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वर्ष १४
श्री संतराम बी० ए० की सुमागधा
उनकी चार कृतियोंके नाम अन्य ग्रन्थ सूचियोंमें उपलब्ध वहां सहन शील भी थे, उन्होंने दारिद्रदेवका स्वागत किया। होते हैं-शिखर विलास, उपदेशसिद्धान्त रत्नमाला, परन्तु किसीसे धन पानेकी आकांक्षा तक व्यक्त नहीं की, प्रमाणपरीक्षा भाषा और नेमिनाथ पुराण। इनमेंसे फिर भी प्रतापगढ़ (राजस्थान) के एक उदार सजनने प्रमाण परीक्षा टीका उन्होंने ग्वालियर लश्करके जिनमन्दिरमें जिनका नाम मुझे स्मरण नहीं रहा उन्हें दुकान आदि बैठ कर सं० १६१३ में बनाकर समाप्त की है। अन्य देकर उनकी आर्थिक कठनाईका हल कर दिया था। टीकाओंमें उन ग्रन्थोंका रचनाकाल नहीं मिला। फिर भी आर्थिक हल होजाने पर भी पण्डितजी में वही सन्तोषवृत्ति वे सं० १९१३ से पूर्व या पश्चात्वर्ती हो सकती हैं। आपके अपने उसी रूपमें दीख रही थी। जो सदृष्टि विवेकीजन टीका ग्रन्थोंकी भाषा पुरानी हिन्दी है। उसमें ब्रज भाषा होते है उनकी परवस्तुमें ममता नहीं होती, वे कर्मोदयसे का तो असर है ही।
प्राप्त वस्तुमें ही सन्तोष रखते हैं । पर पदार्थोमें कत व बुद्धि
हटने पर तज्जनित अहंकार ममकार भी उन पर अपना अन्तिम जीवन
प्रभाव अंकित करने में समर्थ नहीं हो पाते । प्रस्तु, मापने ____ कहा जाता है कि पण्डितजीको अपने अन्तिम जीवनमें कितनी अवस्थामें कब और कहां से देव-लोक प्राप्त किया, माथिक हीनताका कष्ट सहन करना पड़ा था, क्योंकि लक्ष्मी यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका । पर संभवतः उनका अंतिम और विद्या का परस्पर वैर है, नीति भी ऐसी ही है कि जीवन प्रतापगढ़में ही समाप्त हुआ है । इसका कोई निश्चिा पण्डितजन निर्धन होते हैं । हां, इसके प्रतिकूल कुछ अप- कारण ज्ञात नहीं हो सका, होने पर उसे प्रकट किया वाद भी देखनेको मिलते हैं। पण्डित जी जहां विवेकी ये, जायगा।
श्री संतराम बी० ए० की 'सुमागधा'
(ले०-मुनीन्द्र कुमार जैन, ए० ए०, जे० डी०, दिल्ली) अवन्तिकाके मई १९५६ के अंकमें श्री सन्तराम बी० होकर धार्मिक उपदेशोंके लिये उनकी शरणमें आ जाते थे। ए. की 'सुमागधा' नामक कहानी प्रकाशित हुई है। कहानी किन्तु धर्म-द्वेषकी पट्टी अांखों पर बांधकर लेम्खकने जिस को पढ़कर मैं स्तब्ध-सा रह गया : मुझे इस बातका खेद प्रकार आगे जैन साधुओंका वर्णन किया है वह इस प्रकार हुआ कि इस कहानीके लेखक श्री सन्तराम बी. ए. जैसे है-'दिगम्बर-भिक्षुगणने धनवतीके भोज्य-सम्भारकार्यकी वयोवृद्ध व्यक्ति हैं और साथ ही यह अवन्तिका जैसी उच्च- व्यय कथा जानकर सदल-बल सुमागधाके श्वसुर-भवनमें कोटिकी साहित्यिक पत्रिकामें प्रकाशित हुई है। मैं समझता आगमन किया। नंगे साधु जटाजूटजारी, भस्म विभूषित हूँ कि श्री सुधांशुजीने कार्यमें अधिक व्यस्त रहनेके कारण एवं विकटवदन थे। दम्भके कारण, उनके बदन भयंकर बिना देखे ही इस प्रकारकी कट-वचनों और धार्मिक मत- प्रतीत हो रहे थे और मुख तथा चतुसे क्रोध-भाव सुस्पष्ट भेदोंसे भरी रचना अपनी पत्रिकामें प्रकाशित कर दी है। मैं प्रतिभासित हो रहा था..."। इस विषयमें अधिक न लिखकर इस कहानी और इसमें लेखककी जानकारीके लिये में यहां पर कुछ मोटी-मोटी वर्णित खेदजनक और धर्मान्ध पापोंका ही उत्तर यहां बातें बता देना चाहता हूँ। पहली तो यह कि दिगम्बर देना चाहता हूँ।
साधु न्यौता देने पर किसीके घर जाकर भोजन नहीं करते। श्री सन्तराम लिखते हैं-'जगत पूज्य भगवान जिन दूसरी बात यह है कि नग्न वेषधारी होने पर भी वह जटा(जैनधर्म प्रवर्तक) मेरे गृहमें प्रागमन करेंगे-लेखकका जूट धारण नहीं करते, न ही वह शरीर पर भस्म या राख प्राशय 'जिन' शब्दको लिखनेसे और साथ ही कोष्टकमें मलते हैं, साथ ही जैन साधुओंसे अधिक शान्ति किसी में जैन धर्म प्रवर्तक दोहरानेसे भगवान महावीरकी मुद्रा अन्य मतके साधुओंके मुख पर नहीं दिखाई दे सकती । की ओर है। भगवान महावीरकी मुद्रा और वेष जहां इसलिये उनको दम्भी और भयंकर बदनवाला कह कर तक सब लोग जानते है बहुत ही सौम्य और लेखकने अपनी विशेष बुद्धिका ही परिचय दिया है। चिन्ताकर्षक थी। उनके दर्शनोंसे प्राणी मात्र आकर्षित शायद इस कहानीको लिखनेसे पहले ही लेखकके