Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Manoharvijay
Publisher: Gyanopasak Samiti

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Page 32
________________ नाति दुष्टिाऽपि चामोषामेषा स्यान्नह्यमी तथा। अनुकम्पा निमित्तत्वाद् धर्मलाघवकारिणः ॥७॥ भावार्थ--ऊपर कथित गरीब, अन्धे, पंगु, दीन आदि मनुष्यों की वृत्तिभिक्षा न अतिदुष्ट है और न प्रशंसनीय । ने लोग अनुकम्पा करने योग्य होने के कारण पौरुषघ्नी भिक्षा करने वालों की भांति धर्म की लघुता-अर्थात् निंदा करने वाले नहीं बनते हैं--[७]. दातृ णामपि चैतेभ्यः फलं क्षेत्रानुसारतः । विज्ञेयमाशयाद्वापि स विशुद्धः फलप्रदः ॥८॥ भावार्थ--उक्त तीनों प्रकार के भिक्षुत्रों को भिक्षा देने वाले दाताओं को क्षेत्र अर्थात्-पात्र के अनुसार भी फल मिलता है; अथवा दाता को अपने निज के आशय के अनुसार फल मिलता है-और अनेक विध आशयों में विशुद्ध आशय ही फलदायी होता है । इस श्लोक द्वारा अष्टककार महर्षि ने यह स्पष्ट कर दिया है कि दान कभी भी निष्फल नहीं होता है । दाता को, जिसे दान दिया जाता है, उस पात्र को ही देखना चाहिये । पात्र की योग्यता को समझकर तदनुसार प्रदत्त दान यथोचित फलदायक होता है। दान तो भारतीय संस्कृति की प्राणरूपा श्रमण-संस्कृति का सर्वप्रथम आचरण एवं सिद्धान्त है। उसको कोई जैन कभी नहीं भूल सकता। इस गुण की जीवन में अनिवार्य रूप से आवश्यकता है। इस दान रूपी गुण के कारण जीव का ममत्व घटता है, दृष्टि में विशालता माती है और मैत्री भाव का विकास होता हैं । इन कारणों से दान गुण जीवन में अवश्य प्रयोजनीय है-[८].

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