित अर्थात् भूखे को दिये बिना प्रायः सुख से रह नहीं सकता; क्योंकि अनुकम्पा वाले महानु. भावों का स्वभाव ही ऐसा है कि वे दूसरे दोनों का दुःख देख नहीं सकते--[४].
प्रदानेऽपि च दीनादेरप्रीतिर्जायते ध्र वम् । ततोऽपि शासनद्वेषस्ततः कुगतिसन्ततिः ॥५॥
भावार्थ--पुनः दीन, अनाथ, दुःखी आदि मांगनेवालों को न देने से वे अवश्य अप्रसन्न होते हैं और उस अप्रसन्नता के कारण शासन-धर्म के प्रति द्वेष पैदा होता है, उस द्वेष के परिणाम से उनकी दुर्गति-परम्परा चलती है--[५]. .
निमित्तभावतस्तस्य सत्युपाये प्रमादतः । शास्त्रार्थबाधनेनेह पापबन्ध उदाहृतः
॥६॥