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॥ श्री
विद्याभवन संस्कृत ग्रन्थमाला
३३
श्रीवाग्भटप्रणीतः
वाग्भटालङ्कारः
सिंहदेव गणिविरचितया संस्कृतटीकया समेतः
अभिनव 'शशिकला' हिन्दीटीकया च विभूषितः
सं० २०१४ ]
हिन्दीटीकाकारः
डॉ० सत्यत्रतसिंह एम. ए.
( संस्कृताध्यापक, लखनऊ विश्वविद्यालय )
CD
चौखम्बा विद्याभवन, चौक, वाराणसी - १
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मूल्यं २)
[ ई० १९५७
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भूमिका
वाग्भटालद्वार के प्रणेतर..... .. श्रालवारिक वाग्भट प्रथम 'वाग्भटालझार' के रचयिता 'बाग्भट' को पाग्भट प्रथम फहना आवश्यक है क्योकि इसी नाम के एक और आलङ्कारिक हो चुके हैं जिन्होंने 'काव्यानुशासन' की रचना की है । 'कान्यानुशासन' के रचयिता वाग्मट द्वितीय ने स्वयं वाग्भवलकार के प्रणेता वाग्भट प्रथम का उल्लेख किया है
'इण्डियाममवाग्भटादिप्रणीता दश काव्यगुणाः । वयं माधुर्योजाप्रसादलक्षास्त्रीनेव गुणान् मन्यामहे ।' ( काव्यानुशासन, पृष्ठ ३१) अर्थात् दण्डी, वामन और दाग्भट ( प्रथम ) आदि अलकाराचार्यों ने तो काव्य के दस गुणों का निरूपण किया है किन्तु हम ( अर्थात् वाग्भट द्वितीय ) केवल माधुर्य, ओज और प्रसाद–इन्हीं नीन गुगों को काण्यगुण मानने को तैयार है।
अलङ्कारशासकारों में 'वाग्भट' नाम के ये दोनों आलङ्कारिया जैनमतानुयायी हो चुके हैं किन्तु परवी वाग्भट ( काव्यानुशासनकार ) के द्वारा अपने पूर्ववर्ती किंवा समाननामा वाग्भटालसार-प्रणेता वाग्मट का उल्लेख दोनों के परस्पर मिल होने किंवा भित्र-भिन्न अलवार-ग्रन्थों के प्रणवन करने का एक प्रामाणिक संकेत है जिसमें किसी प्रकार आ संदेह नहीं किया जा सकता।
आयुर्वेद के प्रकरणग्रन्थ 'अष्टाङ्गहृदय' के रचयिता भी 'वाग्भट' नाम में हो आचार्य हो चुके है किन्तु रन्हें वाग्भटालद्वार के प्रणेता 'वाग्भट प्रथम' से अभिम नहीं माना जा सकता क्योंकि दोनों की वंश-परम्परा भिन्नभिन्न है और दोनों का कार्य-काल भी एक नहीं।
वाग्भट प्रथम का जीवनवृत्त वाग्भगलवार के रचयिता वाम्भट प्रथम के सम्बन्ध में इतना तो निःसन्दिग्ध है कि थे जैनधर्म के अनुयायी थे । वाग्भटालकार का निम्न अारम्भ-मङ्गल जैनधर्म और जैनदर्शन के प्रति बाग्मट की आस्था और मनस्तृष्टि-"दोनों का संकेत करता प्रतीत होता है
'श्रिय दिशसु पो देवः श्रीमाभेयाचिन सदा। मोधमार्ग सतां मूते यदागमपड़ावली ॥
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( २ )
अर्थात् वे श्रीनाभेय जिन, जिनकी सिद्धान्त परम्परा मत्पुरुषों के लिये मोक्षमार्ग का निरूपण किया करती है, आप सब को कल्याण लक्ष्मी में ।
'श्रीनाभेय जिन' इस पद में 'श्रीश्व नामेयो ब्रह्मा च श्रीनाभेयी, नाम्यामुपलक्षितो जिनः विष्णुः श्रीनामे- यजिनः' अर्थात् लक्ष्मी किंवा ममी से पुरस्कृत विष्णु भगवान् आदि अर्थ की गवेषणा, जो कि बाग्मटालङ्कार के एक-माथ व्याख्याकारों द्वारा की जा चुकी है, वाग्भट को जैनधर्म के अतिरिक्त अन्य धर्म का अनुयायी नहीं सिद्ध कर सकती । उपर्युक्त मंगलश्लोक में 'अतिशय चतुष्टय' अर्थात् बानातिशय, पूजा विशय, अपायापगमातिशय और बचना - तिशय का जो स्पष्ट संकेत है ( क्योंकि जैन साहित्य की परम्परा में 'देव' वह है जो केवल मानी से देदीप्यमान है, श्रीनामेवजिन' वह है जो 'श्री अथवा अहमदाप्रतिष्ठार्यादि लक्ष्मी से सदा संयुक्त किंवा रागद्वेषादिरिपुचक का विजेता है और 'मोक्षमार्ग' का दर्शक वह है जो 'रलय' की आराधन - सावना में सिद्ध है) वह इसी बात का प्रमाण है किं वाग्भट की आस्था 'रत्नत्रय' के प्रति रह चुकी है और वाग्भट की मनस्तुष्टि 'जेनागमपदावली पर केन्द्रित है ।
वाग्भट प्रथम ने अपने वंश के मम्बन्ध में कुछ थोड़ा सा संकेत किया है जो कि वाग्मटाकार के चतुर्थ परिच्छेद में कुरालङ्कार के इस उदाहरण लोक में वह हैबम्भण्दसुतिपुढसुकिभमणिनो पहा समूह छ । सिरिवाहदत्ति तणओ असि बुहो तस्स सोमरस || (नाण्डशुक्तिसम्पुट मौक्तिकमणेः प्रभासमूह इव । श्रीवाग्भट इति तनय आसीद बुत्रस्तरय सोमस्य ॥ )
'वाग्मटालङ्कार' के व्याख्याकार श्री सिंहदेव ने इस उदाहरण - श्लोक की अबतर शिका के रूप में जो यह निर्देश किया है
'इदानीं प्रन्थकारः इदमलङ्कारकर्तृष्वस्यापनाय वाग्भटा भिवस्य महाकषे महा माध्यस्य नाम गाययैकया निदर्शयति । ( ३० पृ० १५ )
