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.: प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
को वही आहार ग्रहण करना चाहिये, जो न तो उनके लिए कराया गया हो और न संकल्प ही
तैयार किया गया हो, न किया गया हो । सेठ जी ! जिनेन्द्र शासन में साधुओं के लिए कूएँ, बावडी और तालाब का जल पीने की भी मनाही है: क्योंकि वह अग्नि वगेर: शस्त्रोंसे अचित किया हुआ नहीं होता ।” ये बातें हो ही रही थीं कि, इतने में किसी पुरुष ने आकर सन्ध्या. कालके बादलों के समान, सुन्दर रंगवाले, प हुए आमोंसे भरा हुआ एक थाल सार्थवाह के पास रख दिया । धन सार्थवाहने, अतीव प्रसन्न चित्तसे, आचार्य से कहा - " आप इन फलों को ग्रहण करें, तो मुझपर बड़ी कृपा हो ।” आचार्य ने कहा- “हे श्रद्धालु ! साधुओं के लिए सचित्त फलोंके छूने तक की मनाही है; खाना तो बड़ी दूर की बात है ।" सार्थवाह ने कहा- “आप महा दुष्कर व्रत धारण करते हैं। प्रमादी यदि चतुर भी हो, लोभी ऐसा व्रत एक दिन भी नहीं पाल सकता | खैर, आप साथ चलिये । आप को जो अन्न-पानादि ग्राह्य होंगे, मैं यही आपको दूंगा ।" इस तरह कहकर और नमस्कार करके, उसने उनको किया ।
सेठ का पन्थगमन ।
इसके बाद सार्थवाह बड़ी-बड़ी तरङ्गों वाले समुद्रकी तरह अपने चञ्चल घोड़े, ऊँट, गाड़ी और बैलोंके सहित चलने लगा । आचार्य महाराज भी मानो मूर्त्तिमान मूल गुण और उत्तर गुण हों, ऐसे साधुओं से घिर कर चलने लगे । सारे संघ के