Book Title: Arhadgita
Author(s): Meghvijay, Sohanlal Patni
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

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Page 14
________________ अर्हद्गीता : एक विवेचन उपाध्याय मेघीवजयजी की आध्यात्म विषयक तीन रचनायेंहैं -मातृका प्रसाद, ब्रह्मबोध एवं अर्हद्गीता । मातृका प्रसाद एवं ब्रह्मबोध के विषय में हम पहले चर्चा कर चुके हैं । अहंद्गीता ब्राह्मणीय परम्परा का ब्रह्म विद्या निरूपक गीता की परम्परा का एक जैन दर्शन निरूपक ग्रंथ है। इसकी रचना संवत् १७४७ में हुई। गीता महाभारत का एक भाग है और उसमें १८ अध्याय हैं। प्रस्तुत गीता में ३६ अध्याय हैं। उपाध्याय मेघविजयजी ने इस ग्रंथ के तीन नाम स्थापित किये हैं। अईद्गीता, तत्त्वगीता एवं भगवद्गीता और ये तीनों नाम इतने सार्थक हैं कि वे इस ग्रंथ का विषय स्वतः प्रातिपादित करते हैं। अहंदगीता अर्थात् अरिहंत भगवान् की वाणी, तत्त्व गीता अर्थात् संसार में तत्त्वभूत जो वस्तु है उसका विवेचन एवं भगवद्गीता-अर्थात् भगवान् महावीर की वाणी । परन्तु इन तीनों नामों में इसका अर्हद्गीता नाम ही सर्वाधिक सार्थक एवं उपयुक्त है क्योंकि तत्त्वमीमांसा सो प्रत्येक धर्म में अलग अलग प्रकार से की गई है इसलिये तत्त्व गीता नाम से जैन धर्म की गीता विषयक भाव-उपपत्ति नहीं हो सकती । भगवद्गीता तो ब्राह्मणीय परम्मरा की गीता का रूढ़ नाम है और फिर कौन से भगवान् ? अतः इसका नाम अर्हद्गीता ही स्पष्ट, सार्थक एवं अन्वयार्थक है । गीता में जहाँ अर्जुन भगवान् कृष्ण से पूछते हैं वहाँ इसमें चम्पानगरी में भगवान् महावीर के गणधर इन्द्रभूति गौतम उन्हें अपनी शंकाओं का समाधान पूछते हैं । ग्रंथारंभ श्री गौतम उवाच से होता है। उत्तर मिलता है भगवान् महावीर से जिनके लिये श्री भगवानुवाच लिखा हुआ है। इसमें कुल ३६ अध्याय हैं किन्तु सरस्वती वन्दना के प्रारंभिक १६ श्लोकों एवं गीता के स्वरूप को समझाने वाले गद्यात्मक परिचय की गणना प्रथम अध्याय के ही अन्तर्गत की गई है। यदि प्रारंभिक भाग को नहीं गिने तो गीता के प्रत्येक अध्याय में २१ श्लोक हैं अर्थात् कुल श्लोक संख्या ३६४२१+१६७७२ है। गद्यात्मक परिचय में समझाया गया है कि अहंदगीता आगमों का बीज मंत्र है, सकल शास्त्रों का रहस्य है। इसके ऋषि 'गौतम ' छन्द 'अनुष्टुप, ' देवता 'सर्वज्ञ जिन परमात्मा ' हैं। 'मनुष्य-जन्म प्राप्त कर प्राणधारियों को तदनुकूल प्रयत्न करना चाहिये, धर्म आराधन करना चाहिये। यह अहंद्गीता का बीज मंत्र है। 'आत्मा में वैराग्य का प्रादुर्भाव ' इसकी शक्ति है। ' अमुक्त संसारी जीव भी इसके मनन चिंतन से मुक्त हो जायें' यह इसका 'कीलक' है। इसके मनन चिन्तन से आत्म-रक्षा होती है क्योंकि अनिच्छु विषयासक्त जीव आध्यात्म शिरोमणि १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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