तथा एक और व्याख्याकार श्री जिनवर्धनसूरि का जो यह उल्लेख है --
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'तस्य सोमस्य वाह इति नाम्ना तनय आसीत् '
जिसकी पुष्टि वाग्भद के ही तीसरे व्याख्याता श्रीक्षेमसंग ने इस प्रकार से की है
'सस्य सोमस्य चाह इति तनय आसीत् '
बद्द सत्र यही सिद्ध करता है कि वाग्भट का प्राकृत नाम 'बादद्ध' रह चुका है और नाग्भट के पिता का नाम 'सोम' था
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वाग्भट का निवासस्थान 'अगदिलपट्टन' ( अनहिलघाट ) प्रतीत होता है । वाग्मट ने अपनी नंगरंभूमि का इस प्रकार स्मरम किया है
'अणदिनपाटकं पुरमथानिपतिः कर्णदेवनृपसूनुः। श्रीकलानामधेयः करी - नमामि हातीह ।'
(वाग्भालनार ४. १३१) अर्थात् जगतातल के प्रत्यक्ष दृश्यमान 'रमन्त्रय' में प्रथम रस है अणहिल्लपाटननामक नगररन, द्वितीय रस है चालुक्य श्रीजयसिंहदेवनामक रामरक्ष और तुतीय रश है श्रीकलशनामक गजरमा । ..
वाग्मट की उपर्युक्त तूक्ति 'समुच्चय अलमार की उदाहरण-सूक्ति है जिसमें 'अत्युत्कार वस्तुओं का एकत्र निबन्धन' प्रदर्शित किया गया है। 'अनहिलवाड' के प्रति वापभट का अंगाद स्नेह मिनासभूमि के प्रति कति की दशानाक्ति का ही परिचायक है। जैनधर्म के रसत्रय' के महान् आदर्श और अनहिल वाह, चालुक्य जयसिंहदेव और श्रीकलशगजराज के परस्पर उपमानोपमेयभाव का प्रदर्शन तब तक कोई स्वारस्य रखता नाही असीत होता जब तक वाग्भट और अनहिलवा का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध न मान लिया जाय ।।
वाम्मट और चालुक्य श्रीजयसिंहदेव का सम्बन्ध तो सिद्ध ही है क्योकि बाग्भटालार की कतिपय मुक्तियों औजयसिंहदेव की स्मृति और प्रशस्ति काही अभिप्राय रखती है। उदाहरण के लिये यह सूक्ति'इन्द्रेण किंदिल कर्णमरेन्द्रसद्धररावतेम किमही पवि सहिपेन्द्रः । एम्भोलिनाऽप्यसमा यदि तपतापर स्वर्गीयपं मनु मुषा यदि तत्पुरी सा॥'
(वाग्भालार ४.७५) ओ कर्णराज के पुत्र चालक्य श्रीजयसिंहदेव को इन्द्र का समानधर्मा बताती हुई वाग्भट के राजप्रेम की सूचना दे रही है। इसी प्रकार यह सूक्ति
'सगदात्मकीर्तिशुनं जमादामधामदोपरिधः ।
जयक्ति प्रतापपूषा जयसिंहः क्माधिनाथः - ( वाग्मटालङ्कार ४.४५) जिसमें चालुक्य श्रीजयसिंहदेवका नाग-संकीर्तन स्पष्ट है, वाग्भट और समसामयिक चालुक्यदरवार के पारस्परिक सम्बन्ध का स्पष्ट प्रमाण है।
वाग्भट ने चालुक्य श्रीजयसिंहदेव का और भी विशद वर्णन किया है'इन्द्रः स एष पवि किं न सहस्रमणो लचमीपतिर्यदिक म चतुर्भोऽसौ। श्राः स्यम्बनमारतोचरतानथूब श्रीकर्णदेवपसरपं रणाप्रे ।'
(वाग्भटालकार ४.८०)
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'भाइबस्न पौरुषगुणाअपसिंहदेवपृथ्वीपते मंगपसेच समानभाषाः ।
किस्कतः मतिमदाः समरं विहाय खनो विश्चन्सि बनमन्पमशकमानाः ॥' जिससे यह स्पष्ट है कि कवि को अपने आश्रयदाता चाचपय श्रीजयसिंहदेव पर अभिमान है और चालुक्यराज्य के ताम्रचूड-ध्वज के गौरव का ध्यान है।
प्रो० वूडर के अनुसार अनहिलवाइ के चालुक्यराजवंश की जो बंशावली हुँ उसमें श्रीजयसिंहदेव का राज्यकाल १०९३ से ११४३ ० तक निर्दिष्ट है। इस प्रकार वाग्भट का भी समय उपर्युक्त हो सिद्ध होता है।
'वाम्मटालङ्कार' के रचयिता वाग्भट का उपर्युक्त कार्यकाल अन्य प्रमाणों से भी सिस किया गया है। श्री प्रभाचन्द्रमुनिरनित 'प्रभावकचरित' में वाग्भट के संबन्ध में जो यह उछेड है
'अयास्ति साहको नाम प्रधान पारिकाप्रणी। गुरुपादान् प्रणम्याथ पाके विज्ञापनामसौ॥ धादिश्यतामतिमाभ्यं स्यं यत्र धर्न प्यये । ममुराहालये जैने इम्यस्य सफलो व्ययः॥ मादेशानन्तरं सेनाकार्यस श्रीजिनालयः । हेमाद्रिभवलस्तुको दीप्यरकुम्भमहामणिः ॥ श्रीमाता वर्धमानस्थाचीभरदिग्बमुतमम् । पसेजसा जितानम()कारसमणिपभार ॥ पासकावाके साएसप्तती विकमार्कतः। वत्सरार्णा म्यतिकान्ते श्रीमुनिश्चन्द्रसूरयः ।। भाराथमाविभिश्रेष्ट कृत्वा प्रायोपवेषानम् । शमपीयूषकझोलप्लुतास्ते ब्रिदिवं ययुः ॥ वत्सरे तत्र बकेन पूर्ण श्रीदेवमूरिभिः ।
भीवीरस्य प्रसिद्ध स पाहोकारयम्मुदा । उसका यही अभिप्राय है कि वाग्भट ५१२३ ई० (११७९ विक्रम संवत ) के हैं और उनका नाम थाइड' रह चुका है जिसका संस्कृत रूपान्तर 'वाग्भट है। वाग्भट एक धनी किंवा परम धार्मिक जैनोपासक हो चुके हैं और उन्होंने जिनालय-जैनमन्दिर की स्थापना में अपने धन का सल्यय किया था। प्रभावकचरित की ये पंक्तियाँ मी वाग्भट के उपयुक्त कार्यकाल की ही पुष्टि बरती है:
