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लखन
वर्ष १४] सम्पादकीय नोट
[१६. लीनोऽस्थि यो हयनुसमः स मुनिश्च वंद्यः॥ ऐसा वर्णन केवल तिलस्मी उपन्यासों में ही शोभा देता वे मुनिराज अपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र है। क्योंकि बौद्ध साहित्य में तो प्रामाणिक रूपसे किसी भी और समता श्रादि गुणोंकी वृद्धिके लिये शास्त्रोंमें कहे साधूने शून्य मार्गसे विचरण किया नहीं। हां यदि लेखक हए नियत समय पर एक ही बार आहार लेते हैं। वे की बुद्धि इस कार्यको सम्भव बना दे तो ऐसा हो सकता है। मुनिराज सूर्योदय से तीन घड़ी तक ग्राहार नहीं लेने, सूर्य इसीप्रकार"दिव्य-शक्रि संपन्न भिक्षुगण कोई कनकअस्त होने के तीन घड़ी पहले तक प्राहारसे निबट लेते पद्म पर पारोहण कर सौरभ विस्तार करते-करते आगमन हैं और मध्यकालमें सामायिकका समय छोड़ देते हैं। करने लगे। शेष किसी एक ही समयमें आहार लेने हैं। तथा परम पवित्र
लेखक ने ऐसा बौद्ध साधुनोंके सम्बन्ध में लिखा है, ऐसे अपने पारमाके शुद्ध स्वरूपमें लीन रहते हैं। ऐसे वे
मुझे इस पर और भी अधिक तरस आता है। निस्पृह और
मुर उपमारहित मुनि वंदनीय गिने जाते हैं।
निर्विकार बौद्ध साधुओंको भी सम्पदाशाली और जावूकी यदि इतने में भी सन्तरामजी की यह समझमें नहीं
शक्रि वाले बताकर लेखकने अपनी बुद्धिका ही चमत्कार आता कि क्यों भारतकी २० लाख जनता जैनधर्मक प्रति
दिखाया है। श्रद्धा रखती है और क्यों बुद्धधर्मसे हजारों वर्ष पहले
मेरी समझ में नहीं पाता यदि लेखकका उद्देश्य केवल प्रारम्भ होनेसे आज हजारों वर्ष बाद तक जैनधर्म और
एक कहानी ही लिखना था तो पृष्ट ४६६ पर बौद्धधर्मके उपके सिद्धांत भारतमें जीवित हैं तो हम उनकी बुद्धि पर सम्बधर्म व्याख्यान दनका क्या अर्थ हैं। इससे पूर्णतया केवल खेद प्रकट कर सकते हैं। साथ ही हम उन्हें मित्रवत् प्रकट होता है कि लेखकने कहानीको कहानीकारके दृष्टिकोण सलाह देते हैं कि जिस देश में चारित्रचक्रवर्ती श्राचार्य शांति- से नहीं बल्कि धर्मद्वेष फैलाने और अपने मनकी निम्न हवस
यानमा हो वह देश परित्याज्य को शब्दों में व्यक्त करनेकी इच्छास ही यह त्रुटिपूर्ण भ्रामक नहीं है बल्कि पूजने योग्य है।
और अपवादी लेख लिखा है। धर्मद्वेषकी दृष्टि से ही नहीं किन्तु ऐतिहासिक दृष्टिसे मैं अवतिकाके पाठकोंके साथ-साथ सम्पादक-मंडलका भी मैं मंतरामजी को यह बताना चाहता है कि उन्होंने ध्यान भी इस श्रोर दिलाना चाहता हूं कि यदि वास्तव में वह जैसा लिखा है...जो सफल भिक्षुगण प्रभावशाली हैं और एक विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका का ही संचालन करना चाहते शून्य मार्गस विचरण कर सकते हैं केवल उन्हींको निमंत्रण हैं तो इस प्रकारके लेखांको जिनसे किसी धर्म पर आक्षेप -श्लाका-पत्र प्रदान करा ।
फैलानेका अवसर मिले कदापि अपनी पत्रिकामें स्थान न दें। सम्पादकीय नोट
इस लेखक लेखकने सन्तरामजीकी जिस भारी भूलका दिग्दर्शन कराया है वह निस्सन्देह अक्षम्य भूल है। कहानीके शब्दोंको पढ़नस स्पष्ट ज्ञात होता है कि सन्तरामजीने जैनधर्म और उसके माधुओं पर घृणित, निन्द्य एवं असत्य पाक्षेप कर अपनी कुत्सित मनोवृत्तिका परिचय दिया है। उक्त टिप्पणी लिखनक पश्चात् हाल ही के जैन गजट अंक ३५ में श्रापका प्रकाशित क्षमायाचना पत्र देखने में पाया । जो इस प्रकार है:
'सुमागधा' कहानीके लेखकका क्षमा याचना पत्र प्रिय श्री पाटनीजी,
आपके वकील 'श्रीशिवनारायन शंकर द्वारा भेजा हुआ श्रापका नोटिम मिला, पटनाकी मासिक पत्रिका 'अवंतिका' के मई अंक में प्रकाशित 'सुमागवा' शीर्षक मेरे लेग्व से अापको और कई अन्य दिगम्बर जैन सम्प्रदायके भाइयों को दुःख हुआ, इसका मुझे बड़ा खेद है । मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि मैंने यह लेख किसी दुर्भावनासे प्रेरित होकर नहीं लिखा । इसमें मेरा उद्देश्य किसी महापुरुषको बदनाम करना या उसके अनुयाइयोंकी भावनाओंको ठेस पहुंचाना बिल्कुल नहीं था। उनके प्रति स्वभावतः वही मेरे मन में सन्मान और श्रादर बुद्धि है।
आप लोगों को मेरे लेख से जो कष्ट हुअा है उसका मुझे बड़ा खेद है । भगवान महावीर क्षमा के अवतार थे, आप अपने को उनका अनुयायी मानते हैं इसलिये मुझे पूर्ण आशा है कि आप भी इस भूलके लिये क्षमा करदेंगे। मैंने