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आय बताया है मन का दमन करने वाली गीता का अभ्यास किया जाये क्योंकि मोक्ष का हेतु ज्ञान ही क्रम से वैराग्य का जनक है-- 'हेतुस्तस्य पुनशानं वैराग्यजनकं कमात् -४।' सूत्रात्मक छोटे छोटे पड़ों में कितनी सुकर बात भगवान ने बताई है
आत्मैवह्यात्मनावैद्यो ( आत्मा से आत्मा को जानो) ज्ञानात् शिवमयोऽव्यय: ( ज्ञान से शिवमय अव्यय पद प्राप्त
होता है) भगवान् ने कहा कि ज्ञानियों की उदासीनता से निजैरात्मक प्रवृत्ति होती है। इससे तत्त्वज्ञान होता है और उससे मोक्ष की प्राप्ति--
"औदासीन्यात्प्रवृत्तिः स्याद् ज्ञानिनो निर्जरास्पदम् ।
तत्त्वज्ञानादतो मुक्तिं जगुयायिकाः जिनाः ॥ २१॥"
दूसरे अध्याय में " श्रेष्ठ और उज्ज्वल केवल ज्ञान कैसे प्राप्त हो " पर प्रश्न पूछा गया है । भगवान् ने भी कहा है कि जो व्यक्ति तृष्णा, कषाय एवं विषयों को छोड देता है वही ज्ञानी है, धर्मी है एवं विवेकी है, तथा वही केवलज्ञान को धारण कर मुक्त होता है--
तीसरे अध्याय में आत्म ज्योति को सूर्य की तरह साक्षात् देखने की इच्छा गौतम स्वामी ने व्यक्त की है। भगवान् ने कहा है कि विषय एवं कषाय रहित जो ज्योति है वही आत्म ज्योति है । चन्द्रमा की ज्योति विषय विकार युक्त है एवं सूर्य का तेज कषाय कलित है--
"ज्योतिश्चान्द्रं विषयभूः सौरं तेजः कषायभूः
आभ्यां यत्परमज्योति स्तदैन्द्र परिभाव्यते ॥२॥" इस अध्याय में आत्म--ज्योति के विषय में विस्तृत विवेचन हुआ है।
चौथे अध्याय में आत्म ज्योति की मूल तत्त्वविद्या की कलावृद्धि को विवेचना की गई है । उन्नीसवें श्लोक में विवेक को मुख्य स्थान प्रदान किया गया है उसीके कारण आनत्र संघर एवं संवर आत्रव बन जाता है--
"संवरः स्यादानवोऽपि संवरोऽप्यास्त्रवाय ते
ज्ञानाज्ञानफलं चैतन्मिथ्या सम्यक्श्रुतादिवत् ॥ १९॥"
पाँचवे अध्याय में भगवान् ने नवमे शान्त रस की साधना की बात सुझाई है। प्रमाणों के द्वारा धर्म की प्रधानता भी इसी अध्याय में बताई गयी है।
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