अणहियापुर प्राप मापः प्राजयोदयः । महोत्सवप्रवेशस्य गजारूठसुरेन्द्रवत् ।।
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वाग्भटास्य विहारं मदरसे प्रसाधनम् । अन्येचुर्वाग्भटामात्यं भर्मास्पतिकवासनः अपृच्छताइवाचारोपदेष्टा गुहं नृपः ।। अोमवाग्भटदेवोऽपि जीर्णोद्धारमकारयत् ।
शिखीन्दुरविवर्षे (११) ध्वजारोप म्यधापयत् ।' अर्थात् विक्रम संवत् १२१३ ( ११५७ ई.) में अमात्यप्रवर वाग्भट ने जैनविहार का जीर्णोद्धार किया और एक ध्वजस्तम्भ की स्थापना की।
वाग्मटालवार का प्रचलन वाग्भयालयार की कई एक प्राचीन कायें हैं जिनमें १५:सिद्ध
(१) जिनवर्धनसूरिप्रणीत टाँका । (२) सिंहदेवगणिप्रशीत टीका । (३) शेमहंसगशिप्रणीत टीका 1 (४) अनन्तभट्टसुत गणेशमगीन टीका।
(५) राजहंसोपाध्याय प्रणीत टीका । इन टीकाओं से वाग्भटालाकार के सममामयिक प्रचलन और पठन-पाठन का पर्याप्त परिचय मिलता है।
__ वाग्भटालङ्कार : विषय-परिचय वाग्भटालवार के रचयिता वाग्भट प्रथम का प्रन्ध छोटा होते हुये भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है । साहित्य शास्त्र के जिशासओं की साहित्यविषयक जिज्ञासा इस एक ही लघुकाय ग्रन्थ से पूरी हो सकती है-यह कहने में अत्युक्ति न होगी। ग्रन्थ के नाम करण से अन्धकार का अभिप्राय अलकारशास्त्र पर एक अन्य का प्रणयन करना प्रतीत होता है किन्तु अन्य को आयोपान्त पड़ जाने के उपरान्त शात होता है कि वाग्भट ने. अपने उद्देश्य से भी अधिक महत्वपूर्ण एवं काव्योपयोगी सामग्री को इस छोटे से ग्रन्थ में सन्निनिष्ट कर दिया है।
'वाग्मटालङ्कार' पाँच परिच्छेदों में विभक्त है। प्रथम तीन परिच्छेदों में काज्यसम्बन्धी आवश्यक बातों पर प्रकाश डाल चुकने के पश्चात् चतुर्थ परिच्छेद में अलङ्कारों का विवेचन किया गया है । तत्पश्चात् अन्तिम परिच्छेद में रसादि विषयों का निरूपण करके ग्रन्थ को समाप्त किया गया है। अन्ध में सन्निविष्ट सम्पूर्ण सामग्री पर एक विहंगम दृष्टिपात कर लेने से अन्य का सम्पूर्ण कलेवर हस्तामलकवत हो जायेगा। इससे अध्ययन
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मध्यापन में सुविधा हो सकेगी। इस उद्देश्य से निम्न पंक्तियों में पृथक् पृथक परिच्छेद में किन-किन विषयों का निरूपण किया गया है—यह दिग्हाया जा रहा है।
प्रथम परिच्छेद मङ्गलाचरण से प्रारम्भ होता है । मङ्गलाचरण की प्रथा भारतीय शास्त्र में अत्यन्स प्राचीन है। आचार्यों ने तीन प्रकार के मामाचरण बतलाये है-आशीनाम नमरितामामा और निगमक ' माले पहले कहा जा चुका है, आचार्य वाग्भर जैनमतावलम्बी थे। अतः उन्होने 'नामेयजिन' की स्तुति करते हुए नमरिकलात्मक मङ्गलाचरण किया है । जैन वाग्भट के लिये भगवान् जिन ही सर्वशक्तिमान् हैं, उनकी शास्त्रनिीत सिद्धान्त-परम्परा सजगों के लिये गोक्षमार्ग का निर्देश करनेवाली है, अतः उनको स्तुति से ही श्री की प्राप्ति भी सम्भव है। मङ्गलोक के उपरान्त अन्धकार को अपनी अभीष्ट-सिद्धि अलकारशास्त्र का अध्ययन करना है। आखिर बत्यारों की कोई स्वतन्त्र सत्ता मी है या केवल अहङ्कार-निरूपण से ही ग्रन्थकार को सन्तोष हो जाय ? वह तो काव्य का अङ्ग है। अङ्ग को समझने के लिये अङ्गी का विचार कर लेना आवश्यक होता है और विषय-प्रतिपादन में साहायक मी। अतः मालाचरण के अनन्सर अलङ्कार का अङ्गीभूत काव्य का पल बताया गया है। फल के शान के निमा किसी वस्तु में रुचि भी तो नहीं उत्पक की जा सकती। अस्तु ! __आवार्य धाग्भट के अनुसार सत्कान्य की सष्टि कीर्ति-प्राशि के लिये है। यहाँ यह ट्रष्टव्य है कि आचार्य मम्मट ने काव्य का फल कीर्तत-प्राप्ति को तो स्वीकार ही किया है, साथ ही धनोपार्जन, व्यवहारशान, अकल्याण-निवारण, परमानन्द की प्राप्ति और प्यारी स्त्री की मनभावनी सम्मिति का लाभ भी उन्होंने काज्य का प्रयोजन माना है। देखिये
काम्यं यशसेऽर्थकसे व्यवहारनिदे शिवतरसतये ।
