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भावार्थ--जो यति (पांच महाव्रत धारी साधु-महात्मा) ध्यानादि कार्य में रत हो, गुरु प्राज्ञापालन में तत्पर हो, तथोक्त अनारंभी-निर्दोष प्रवृत्तिवाला हो, ममत्व-रहित हो, वृद्ध (गुरुजन ) आदि के लिए, एवं गृहस्थ के और अपने उपकार हेतु ऐसे शुभ प्राशय से भौरों की भांति भिक्षाटन करने वालों के लिये कही हुई अर्थात् उपदेशित भिक्षा को 'सर्वसंपत्करी' नामक भिक्षा कहते हैं । ध्रुतकेवली आचार्य भगवान् श्री शय्यम्भवसूरीश्वरजी महाराज ने भी दशवकालिक सूत्र में साघु. के लिये भिक्षा-पद्धति बताते हुए फरमाया है--जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आविय इ रसं । ण य पुप्फ किलामेइ, सो अ पीणेइ अप्पगं ।। २ ॥ एमए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो । विहंगभाव पुष्फेसु दाण भत्ते सणे रया ।। ३ ।। वयं च वित्तिं लभामो, न य कोइ. उवहम्मइ । अहागडेसु रीयंते, पुष्फेसु भमरा जहा ॥४॥
महुकार समाबुद्धा जे भवन्ति प्राणिस्सिया । नाणापिंडरया देता तेण वुच्चन्ति साहुणो त्तिबेमि ।। ५ ।।
भावार्थ--जैसे भौंरा वृक्ष के फूलों में से रस को पीता है और फूल को कुछ भी कष्ट नहीं पहुंचाता है और इस प्रकार फूल को पीडित नहीं करता हुआ अपनी आत्मा को सन्तुष्ट कर लेता है ॥२॥ इसी प्रकार लोक में ये जो द्रव्य एवं भावपरिग्रह से मुक्त श्रमण-तपस्वी साधु हैं, वे फूलों के भ्रमर के समान दाता द्वारा दिये हुये आहारादि की गवेषणा में रत रहते हैं। ।। ३।। गुरु महाराज के शिष्य प्रतिज्ञा करते हैं--जिस प्रकार फूलों से भौंरे अपना निर्वाह करते हैं, उसी प्रकार हम साधु भी गृहस्थों द्वारा अपने निज के लिये बनाये हुये आहारादि की भिक्षा ग्रहण करेंगे, जिससे किसी जीव को कष्ट न पहुँचे ।