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प्रज्वलित ही रहती है लेकिन अगर बीच-बीच में 'आप' कहीं और चले जाओ तो इसमें लाइट क्या करे?
प्रज्ञा, वही दिव्यचक्षु है ? नहीं। दिव्यचक्षु तो सिर्फ एक ही, सामने वाले को शुद्धात्मा देखने का ही काम करते हैं जबकि प्रज्ञा तो बहुत सारा काम करती है।
पछतावा, वह प्रज्ञा करवाती है। प्रतिक्रमण, वह प्रज्ञा करवाती है। अक्रम में सामायिक में देखने वाला कौन है ? प्रज्ञा। आप्तवाणी पढ़ते हैं, त्रिमंत्र बोलते हैं तब अक्षर पढ़ने वाला कौन
है ? प्रज्ञा।
विचार आते हैं, वे मन में से और जो उन्हें देखती रहे, वह प्रज्ञा है। दादाश्री कहते हैं, 'हम से अज्ञा ने (बुद्धि ने) रिटायरमेन्ट ले लिया है यानी कि वह खत्म हो गई है इसीलिए अबुध बनकर बैठे हैं'। बुद्धि नफा-नुकसान दिखाती है। संसार में ही डुबाए रखती है। जब 'व्यवस्थित' के ज्ञान का उपयोग होता है तब बुद्धि बंद हो जाती है और अबुध दशा की तरफ प्रयाण!
बुद्धि का नहीं सुनना है वह टक-टक करे तब भी 'आप' 'अपने' में ही रहो न! जब तक बुद्धि को कीमती मानोगे तब तक टिकी रहेगी।
बुद्धि से बढ़कर प्रज्ञा है और प्रज्ञा से बढ़कर विज्ञान है! आत्म विज्ञान!
___ अध्यात्म में बुद्धि की कितनी ज़रूरत है? वह तो मात्र शुरुआत में अध्यात्म समझने के काम आती है, बाद में नहीं। हम जो दादाश्री से समझते हैं वह बुद्धि नहीं है। वह तो दादाश्री की वाणी ही इतनी पावर फुल है कि जो आत्मा के आवरणों को भेदकर आत्मा को टच कर लेती है! अतः इसमें बुद्धि का काम ही नहीं है, समझने में।
कौन बार-बार दादाश्री के पास खींचकर लाता है ? बुद्धि या प्रज्ञा? दोनों में से एक भी नहीं। वह तो पुण्य से आ पाते हैं।
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