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भावार्थ--अहिंसा, सत्य, अस्तेय अर्थात् अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, गुरुभक्ति, तप, और ज्ञान यह आठ भावपुष्प कहलाते हैं-[६]
एभिर्देवाधिदेवाय बहुमानपुरस्सरा । हीयते पालनाद्या तु सा वै शुद्धत्युदाहृता ॥७॥
भावार्थ--इन माठ फूलों के यथार्थ पालन द्वारा बहुमाना-पूर्वक देवाधिदेव की जो पूजा होती है वह शुद्ध पूजा कहलाती है [७]
प्रशस्तो ह्यनया भावस्ततः कर्मक्षयो ध्र वः। कर्मक्षयाच्च निर्वाणमत एषा सतां मता ॥८॥
भावार्थ--इस शुद्ध पूजा से अर्थात प्रशस्त पूजा से भाव अर्थात् आत्मपरिणाम शुद्ध होते हैं. उस शुद्ध भाव से कर्मक्षय अवश्यंभावी बनता है-और कर्मक्षय से निर्वाण यानी मोक्ष मिलता है, इस कारण से ही सत्पुरुषों को भावपूजा अर्थात् शुद्ध पूजा मान्य है--[८]
अग्निकारिकाष्टकम्
कर्मेन्धनं समाश्रित्य दृढा सद्भावनाहुतिः। धर्मध्यानाग्निना कार्या दीक्षितेनाग्निकारिका ॥१॥
भावार्थ--दीक्षित महात्मा को कर्मरूपी इन्धन, सद्भावनारूपी माहुति और धर्मध्यान रूप अग्नि से अग्निकारिका--(ज्ञान यज्ञ) करनी चाहिये अर्थात् ज्ञान ज्योति जगानी चाहिए-[१]