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विशुद्धिश्चास्य तपसा न तु दानादिनैव यत् । तदियं नान्यथा युक्ता तथा चोक्तं महात्मना "धर्मार्थं यस्य वित्त हा तस्यानीहा प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं
गरीयसी ।
वरम् "
( युग्मम् )
।। ५ ।।
मोक्षाध्वसेवया चैताः प्रायः शुभतरा भुवि । जायन्ते ह्यनपायिन्य इयं सच्छास्त्रसंस्थितिः
॥ ६ ॥
भावार्थ - यह अग्निकारिका प्रन्यथा प्रकार से यानी भाव-अग्निकारिका से अन्य द्रव्य अग्निकारिका रूप से युक्त नहीं है, क्योंकि पाप की शुद्धि तप से होती है, दानादि से नहीं । इसका कारण यह है कि "दानेन भोगानाप्नोति" अर्थात् दान से भोगों की प्राप्ति होती है, ऐसा शास्त्र वचन है । महात्मा व्यास ऋषि ने भी महाभारत के वनपर्व में यही कहा है कि "धर्म के लिये धन प्राप्त करने की जिनकी इच्छा या प्रवृत्ति है, इससे तो धर्म के लिये धन ही नहीं प्राप्त करने की अर्थात् सर्वथा धन त्याग करने की उनकी इच्छा या प्रवृत्ति अधिक सुसंगत है; क्योंकि कीचड़ में पड़कर उसको धोने से उस कीचड़ से दूर रहना ही अधिक अच्छा है । [५-६ ]
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भावार्थ–पुनः सम्यक् शास्त्रों में (सद् आगमों में) ऐसी व्यवस्था
है कि (सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र रूप ) मोक्षमार्ग के सेवन से प्राप्त होने वाली समृद्धि ज्यादा अच्छी-दोष रहित - शुभतर है । इसलिये तत्वतः भाव अग्निकारिका ही युक्त है । [७]