Book Title: Arhadgita
Author(s): Meghvijay, Sohanlal Patni
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

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Page 12
________________ भेजा था। 'शंखेश्वर प्रभुस्तवन' में भगवान् शखेश्वर पार्श्वनाथ की महिमा का गुणगान है। 'श्री विजयसनसूरि दिग्विजय महाकाव्य ' में आचार्य विजयप्रभमूरि के पूर्वकालिक आचार्यों का ऐतिहासिक उल्लेख है। 'मातृका प्रसाद' ग्रंथ की रचना सं० १७४७ में धर्म नगर में हुई। इसमें ॐ नमः सिद्ध की विस्तृत व्याख्या है। 'सप्त संधान' एक अनूठा महाकाव्य है जिसमें एक ही समय में भगवान् ऋषभ देव, शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर स्वामी, कृष्ण एवं रामचंद्रजी का वर्णन है। श्लेषालंकार का इतना चमत्कार गहन पांडिय के बिना संभव नहीं था। 'हस्त संजीवनी' ५२५ श्लोकों की पुस्तक है जिसमें हरत रेखाओं के आधार पर भविष्य के शुभाशुभ बताएँ जा सकते हैं। इसका दूसरा नाम 'सिद्ध ज्ञान' भी है। इस पर उपाध्यायजी ने स्वोपज्ञ वृत्ति की भो रचना की है। इसी प्रकार वर्ष प्रबोध' भी ज्योतिष का ग्रंथ है। इसका दूसरा नाम 'मेघ महोदय' है। इसमें १३ अधिकार तथा ३५०० श्लोक हैं जिसमें उात प्रकरण, कर्पूर चक्र, पद्मिनी चक्र, मण्डल प्रकर ग, सर्वतोभद्र चक्र तथा सूर्य चन्द्रादि ग्रहण पर विवार किया गया है। इससे सभी प्रकार की भविष्य वाणियां आसानी से की जा सकती हैं। ऐसे ही ज्योतिष विषयक एक 'रमल शास्त्र' की इन्होंने रचना की थी जिसका प्रणयन उनके शिष्य भेरूविजय के लिये हुआ था। 'सीमंधरस्वामी स्तवन' में सीमंधरस्वामी के माहात्म्य का वर्णन है एवं 'पर्व लेखा' में जैन पर्वो का वर्णन है। 'भक्तामर टीका' आचार्य मानतुंगमृरि के भक्तामर स्तोत्र पर रचित टीका है। 'उदय दीपिका' नामक ज्योतिष शास्त्र की रचना सं० १७५२ में श्रावक मदन सिंह के लिये की गई थी जो प्रश्नोत्तर रूप में है। इसमें प्रभफल निकालने का सरल तरीका बताया गया है। 'रावण पार्श्वनाथाष्टकम्' में आठ श्लोकों में रावण तथा पार्श्वनाथ का श्लेषगर्भित वर्णन है। 'पंचतीर्थस्तुति' में एक एक स्तुति के पांच पांच अर्थ होते हैं एवं उनके ऋषभनाथ, शांतिनाथ, संभवनाथ, नेमिनाथ तथा पार्श्वनाथ का एक साथ वर्णन है। उपाध्यायजी ने 'पंचाख्यान' नामका पंचतंत्राधारित लोक कथा साहित्य गुजराती भाषा में रच कर लोकानुरंजन किया। उन्होंने 'पंचमी कथा' की भी रचना की ! उनका विंशति यंत्र विधि बहुत प्रसिद्ध है जिस पर साराभाई नवाबने भाष्य लिखा है। उसके अनुसार यह ज्ञात होता है कि देवी पद्मावती उन पर प्रसन्न थी। इन ग्रथों के अतिरिक्त 'पंचार्थीस्तव' 'अर्जुनपताका' 'भाषा चौबीसी' 'विजयपताका' एवं 'धर्ममंजूषा आदि छोटी छोटी रचनायें भी की। 'धर्ममजूषा में मूर्तिपूजा की स्थापना सिद्ध की है। अपने 'ब्रह्म बोध' नाम के ग्रंथ में उन्होंने आध्यात्मिक चिन्तन किया है। यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। इनके अतिरिक्त भी गुजराती एवं संस्कृत में उनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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