सपः परनिसिये काम्तासस्मिततयोपदेशयुजे ॥ ( का. प्र. १. २) वास्तव में मम्मट-निर्दिष्ट' यश से मिझ अन्य प्रयोजन भी यशःसाध्य के लिये साधनमान. ही कई जा सकते है। अत: वाग्भट का कान्य-फल-निर्देश परम्परा-विरुद्ध नहीं छाड़ा जा सकता । . - काय-फल-निरूपण के अनन्तर कान्योत्पति की सामग्री पर विचार किया गया है। कविता का कारण के प्रतिभा; और व्युत्पत्ति है बस काव्य का आभूषण-शीभाभायक अङ्ग । अम्पास से अबिलम्ब याव्यरचना की शक्ति प्राप्त होता है। पुनः प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास का रूप-निरूपण किया गया है। वाग्भट के मत से कविता में अभ्यास बहाने के लिये सबसे प्रथम बन्धचारुत्व से युक्त निरर्थक परसमूह के सङ्कटन द्वारा भी यथाशक्ति समस्त छन्दों पर अपना अधिकार करना चाहिये । काव्य में बन्धचाल्व किस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है यह जान लेना भी असमस न होगा। संयुक्त वर्ण के पूर्व
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लघ्यक्षर का गुरुवत् उच्चारण करना, विसर्गा का लोपन करना तथा युतिकटुवादि दोषों को ला देने वाली सन्धि का परित्याग करते रहना-ये तीन उपाय बताये गये है जिनसे काव्य में मन्यचारुश्य लाया जा सकता है।
पश्चाद्गुरुवं संयोगाद्विसर्गाणा विलोपनम् ।
विसम्धिवर्जमं घेति वधशास्पतयः ।। ( १.८) कान्याभ्यास कैसे करना चाहिये इस ओर भी आचार्य वाग्भट ने ध्यान दिया है। साथ ही उन्होंने यह भी बतलाया से कि काव्याभ्यासी को किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिये, जिससे काव्य पूपित भी न होने पाये और नवाभ्यासी कवि भी निर्विघ्न रूप से सतत काम-प्रणयन में संलम रह सके। नवाभ्यासियों के पभ-प्रदर्शन हेतु कविपरम्परा-सिद्ध मान्यताओं का भी संक्षिप्त वर्णन करके अन्धकार ने अन्य की उपादेयता और भी बढ़ा दी है। यहाँ पर कुछ कनिपीडोक्तियों का उल्लेख कर देना असात न होगा। आचार्थ वाग्मट के अनुसार भुवनों
कान, सा जमा नौदह रोग में करना चाहिये । इसी प्रकार यश. को शुभ्रवर्ण और अपयश को कजलवर्ण बतलाना चाहिये । इसके अतिरिक्त कुछ और भी ऋविप्रौढोक्तियों का वर्णन है जैसे-ऐरावत गज को शुभवर्ण कहना; समुद्र को चार मा सात संख्या में वर्णित करना; दिशाओं को चार, आठ मा वशसंख्यक बतलाना तथा यमका, क्षेत्र और चित्रादि बलकारों में बन्ध-शैथिल्य के भय से बकारः-चकार तथा डकार और लकार में भेद न मानना इत्यादि
भुवनानि नियनीपाद श्रीयि पक्ष चतुर्वन । अप्यस्यां सिसा झीलिमकीर्तिश्च ततोऽम्पया ।। वारणं शुभ्रमिन्नस्य चतुरः सप्त वाम्बुधीन् । चतवः कीर्तये वाष्टौ दश चा ककुभः कश्चित् ।। यमक शेषतिनेषु बधयोचलयोर्म भित् ।
नानुस्वारविसगी च चित्रमशाप सम्मतौ ॥ ( १. १८-२) इस प्रकार नवोस्थित कविसमुदाय का पथ निर्दिष्ट करके द्वितीय परिच्छेद में काव्यशारीर पर विचार किया गया है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और पैशाची-ये पार भाषायें काव्य-शरीर का निर्माण करती हैं। व्याकरपाशास्त्र-समस्त देवभाषा को संस्कृत कहते हैं; उस ( संस्कृत ) से उत्पन्न तथा उससे मिलती-जुलती विभिन्न देशों में अनेक प्रकार से बोली जाने वाली भाषा प्राकृत है। मित्र-मिक देशों में शुद्ध भाषान्सर से मिली दुई अपभ्रंश कहलाती है और पिशाचों की भाषा को पैशाची कहते हैं। सम्पूर्ण पात्रय को बाग्भट ते दो भागों में विभक्त किया है-न्दोवड वाय को पत्र और उससे भिन्न वाश्मय को गय कहते हैं।
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संस्कृतं प्राहृतं तस्यापभ्रंशो भूतभाषितम् । इति भाषाश्चतस्रोऽपि यान्ति काव्यस्य कायताम् ॥ संस्कृतं स्वर्गिणां भाषा शब्दशाखेषु निश्चिता । प्राकृतं तज्जन्य देश्मादिकमनेकधा । अपभ्रंशस्तु यच्छुद्धं तत्तदेशेषु भाषितम् । अद्भुतरम्यते कश्चिसद्धौतिकमिति किसिद्धौतिकमिति स्मृतम् ॥ छन्दो निवज्रमण्छन्द इति तद् वाकार्य द्विधा । पचमार्थ तदन्यच्च गथं मिश्रं च व इयम् ॥ ( २.१४ ) आचार्य वाग्भट ने दोषों को तीन भागों में विभक्त किया है - पददोष, वाक्यशेष और वाक्यार्थदोष | पदोष हैं- अनर्थकः श्रुतिकटुख, विरुद्धार्थप्रतीति, अलक्षण, स्वसङ्केतप्रक्लसार्थं, अप्रसिद्ध, असम्मत और ग्राम्य । खण्डित, भ्यस्तसम्बन्ध, असम्मित, भपक्रम, इन्द्रः शास्त्रविरुद्ध वैदर्भी, गौणी आदि रीतियों से रहितत्व, यति-भद्र और क्रियापदरहितत्व--- ये आठ बाक्मदोष गिनाये गये हैं । अर्थदोषों की गणना इस प्रकार से की गयी है— देशविरुद्ध, कालत्रिम्ब शास्त्रविरुद्ध अवस्थाविरुद्ध द्रव्यविरुद्ध और गुणकियाबिरुद्ध | साथ ही क्रमशः इन सभी दोषों के उदाहरण भी दे दिये गये है जिससे प्रत्येक
