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सर्वसम्पत्करी भिक्षाष्टकम्
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प्रकृतोऽकारितश्चान्यरसंकल्पित एव च । यतेः पिण्डः समाख्यातो विशुद्धः शुद्धिकारकः
॥१॥
भावार्थ-स्वयं किया हुअा, दूसरे किसी से करवाया हुआ अथवा जो किसी के लिये भी संकल्प किया हुआ न हो (अर्थात् किसी को जिसका उपलक्ष्य न बनाया गया हो) ऐसा पिंड अर्थात् खाद्य पदार्थ (उपलक्षण से शयन, आसन आदि भी) साधुओं के लिये विशुद्ध-निरवद्य पौर शुद्धिकारक कहलाता है-[१].
नीचे दर्शित चार श्लोकों में (अन्यमतावलंबी) वादी शुद्ध पिंड की प्राप्ति की अशक्यता बताते हैं । वे शंका करते हैं :
यो न संकल्पितः पूर्व हेयबुद्धया कथं नु तम् । ददाति कश्चिदेवं च, स विशुद्धो वृथोदितम् ॥२॥
भावार्थ-जिसमें पहले देने की बुद्धि की कल्पना न की हो ऐसा, पिंड कोई भी मनुष्य कैसे दे सकेगा ? अर्थात् दे ही नहीं सकेगा, इससे एक भी पिंड असंकल्पित नहीं हो सकता अतः वह पिंड शुद्ध है, ऐसा कथन मिथ्या है -[२].
न चैवं सद्गृहस्थानो भिक्षा ग्राह्या गृहेषु यत् । स्वपराथं तु ते यत्नं कुर्वते नान्यथा क्वचित्
॥३॥