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दुष्टाधिप होते दण्डपरायण
का आधार, उसको मिले हुए उच्च अधिकार नहीं हैं, अपितु समय आने पर हर प्रकार का त्याग, या बलिदान के लिए तत्परता है; सच्चरित्रता है ।
अहमदाबाद का नगरसेठ खुशालचन्द्र नवाब द्वारा नगराधिप बनाया गया था । यों तो नगर सेठ का पद पीढ़ी-दर-पीढ़ी से चलता आ रहा था । परन्तु एक बार इस 'नगर सेठ' पद की भारी कसोटी हुई । अहमदाबाद पर घोर विपत्ति छाई हुई थी । अहमदाबाद की सुरक्षा का भार था तत्कालीन शासक इब्राहीम कुली खाँ के हाथों में; लेकिन अचानक ही सिपहसालार हमीद खाँ ने अहमदाबाद पर आक्रमण कर दिया । हमीद खाँ के आगे इब्राहीम कुली खाँ टिक न सका । भद्रदुर्ग के फाटक को तोड़कर हमीद खाँ की सेना आँधी की तरह शहर में घुस आई और लूटपाट, सामूहिक हत्या, मारपीट एवं आगजनी करने लगी । नगरसेठ खुशालचन्द्र ने इस नृशंस काण्ड को देखा तो एक क्षण गम्भीरता से सोचकर तुरन्त अपने कर्त्तव्य का निर्णय कर लिया । वे सिर्फ अधिकार के बल पर दूसरों पर रौब गाँठने वाले नहीं थे, अपितु अपने कर्त्तव्य को प्राथमिकता देने वाले त्यागवीर पुरुष थे । इस समय उन्हें अपने जान-माल की सुरक्षा की चिन्ता नहीं थी, वे नगर के निर्दोष नागरिकों के जान-माल की सुरक्षा चाहते थे । इसलिए ऐसे घोर संकट के समय अपने प्राणों की परवाह किये बिना सीधे सेनापति हमीद खाँ के पास पहुँच गये । नगर सेठ ने उससे नम्र प्रार्थना की--" शहर को अराजकता से बचाकर शीघ्र सुव्यवस्था की जाए ।"
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सेनापति आरक्त नेत्रों से नगरसेठ की ओर घूर कर देखने लगा । वह नगरसेठ की सौम्य आकृति से प्रभावित होकर बोला- “धन का ढेर सामने रखो, उसके बिना सेना वापिस नहीं लौट सकती । "
"धन देता हूँ, माँगो जितना; परन्तु सेना को शीघ्र वापस लौटाओ, मुझसे ये अग्नि की ज्वालाएँ, निर्दोष नागरिकों की हत्या, सम्पत्ति की लूटपाट और दीनों के आश्रय स्थानों का सर्वनाश देखा नहीं जाता ।” नगरसेठ के शब्दों में हृदयद्रावकता थी ।
" अहमदाबादी बनिये ! माँगू जितना धन देगा ?”
"हाँ अवश्य !” नगरसेठ ने कहा । किन्तु 'हाँ' कहने वाला बनिया जानता था कि उस धनराशि की पूरी जिम्मेवारी उस पर है, एक 'हाँ' के पीछे तिजोरी का पैंदा दिख जायगा । फिर भी अपनी सम्पत्ति को बचा लेने का जरा भी स्वार्थी विचार नगरसेठ के मन में न आया । वे बोले – “ सेना को आदेश दो, कि वह वापस लौट जाए। आपके कथनानुसार धनराशि अभी ले आता हूँ ।"
तुरन्त सेना को वापस लौटने की रणभेरी बजी । लूटमार करने वाली सेना तत्काल शिविरों में आ पहुँची। आग से जले घर बुझाये गये । जनता ने सन्तोष की ठण्डी साँस ली। कुछ ही देर में चार बैलों के सुन्दर रथ में रुपयों की थैलियाँ आ गईं।
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