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दोष का
रूप
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तृतीय परिच्छेद में गुण-दर्शन कराया गया है। सर्वप्रथम गुण के प्रयोजन का विचार किया गया है। गुण-प्रयोजन बतलाते हुये आचार्य वाग्मद कहते हैं
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अदोषावपि शब्दार्थी प्रशस्येते न मैर्विना ।
सामिदानीं पथारिक वृमोऽभिम्बकमे तुजान् ।। ( ३- १ )
अर्थात जिन गुणों के बिना अनर्थकत्व, श्रुतिकटुत्व आदि दोषों से रहित भी शब्द और अर्थ नहीं कहे जाते, उन गुणों का यथाशक्ति वर्णन किया जाता है। इस प्रकार काव्य में शोभाधान करना ही गुणों का प्रयोजन मानना चाहिये। भामद, दण्डी और स्वयक आदि आचार्यों की भाँति वाग्भट ने भी दश गुणों को स्वीकार किया है-औदार्य, समता, कान्ति, अर्थव्यक्ति, प्रसाद, समाधि लेप, ओज, माधुर्य और सुकुमारताये दश गुण गिनाये गये हैं ।
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चतुर्थ परिछेद में केवल अलङ्कारों का ही वर्णन है। दोषरहित गुणयुक्त काव्य भो तब तक मन को नहीं माता जब तक वह उचित अलङ्कार जागरण से अलंकृत न हो। इस दृष्टि से काव्य में अलङ्कारों की वही उपावेक्ता है जो एक सुन्दरी के लिये आभूषणों की। अलङ्कार दो प्रकार के माने गये हैं- शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार | शब्दालङ्कार चार हैं - चित्र, वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमक जाति, उपमा, रूपक, प्रतिवस्तूपमा, भ्रान्तिमान आक्षेप, संशय, दृष्टान्त, व्यतिरेक, अपति, तुल्ययोगिता, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तर
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न्यास, समासोक्ति, दिमावना, दीपक, अतिशय, हेद, पर्यायोक्ति, समाहित, परिकृति स्थासंख्य, विषय, सहोचि, विरोध, अवसर, सार, संक्षेप, समुच्चय, अप्रस्तुतप्रशंसा, पझाक्ली, अनुमान, परिसंख्मा, प्रश्नोत्तर और सकर-ये पैंतीस अर्थालङ्कार गिनाये गये हैं। चित्रालद्वार में भी एकस्वरचित्र, मात्राध्युतचित्र, विन्दुच्युत्तचित्र, एकव्यसननित्र और व्यअनच्युतचित्र-ये पाँच भेद किये गये हैं। इसी प्रकार वझोक्ति के दो भेद माने गये है-सभा क्षेषमूलवक्रोक्ति और अभहरलेषमूलवकोति। अनुपास के दो भेद बताये गये है—छेकानुप्रास और लाटानुभास । बाग्भट ने यमक के अष्टादश मेट बताए । ___ अर्थालडारो में उपमा के इतने भेद सलाये गये हैं---उपमा, उपमेयोपमा, अनन्वयोपना, अनेकोपमेयमूला उपमा और अनेकोपमानमूला उपमा । उपना के विभिन्न भेदों को. बसला सुकने के पश्चात् उपमामत दोष बतलाये गये है। रूपक के जिन भेदों की भोर आचार्य वाग्भट की वृष्टि गयी है देहै-अखण्ड समस्तरूपक, असमस्त अखण्डरूपक, समस्त खण्टरूपक और असमस्तखण्डरूपक । विरोध मलबार दो प्रकार का बतलाया गया हैप्रथम तो बाद जहाँ शन्दजनित विरोध हो और द्वितीय जहाँ अर्थजन्य रोिध हो। अमिनपदमूल और भिन्नपदमूल---ये दी श्लेष के भेद कहे गये हैं। अनुमान अककार के तीन भेद किये गये हैं अतीतबोधक अनुमात, अमागतवस्तुकानरूप अनुमान और बर्तमानवस्तुशानरूप अनुमान । प्रमोसर नीन प्रकार का माना गया है जहाँ उत्तर स्पष्ट हो। जहाँ वह अस्पष्ट हो और जहाँ बह रपष्ट और अस्पष्ट उभयरूप हो। __यहाँ ध्यान देने की बात तो यह है कि कुछ अलहारों के मैद-प्रभेद गिनाने में बाग्मट बहुत आगे बढ़ गये हैं, किन्तु कुछ पैसे भलकारों को उन्होंने छोड़ दिया है। जिनका अन्य आलङ्कारिकों ने वर्णन किया है। इसका कारण स्वयं वाग्भट ने इस प्रकार बतलाया है
भश्चमस्कारिता धा स्यादुकान्स व एष था ।
साक्रियाणामन्यासामनिवन्धनिषधनम् ।। ( ४, १४०) अर्थात जो अलङ्कार ग्रन्थान्तर में विद्यमान रहते हुये भी इस पुस्तक में नहीं करे गये हैं उनके न कहने का कारण यही है कि उनमें या तो चमत्कार विशेष ही नहीं है अथवा उनका भी समाबेश उक्त अलङ्कारों में हो जाता है। . प्रस्तुत परिच्छेद में रीतियों पर भी विचार किया गया है। अधिकांश आलङ्कारिकों ने तीन रीतियों को स्वीकार किया है-वैदभी, गौड़ी और पाञ्चाली । वाग्भः इन आचार्यों से सहमत नहीं हैं, वे केवल दो ही रीतियों को मानते हैं। वे रीतियाँ है—गौडीया
