Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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'बालभारत' नामक नाटक की रचना महीपालदेव के आश्रय में की उनका अन्तिम ग्रन्थ 'काव्यमीमांसा कन्नौज में ही रचा गया था। आचार्य राजशेखर को मध्यदेश तथा उसका नगर कान्यकुब्ज परम प्रिय था । पाञ्चाल देश जो मध्यदेश भी था, के जनपदों में पाञ्चाल, शूरसेन, हस्तिनापुर, काश्मीर, वाहीक, बाह्रीक, बाह्रवेय आदि प्रसिद्ध थे। कन्नौज में भारत के सभी क्षेत्रों के लोगों का आवागमन अधिकता से होता था, क्योंकि प्रसिद्ध प्रतिहारवंशी नरेशों की राजनीति का केन्द्र बिन्दु यही नगर था । भारत के सभी स्थानों से विभिन्न भाषा-भाषियों के आगमन से यहाँ के लोग सर्वभाषाविचक्षण हो गए थे। इसी प्रकार कन्नौज का आचार-विचार, रहन सहन सम्पूर्ण भारत को प्रभावित करता था। आचार्य राजशेखर मध्यदेश के कवि को 'सर्वभाषानिषष्ण' मानते थे और वे स्वयं सर्वभाषा-विचक्षण थे 2 इस पाञ्चाल देश के प्रधान नगर कान्यकुब्ज की रमणियों की वेपरचना, बोलचाल की सुन्दरशैली, केशों की आकर्षक रचना और आभूषण पहनने के प्रकार पर आचार्य राजशेखर परम मुग्ध थे और यह भी स्वीकार करते थे कि कान्यकुब्ज की ललनाओं के सम्पूर्ण व्यक्तित्व से भारत के अन्य क्षेत्रों की स्त्रियाँ भी प्रभावित थीं 13 आचार्य राजशेखर काव्यपाठ की दृष्टि से तथा उच्चारण की दृष्टि से भी पाञ्चाल देश के कवियों की सर्वश्रेष्ठता स्वीकार करते थे 4 आचार्य राजशेखर के जीवनकाल के कई ग्रन्थ कन्नौज में ही रचित हुए ।
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1. ततश्च स पाञ्चालान्प्रत्युच्चाल यत्र पाञ्चालशूरसेनहस्तिनापुरकाश्मीरबाहीकबाहीकबाह्रवेयादयो जनपदाः ।
काव्यमीमांसा (तृतीय अध्याय)
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3.
यो मध्ये मध्यदेशं निवसति स कविः सर्वभाषानिषण्णः ।"
काव्यमीमांसा ( दशम अध्याय, पृष्ठ-126 )
(क) “ताडङ्कवल्गनतरङ्गितगण्डलेखमानाभिलम्बिदरदोलिततारहारम् । आश्रोणिगुल्फपरिमण्डलितान्तरीयम् वेषं काव्यमीमांसा - (तृतीय अध्याय, पृष्ठ-20)
नमस्यत महोदयसुन्दरीणाम्।”
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(ख) यो मार्ग परिधानकर्मणि गिरां या सूक्तिमुद्राक्रमो भङ्गिर्या कवरीचयेषु रचनं यद् भूषणालीषु च दृष्टं सुन्दरि कान्यकुब्जललनालोकैरिहान्यच्च यत् शिक्षन्ते सकलासु दिक्षु तरसा तत् कौतुकिन्यः स्त्रियः ॥
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(बालरामायण ( 10/90)
4. 'मार्गानुगेन निनदेन निधिर्गुणानां सम्पूर्णवर्णरचनो यतिभिर्विभक्तः । पाञ्चालमण्डलभुवां सुभगः कवीनां श्रोत्रे मधु क्षति किञ्चन काव्यपाठः ॥" काव्यमीमांसा (सप्तम अध्याय, पृष्ठ 85 )
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