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शोभन है, वह शोभन होने पर पर भी सदोष होने के कारण साधुओं के लिए त्याज्य है। चूकि गृहस्थ के संसारी होने के कारण उसके लिये द्रव्य एवं भाव ये दोनों पूजा में आवश्यक हैं। शास्त्रों की स्पष्ट, उद्घोषणा है कि द्रव्यपूजा भावपूजा का निमित्त कारण होने के कारण गृहस्थ के लिये अवश्यकरणीय रूप है । गृहस्थ के देश-विरति के मादि परिणाम को भी हम तब जान सकते हैं जबकि वह जिन पूजा करता हो । चूकि जिन-पूजा में यह देशविरति श्रावक-जीवन का प्राद्य परिणाम है । अतः पाँच महाव्रतधारी साधु सर्वविरतिधर के अर्थात् सर्वत्यामी होने के कारण उनके लिये द्रव्यस्नान का सर्वतः त्याग है । चूकि साधु द्रव्य-त्यागी है अतः मात्र भावपूजा के साधक हैं। जिनेश्वर देवों की आज्ञा भी शास्त्र में इसी प्रकार से बताई है कि :-साधु के लिये मात्र भावपूजा
और श्रावक के लिये द्रव्यपूजा एवं भावपूजा यों दोनों ही अनिवार्य है। द्रव्यपूजा को छोड़ने वाला देशविरति-धर प्रभु-प्राज्ञा का विरोधक है--[६]
ध्यानाम्भसा तु जीवस्य सदा यच्छुद्धिकारणम् । मलं कर्म समाश्रित्य भावस्नानं तदुच्यते
॥६॥
भावार्थ--जो स्नान ध्यानरूपी जलसे कर्मरूप मैल की अपेक्षा से अर्थात् कर्मरूपी मल को धोकर आत्मा की शुद्धि का कारण बनता है, उसे भावस्नान कहते हैं--[६]. - ऋषीणामुत्तमं ह्येतन्निर्दिष्ट परमर्षिभिः ।
हिंसादोषनिवृत्तानां व्रतशील विवर्धनम्
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