और चैदी 1 जिसमें समास-बाहुल्य हो वह गौडीया और जिसमें समासौ का अभाक या न्यूनत्व हो वह वैदर्भी रीति कहलाती है।
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( १० )
के
पञ्चमपरिच्छेद में अन्य की समाप्ति की गयी है। इसमें मुख्यतः रसों पर ही विचार किया गया है; किन्तु प्रसङ्गवश नायक और नायिका-मेद का भी उचित उल्लेख हुआ है। सर्वप्रथम रसों का महत्त्व बताया गया है - जिस प्रकार उत्तम रीति से पकाया हुआ भी साथ पदार्थ नमक के बिना नीरस लाना है,सप्रकार राज्य लिये अनास्वाथ रहता है। लड़नन्तर रस का लक्षण बताकर उनके नामों की गणना की गयी है । शृङ्गार, वीर, करुण, हास्य, अद्भुत, भयानक, रौद्र, वीभत्स और शान्त – दे नव रस हैं जिनके स्थायी भाव क्रमश: है रति, दास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय और राम | सर्वप्रथम शृङ्गार रस का निरुपण हुआ है। शृङ्गार के दो पक्ष हैंसंयोग और वियोग कार में कैसा नायक होना चाहिये - यह बताकर नायकों के विभिन्न भेदों की गणना की गयी है। वाग्भट ने नायक के चार भेदों का उल्लेख किया - अनुकूल, दक्षिण, शुद्ध और धृष्ट । नायिकाओं के भी चार भेद बतलाये गये हैअनूढा, स्वकीया, परकीया और पणाङ्गना । तदुपरान्त विभिन्न प्रकार के नायक नायिकाओं का पृथक्-पृथक् लक्षण बताया गया है। चार प्रकार का विमलम्भ शृङ्गार बतलाया गया है – पूर्वानुरागात्मक, आनात्मक, प्रवासात्मक और कमगात्मक। इन सबका पृथक्-पृथक् लक्षण-निरूपण हुआ है। इसके पश्चात् क्रमशः एक-एक रस पर विचार हुआ है। हास्य के भेदों का भी उल्लेख है ।
अन्य की परिसमाप्ति जिस इलोक से हुई है वह इस प्रकार हैदो बेरुतमाश्रितं गुणमेस अमत्कारिणं
नानालङ्कृतिभिः परीतममितो या स्फुरन्या सताम् । Redeaoमयतां गर्भ नवरसेकका कविः
स्वष्टाशे वश्यन्तु काव्य पुरुष सारस्वताभ्यामिनः ॥
अर्थात् बाय के अध्येता कवि प्रजापति दोर्षो से रहित गुणों से युक्त, अनेक अलङ्कारों द्वारा मन में चमत्कार पैदा करनेवाले, वैदर्भी आदि रीतियों से युक्त, कार आदि नवरसों के साथ तन्मयता को प्राप्त हुये काज्यपुरुष को कालपर्यन्त रचते रहें । अस्तुत लोक में सद्भावना व्यक्त करने के साथ ही सम्पूर्ण ग्रन्थ का सिंहावलोकन भी हो गया है । प्रन्ध में विभिन्न परिच्छेदों में जिस क्रम से भिन्न-भिन्न विषयों का निरूपण हुआ है, बद्दी कम इस श्लोक में सुरक्षित रखा गया है। अतः यह इश्क अन्य की अनुक्रमणिकारूप में भी समझा जा सकता है। अस्तु, उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट दी है कि काल्य के प्रत्येक आवश्यक अङ्ग पर आचार्य वाग्भट ने विचार किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ केवल अलङ्कारों का ही ग्रन्थ नहीं अपितु काव्यशास्त्र का एक पूर्ण प्रारम्भिक अन्य है।
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अकारादिविषयानुक्रमणिका
विषय अतिशय अद्भुत अनन्बयोपमा
अनथक
" --..१२
१३८
१३३
परिच्छेद लोक | विषय
.:. परिच्छेदः, श्लोक ४ १.१ | उत्प्रेक्षा
उपमा उपमेयोपमा एकव्यंजनचित्र एकनिष एकावली
१३.५ ओजः ( गुण ) औदार्य करुण
करुणार , कान्ति
काव्यनिर्माणशिक्षा काव्यशरीर खण्डित गुणप्रयोजन गुण गौमुत्रिकाबन्ध गौडीया रीति " १४१ माम्य
२ १५ २६ | चित्र १४ | छत्रबन्ध ( सचित्र) २० | छन्दोभ्रष्ट ७४ | छेकानुप्रास
ঋন্না अजुमान अपक्रम अपगुति अप्रसिद्ध अप्रस्तुतप्रशंसा अभ्यास अर्थदोष अर्यविन्यासप्रकार अर्थव्यक्ति अर्थान्तरन्यास अर्थालोकहेतु अलक्षण प्रकारोपयोगिता अवसर असक्रिय घसम्मत असम्मित आक्षेप
२६ ।
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विषय
परिच्छेद
परिच्छेद लोक ३ १५
जाति
१
सस्कर कवि तुल्ययोगिता स्टान्त दीपक देशकालादिविद्ध
[ २ ] लोक | विषय ४ : मध्ये १२ | मान।
यतिभ्रष्ट
यथासंख्य ९८ | समक
रचनाभ्यास
"
रसभेद रीतिभ्रष्ट
रूपक
नामकद मागिकाभेद पददोष ( युग्मक) परकाव्यप्रदेण्यदोष पद्मबन्ध (सचित्र ) परिवृत्ति परिसंख्या पर्यायोक्ति पूर्वानुराग प्रतिमा प्रतिवस्तुपमा प्रवास प्रश्नोत्तर प्रसति बन्धचासत्वहेतु विन्दुच्युत सरीभत्स भयानक भाषाचतुष्टय भ्रान्तिमान मानाच्युतक
लाटानुप्रास
कोक्ति १४१ ।
वायदोष १०७ वाक्यविध्य
विप्रलम्भ विभावना विरोध
विषम
११६
धीर
११
वैदी म्यानच्युतचित्र व्यतिरेक व्यस्ससम्बन्ध व्याहतार्थ व्युत्पत्ति शान्त शार
१.
