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दुष्टाधिप होते दण्डपरायण-१
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं आपके समक्ष ऐसे जीवन की चर्चा करना चाहता हूँ जो कर्तव्यविहीन और निन्दनीय जीवन समझा जाता है । वह जीवन है-दुष्ट शासनकर्ता का जीवन । शासक का जीवन विश्वसनीय, वात्सल्यमय एवं स्नेहसिक्त होना चाहिए, किन्तु जब उसमें स्वार्थ, अहंकार और भोग की प्रबलता हो उठती है तो वह कर्तव्य, धर्म और नीति से रहित हो जाता है, तब वह वात्सल्यमय या स्नेह से ओत-प्रोत न होकर कठोर शासनात्मक, केवल दण्डपरायण हो जाता है । इसलिए गौतम महर्षि ने सूचित किया है--
'दुट्ठाहिवा दंडपरा हवंति' दुष्ट अधिप-शासक या अधिकारी दण्डपरायण होते हैं । गौतमकुलक का यह पैंतीसवाँ जीवन-सूत्र है। यह जीवन-सूत्र केवल शासक के लिए ही नहीं, प्रत्येक अधिकारी के लिए मननीय है।
अधिप क्यों और किसलिए बनाया गया था ? मनुष्य ने जब से समाज बनाकर रहना सीखा, तब से उसने परिवार, जाति, ग्राम, नगर, प्रान्त, राष्ट्र और राज्य (शासन), धर्म एवं समाज के विविध संगठन बनाये। जब संगठन बने तो उन संगठनों का ठीक रूप में संचालन करने के लिए किसी न किसी योग्य, गुणवान, प्रभावशाली, शक्तिशाली एवं चरित्रवान व्यक्ति के कुशल हाथों में उसका आधिपत्य, नेतृत्व या संचालन-सूत्र सौंपना उचित समझा गया। उस संगठन का आधिपत्य सौंपने के साथ-साथ उसे कुछ विशिष्ट अधिकार भी दिये गये । न्याय और सुरक्षा की व्यवस्था का दायित्व भी उसी का माना गया ।
प्रत्येक संगठन का अधिप या अधिपति इसलिए भी बनाया जाता था कि अराजकता न फैल जाये । अगर अधिपति नहीं बनाया जाता तो कोई भी चालाक या थोड़ा-सा ताकतवर या दुःसाहसी व्यक्ति झट उस संगठन को हथियाने और मनमानी करने, दुर्बल लोगों को दबाने-सताने को तैयार हो जाता, वह नेता या अधिपति बन बैठता। जनता ने इस स्थिति से बचने के लिए मानव-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के संगठन का एक अधिप या अधिपति बनाना आवश्यक समझा । अधिपति बनाना इसलिए
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