________________
नवे अध्याय में बताया गया है कि आत्मध्यान से आत्म ज्योति प्रकट होती. है जैसे शुभध्यान से शुभयोग प्रकट होते हैं । इस अध्याय में पहली बार लक्ष्मी एवं सरस्वती के अविरोध का कारण दिया गया है कि ज्ञान एवं धर्म धारण करने वाले पुरुष की लक्ष्मी वश वर्त्तिनी होकर रहती है क्योंकि वह जड़ता - मूर्खता से प्यार नहीं करती है—
66
'वैरं लक्ष्म्याः सरस्वत्या नैतत्प्रामाणिकं वचः । ज्ञानधर्मभृतो वश्या लक्ष्मीर्न जडरागिणी ॥ १३ ॥
दशम अध्याय में विश्व में एकत्व भावना का आदेश दिया गया है । इसमें हेयोपादेय ज्ञान, नय मार्ग एवं व्यवहार मार्ग से जगत में एकत्व स्थापित किया गया है।
ग्यारहवे अध्याय में शंका उपस्थित हुई है कि आत्म धर्म के निश्चय से सभी जन्तुओं में चैतन्य समाविष्ट है तो फिर कोई भी प्राणी अधर्मवान् नहीं हो सकता । यहाँ फिर भगवान् ने हेयोपादेय ज्ञान की आवश्यकता पर बल दिया है एवं द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावानुसार विवेक निश्चित करने की बात कही है।
ܕܕ
बारहवाँ अध्याय ज्योतिष शास्त्र एवं मानस शास्त्र में एकता स्थापित करता है । वर्ष, ऋतुएं, मास, पक्ष, दिन, बेला, वार, नक्षत्र आदि सबका समाहार मनमें कर दिया गया है । मन की तेजस्वी अवस्था उत्तरायण है एवं शान्त अवस्था दक्षिणायन है । अपनी वृत्ति में रहना वसन्त है, क्रोधावस्था ग्रीष्म ऋतु है । मनकी स्थिरावस्था वर्षा ऋतु है तो धनार्जन के लिये देशाटन शरद ऋतु है । इसी प्रकार रसों एवं राशियों का भी मन की अवस्थानुसार चिन्तन किया गया है । अधर्म भावना मैं मनका रमना रात्रि है तथा धर्म में निष्ठा दिन । मन की शुभ भावना शुक्ल पक्ष एवं अशुभ भावना कृष्ण पक्ष है । इसी प्रकार नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता एवं पूर्णा तिथियों का भी विचार मन की भावनानुसार किया गया है ।
हरवे अध्याय में एकम से लेकर पूनम पर्यन्त तिथियों का मन की अवस्थानुसार चित्रण किया गया है । ऐक्य की भावना से पड़वा, द्वित्व की भावना से द्वितीया इत्यादि । वारों का भी इसी प्रकार, मनोवस्था के अनुसार निश्चय किया गया है । कषाय नोकप्राय में इच्छा मंगलवार, ज्ञानचर्चा बुधवार तो देवार्चन गुरुवार | नक्षत्रों का भी इसी प्रकार मनाधारित वर्णन किया गया है । ज्योतिष शास्त्र एवं अध्यात्म विद्या का ऐसा गंगा-जमुनी मेल अन्यत्र दिखाई नही देता । ऐसे प्रयोग उपाध्यायजी की बहुश्रुतता की पुष्टि करते हैं ।
चौदहवे से सोलहवे अध्यायों को ब्रह्मकाण्ड के अन्तर्भूत किया गया है क्योंकि इनमें चौदहवें अध्याय के प्रथम श्लोक में गौतम स्वामी का प्रश्न है कि नाडियों के
Jain Education International
१७
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org