________________
" दुग्धे खारं यथासर्पिः पुष्पे परिभलस्तथा । तथा लोकेऽपि चैतन्यं तस्मिन् कैवल्यमुत्तमम् ॥ ८॥"
इस अध्याय में “ ॐनम : सिद्धम् " तथा " ॐअहम् का महत्व समझाया गया है।
इक्कीसवे अध्याय में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य, बुद्ध आदि से अर्हत् भगवान् की एकता प्रतिपादित की गई है क्योंकि प्रश्न ऐसा ही था कि ये अर्हत् ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य, बुद्ध अथवा दूसरे क्या है ?
बाईसवे अध्याय में प्रश्न है " चिदानन्दाभिनन्दिनी आत्म ज्योति " सिद्ध भगवान् में पूर्णतया प्रतिभासित है। उनमें एकता प्रतिष्ठित होने पर परमेश्वर की एकता सिद्ध होती है तो फिर आत्मा और परमात्मा में भिन्नता कैसे घटित होती है ? कितने सुन्दर दृष्टान्त से भगवान् ने भेदाभेद को समझाया है कि अकार वस्तुतः एक है पर इसके संवृत विवृतादि २४ भेद हैं । सिद्ध स्वरूप एक है पर वह २४ जिनेश्वरों में प्रतिभासित है । हरि एक है पर उनके अवतार अनेक हैं वैसे ही अर्हत् भी अनेक हैं
"अवतारा संख्येया एकस्यापिहरेर्यथा। ब्रह्माविष्णुमहेशाद्या एवमर्हन्ननेकधा ॥ ११ ।।"
तेईसवे अध्याय का प्रश्न बडा गम्भीर है कि जब आत्मा परमात्मा में एकता स्थापित है तो फिर ध्यान, दान, तपादि करने की क्या आवश्यकता है ? निश्चय से तो यह आत्मा मुक्त ही है । भगवान् ने समझाया है कि यह आत्मा केवली है पर व्यवहार से यह मलवान् है-निर्मल समल शातकुम्भ की तरह दो प्रकार का ।
परमात्मा शुद्ध स्वरूपी है अतः इनके ध्यान से समल आत्मा भी सिद्ध स्वरूपी हो जाता है जैसे पुष्प से वासित तेल तन्मयी रूप धारण करता है
" तस्यैव भजनाल्लोकः स्वयं तद्गुणभाजनम् ।
पुष्पवासनया तैलं नैव किं तन्मयीभवेत् ॥ १४॥"
चौबीसवे अध्याय में प्रश्न है-लोकालोक व्यवस्थित पारमेश्वर्थ क्या है ? इसमें गुरु का महात्म्य समझाया गया ह । धर्म का मूल विनय है और उसका मूल गुरुभक्ति है । सनातन धर्म में गुरु का महत्त्व इस प्रकार बताया गया है---
“गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुः साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org