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भावार्थ - पुन: इस रीति से यानी असंकल्पित पिंड ही लेने की दृष्टि से तो गृहस्थों के घर में भिक्षा ही नहीं ले सकेंगे, क्योंकि गृहस्थ तो अपने और पर अर्थात् — प्रतिथि आदि दोनों के लिये रसोई आदि बनाता है । वह अन्यथा रीति से- - मात्र अपने लिये कभी नहीं बनाता -- [३]
संकल्पनं विशेषेण
परिहारो न
यत्रासौ दुष्ट इत्यपि । सम्यक्स्याद्यावदर्थिकवादिनः ॥ ४ ॥
भावार्थ – 'विशेष रूप से अर्थात् अमुक साधु के लिये ही यह पिंड है ऐसा यदि पिंड में संकल्प किया हो तो वह दुष्ट है,' ऐसा तुम्हारा परिहार भी उचित नहीं है, क्योंकि जितने भिक्षार्थी हैं उन सभी के लिये अर्थात् समस्त भिक्षुक वर्ग के लिये बनाये हुये पिंड को भी तुम त्याज्य कहते हो, अर्थात् वह भी तुम्हारे लिये त्याज्य है - [४]
विषयो वाऽस्य वक्तव्यः पुण्यार्थ प्रकृतस्य च । श्रसम्भवाभिधानात्स्यादाप्तस्यानाप्तताऽन्यथा
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भावार्थ – प्रथवा इस यावदर्थिक पिंड का विषय - संबंध ( जिसके हेतु बनाया हुआ, यह बताना चाहिये । इतना ही नहीं पर पुण्य के हेतु बनाये हुए प्रकृत अर्थात् सामने आये हुए पिंडका भी ) - अर्थ बताना चाहिये; अन्यथा असंकल्पित पिंड के सर्वथा असम्भाव्य होने से उससे तुम्हारे प्राप्त की अर्थात् सर्वज्ञ की सर्वज्ञता सिद्ध होगी - [ ५ ].
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अन्य मतावलंबियों की शंका का निरसन र्थात् समाधान करने हेतु प्राचार्य तीन श्लोकों द्वारा उत्तर देते हैं