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भावार्थ -- शुद्ध प्रामाणिक अर्थात् न्याय की रीति से प्राप्त किये हुए, बाजा, शुद्ध भाजन में रक्खे हुए, कम अथवा ज्यादा, जैसे मिले गैसे मालती श्रादि फूलों से आठ अपाय के यानी आठ कर्मों के नाश से उत्पन्न होने वाले अनन्त ज्ञानादि गुरण वाले देवाधिदेव की जो पूजा की जाती है, उसे भावपूजा की अपेक्षा से निम्न कोटि की कहते हैं- [२-३]
सङ्कीर्णेषा स्वरूपेण द्रव्याद्भावप्रसक्तितः । पुण्यबन्धनिमित्तत्वाद् विज्ञेया सर्वसाधनी
भावार्थ - - स्वाभाविक रीति से ही पाप - मिश्रित यह अशुद्ध पूजा (पुष्पादि ) द्रव्य द्वारा भांव को उत्पन्न करने वाली होने से और पुण्यबन्ध के निमित्त रूप होने से स्वर्गं की साधनरूप समझी जानी चाहिए -- [४]
या पुनर्भावर्जः पुष्पैः शास्त्रोक्तिगुणसङ्गतैः । परिपूर्णत्वतोऽम्लानैरत एव सुगन्धिभिः
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॥ ५ ॥
भावार्थ--पुनः शास्त्राज्ञारूप गुण से ( डोरी से ) संजोये हुये अहिंसादिरूप भावपुष्प जो कि परिपूर्ण अर्थात् विकसित, दोष रहित होने के कारण हमेशा ताजा अर्थात् बिना कुम्हले और सुगंधी वाले होते हैं, उनके द्वारा जो प्रष्टपुष्पी पूजा होती हैं, वह 'शुद्ध पूजा' ( भावपूजा) कहलाती है -- [५]
ब्रह्मचर्यमसङ्गता ।
श्रहिंसा सत्यमस्तेयं रुगुभक्तिस्तपो ज्ञानं सत्पुष्पाणि प्रचक्षते
॥ ६॥