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विषय
श्रुतिकटु
+ श्लेष ( गुण )
श्लेष (अभिन० )
शङ्कर
समता
समाधि
समासोकि
समाहित
समुच्चय
[ ३ ]
परिच्छेद लोक विषय
९ सोफि
३
ワナ
३
my
“
+3
27
१५ सार
१२७ | सौकुमार्य
१४३
संशय
५.
११
९४
१०६
१३०
स्वसंकेतप्रक्लृप्तार्थ हारबंध (सचित्र)
हास्य
हेतु
परिच्छेद
X
"
쿠
*
५
૪
ठोक
११८
१२५
१५
196
१२
૪
२३
१०४
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संस्कृत-स्नेही संसार के लिए अपूर्व उपहार 11
आदर्श हिन्दी-संस्कृत-कोशः (सम्पादक-मो० रामसरूप म० ए० (संस्कृत, हिन्दी ), विद्यावाचस्पतिः । शास्त्री, प्रभाकर; पूर्व-प्राध्यापक डीए० दी. कालेज, लाहौर; प्राध्यापक, सराय कालेज, दिल्ली; सदस्प आटम पकली, दिहा विश्वविद्यालय, दिली) ।
राष्ट्रभाष के माध्यम से देववाणी का अध्ययनाध्यापन करने कराने वाले .. विद्यार्थियों तया प्रगान मे लिए सम प्रमाणिक हिन्दी संस्कृत सोश ह. अनिवार्यता स्वतः सिर ही है। तयापि आज तक इस प्रकार के कोश की बाजार में अनुपविर का कारण था पराधीन राष्ट्र की स्व-संस्कृति की भाषा संस्कृत के प्रति निन्दनीय उपेक्षा । स्वराज्य प्राति के पश्चात् राष्ट्र-प्रेमियों का भ्यान घिस्मृतप्राय संस्कृति की और भी गया है और अब उसमें नवीन प्राणप्रतिष्ठा के तुम उद्योग से हो रहे हैं। निकट भविष्य में ही वह म्यक्ति सुनिश्चित रूप में प्रभारतीय और भसंस्कृत सममा आयगा जो संस्कृत-गान में हित होगा । अत्यन्त हर्ष का विषय है कि हिन्दीमाता और संस्कृतमान के इच्छुक लोगों के लिए यह ऐसा प्रामाणिक कोश तैयार हुभा है जिसकी सहायता से प्रत्येक व्यकि सहज हो संस्कृत सीख सकेगा। इस कोश में लगभग चालीस सहन हिन्दी हिन्दुस्तानी शब्दों तथा मुहावरों के विश्वसनीय संस्कृत पर्याय दिये गये हैं। प्रत्येक शब्द का लिंगनिर्देश भी किया गया है। हिन्दी क्रियापट के संस्कृत धातुओं के गण, पद, सेट, अनिट् , वेट् , णिजन्त आदि के रूप भी दिये गये हैं। कोश के संपादक हिन्दी-संस्कृत के प्रख्यात विद्वान व लेखक हैं । इनकी दर्जनों हिन्दी संस्कृत रचनाओं से विद्यार्थि-जगत सुपरिचित ही है। बेश की उपयोगिता पर दा सूर्यकान्त शाली. श्री विश्वन्धु शास्त्री, महामहोपाध्याय श्री परमेश्वरानन्द शास्त्री, प्रादि भादि विद्वानों ने अपनी-अपनी अमूल्य सम्मलियाँ प्रदान की हैं।
छपाई गेट अप भादि माधुनिकतम । मूल्य लागत मान १२॥)
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॥ श्रीः ॥
वाग्भटालङ्कारः संस्कृत-हिन्दी-व्याख्याद्वयोपेतः
प्रथमः परिच्छेदः प्रियं दिशतु वो देवः श्रीनाभेयजिनः सदा 1 . मोक्षमार्ग सतां ब्रूते यदागमपदावली श्रीवर्धमानजिनपतिरनन्तविशान सन्तति यति यद्गीः प्रटीपकलिका कलिकालतमः शमं नयति । ' बाग्भटकवीन्द्रनसालंकृतिसूत्राणि किमपि विवृणोमि
