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दुष्टाधिप होते दण्डपरायण–१ ३ मनु ने कहा-“मैं यहाँ बैठा हूँ, जो भी मेरे पास आते हैं, उन्हें सच्ची राह बताता हूँ । परन्तु लोग उस पर चलें नहीं, उसका मैं क्या करूँ ? मार्गसूचक स्तम्भ का काम मार्ग-दर्शन करने का है, दिशा बताने का है, लोग उस दिशा में नहीं जाना चाहते तो क्या मार्गसूचक स्तम्भ उनका हाथ पकड़कर ले जायगा? मैं भलाई का रास्ता ही तो बता रहा हूँ।"
इस पर लोगों ने कहा-“महानुभाव ! आपने स्वर्ग का रास्ता बताया, पर वह तो बहुत संकड़ा है, नरक का रास्ता चौड़ा है, इसलिए हम सबका मन उसी तरफ जाने को होता है।"
मनु बोले- "ठीक है, तब जाओ, तुम्हारी मर्जी की बात है।"
इस पर लोग आग्रहपूर्वक कहने लगे-"महानुभाव ! आप हमारे राजा बनें, तो आपके कठोर अनुशासन में प्रजा सन्मार्ग पर व्यवस्थित ढंग से चल सकती है। आपको हम यथेष्ट अधिकार भी दे सकते हैं, प्रजा को सच्ची राह पर चलाने और विपरीत राह से रोकने के लिए।" तब मनु महाराज ने कहा-"प्रजाजनो ! मेरी दो शर्ते हैं--एक तो यह कि समग्र जनता एक स्वर से कहे कि 'मनु राजा बने' तो मैं यह जिम्मेवारी लेने को तैयार हूँ। एक भी मनुष्य ऐसा न हो, जो इस विचार से विरुद्ध हो । दूसरी शर्त यह है कि मुझे जनता की भलाई के लिए जो कुछ अच्छे-बुरे, सरल-कठोर कानून बनाने पड़ेंगे, उनकी सारी जिम्मेवारी और पाप-पुण्य तुम्हें भोगने पड़ेंगे । यदि ये दोनों शर्ते मंजूर हों तो मैं राजा बन सकता है।"
समग्र जनता ने एक-स्वर से इसे स्वीकार किया और मनु राजा बने । जैसा कि पुराणों में कहा है--
एवं मनुः राजा अभवत् ।। यह तो हुआ राज्य शासन के अधिपति का इतिहास !
अधिप के कितने रूप? इसी प्रकार समाज का आधिपत्य जिनको सौंपा जाता था, वे समाजाधिप या समाजाधिपति, ग्राम का आधिपत्य जिन्हें सौंपा जाता था, वे ग्रामाधिप (गाँव के मुखिया या अग्रणी) कहलाते थे। जाति का आधिपत्य जिन्हें सौंपा जाता, उन्हें सरपंच कहते थे।
उस युग में मुख्यतया राज्याधिप को ही अधिक महत्व दिया जाता था। वही अपने अधीन विभिन्न विभागों के मन्त्री या अधिकारी चुनकर नियुक्त कर देता था। मगर बाद में इस व्यवस्था में अनेक परिवर्तन करने पड़े । राज्याधिप (राजा) अकेला इन सब विभागों के अधिपों या अधिकारियों पर ठीक तरह से नियन्त्रण नहीं कर पाता था। राजा स्वयं कई बार सत्ता के मद में आकर अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर बैठता था । जनता अपनी वास्तविक पुकार सीधी राजा तक नहीं पहुँचा
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