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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र था। दिशाओं के मुख-भाग को बहरे करने वाली, बैलों के गलों की घण्टियों की टनकार दूर से ही सुनकर, चमरी मृगोंने बच्चों समेत अपने कान खड़े कर लिये और डरने लगे। भारी बोझको ढोने वाले ऊँट चलते-चलते भी अपनी गर्दनों को घुमाघुमाकर बारम्बार वृक्षों के अगले भागोंको चाटने लगते थे। मालसे भरे बोरोंसे लदे हुए गधे अपने कान ऊँचे और गर्दनें सीधी करके एक दूसरे को दाँतों से काटते और पीछे रह जाते थे। हर ओर हथियारबन्द रक्षकों से घिरा हुआ वह संघ, बज्रके पींजरे में रखे हुए की तरह, मार्ग में चलता था। महामूल्यवान् मणिको धारण करने वाले सर्पके पास लोग जिस तरह नहीं जाते; उसी तरह ढेर धन वहन करने वाले इस संघ के पास चोर नहीं आते थे--दूर ही रहते थे। निर्धन और धनवान् दोनों को एक नज़र से देखने वाला, दोनों की ही रक्षा का समान रूपसे उद्योग करने वाला सेठ सार्थवाह सब को साथ लेकर उसी तरह चलने लगा, जिस तरह यूथपति हाथी अपने साथ के सब हाथियों को लेकर चलता है। नयनों को प्रफुल्लित करके, लोगों से सम्मान पाता हुआ धन-सार्थवाह सूर्य की तरह रोज़ रोज़ चलने लगा।
ग्रीष्म-वर्णन।
उसी समय नदियों और सरोवरों के जल को, रात्रियों को तरह, संकुचित करने वाली, पथिकों के लिए भयङ्कर और महा