." मुग्धजननोधदेतोः स्वस्य स्मृतिजननवृद्धथै च ॥ रह शिष्टाः कचिदिष्टे वस्तुनि प्रवर्तमानाः अभीष्टदेवतानमस्कारपूर्वकमेव प्रवर्तन्ते इति शिष्टममयपरिपालनहाय, तश्या 'यांसि वविन्नानि मवन्ति महतामपि । अश्रेयसि प्रवृत्ताना तापि यान्ति विनायकाः॥ इति वचनान्माभूदस्य शास्त्रस्य कायार्थिनां सभ्यउझानोपदेशकतया अंगीभूतस्य कोऽपि विघ्न इति विघ्नोपशान्तये च शास्त्रारम्भेऽभीष्टदेवता. नमस्कार महाकविः श्रीवारमाः प्रकट यसि-श्रियमिति । श्रीनाभैयजिनो वः श्रियं दिशतु इति संटकानयना । भामेर पत्यं नामयः। 'इतोभिन्नः' इत्याग । श्रिया युक्तो नाभेयः श्रीमाभैयः । 'मग्यसकादयश्च' रवि मध्यमपदलोपी समासः। श्रोनामयश्चासौ जिनश्चेति कर्मधारयः । दीन्यति दिल्यबोवलञ्चानक्रिया दीप्यत इति देवः । एतेन भगवतो ज्ञानातिशयः सूचाचके । आनाभेय इत्यम श्रिया अष्टमहापातितार्यादिलाया युक्तत्वप्रतिपादनेन प्रमोः पूजातिशयः प्रत्यपादि। जयति रागद्वेषादिरिन्परामवताति जिनः। अनेन परमेश्वरस्यापायापसमातिशयो शापितः। मोक्षमार्गमित्यादिनोत्तरार्धन पुनः स्थामिनो बनातिथयः ख्यापितः। एवं चत्वारोऽप्यतिशबाः प्रशाप्यन्त स्म । 'यत्तदोनित्यसंवन्धः' इत्युक्तः स इति गम्यते । ततश्च स श्रीनामेय जिनो को घुमार्क भियं कल्याणलक्ष्मी ददाविति भावः। स क इत्याह-यस्य भगवत आगमपदानी सिद्धान्तमच नानामावकी मेणिः सतां विषामुसमाना मोक्षस्य मार्ग:सम्यानपाराधमरूपं
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वाग्मटानकारः। ते रवीति । प्रकाशयतीत्यर्थः । अथान्यस्यापि यास्यचिवागमस्थागतस्य पदानि पायप्रतिषिमानि सेप! पशिष्टा सती सता पन्थान प्रकट यतीत्युक्तिलेशः। तथा शास्त्रादी विविधानां देवताना तिः संभवति-समुचितायाः, पायाः, समुचिमायासि । तत्र समुचिताया देवतायाः स्तुतियश नीतिबारम्भ राजाः कामाबारम्मे कमरादेः । पटायाः स्तुतिया रघुफाव्ये दिशगीयाँः । समुचितेष्टायाः स्तुतियश ओयोगशालाम्मे महावीरयोगिनायस्पेति । अत्र पुनः याबारम्भे श्रीनाभयनमस्कारणामीटदेवतास्तुसि प्रचके बाग्भटः। अथदा भिरमहाप्रालिहायर्यादिलम्या इनः स्वामी श्रीनः । 'मिमीक ममे। मीयते इति भैयम् । 'भावे य नि यः। भपमित्यर्थः। न विचते भैयं संसारभ्रमो । द्भवं मयं यस्य सोऽभेयः। जिनः चुतकेवल्यपि भण्यते, तस्यापि भायो रागादिजयात । तमिरासार्यमभेयश्वासी जिनश्वाभेयजिन इति 1 एवंविधश्च सामान्यकेबष्यपि लभ्यते, तस्प मवभ्रमभयामाबात् । सकिराकरणार्थ श्रीनश्शासावभेजनश्च श्रीनामेयजिनः पति। एवंविधश्चाईब मवतीति सामान्येनाईसा नमस्कारः कृतो मनति ।।
यता काव्यशास्त्रस्य सर्वेषामपि माचारगोपयोगिधाई पि FAMIT सेशाने व्याख्या । यथा-श्रीविष्णुपकी । नामरुपाचाक्षापि नायः कथ्यते। "विष्णोनाभिस्थकमले विश्वकर्तुनियासः' इति छोफोक्तेः। तथा चा:-'नाभिभूः पय:--' इत्यादि तनामानि । जिनो विष्णुः । 'पीतामरो मानिनौ कुमोवमा-' इति चिन्तामणिवचनाद । ततश्च श्रीश्च नामयश्च श्रीनामयो साभ्यामुपलक्षितो जिनः श्रीनामेयाजिनः स श्रियं दिशतु । वाशदोध्ययमवधारणे पूणे वा । किविशिष्टः । उदेवः 'उरीपरः' इत्येकाक्षरनाममालावत्तनात्-: शंभुःस एव पूज्यत्वाको यस्य स तथा । तदुक्तम्-'ब्रह्माच्युताभ्यर्षितपादपमो न पूज्यते कि मनुजेगिरीशः' इति ।
ननु नमस्कारस्य वितनिधाते म सामय्यम् । सच्यते-नमस्कारेण पुण्यमुपजायते, पुण्येन विभाः प्रतिबन्यन्न । यत्रापि – नमस्कारमन्तरेणापि निविना शाम्नपरिसमा. मिश्यते तत्रापि मानसिक प्रणिधानरूपोच पटत देति सफलो नमस्कारन्यापारः। इति प्रथमपार्थः ॥ १॥
जिनकी जैनागमतरुप सिवान्तपारपरा सजनों के लिये मोष-पथ का प्रदर्शन करने वाली है, वे भगवान् श्री ऋषभदेव आप लोगों को श्री-सम्पन्न करते रहे ॥१॥ कि
'महरू चामिधेयं न सम्बन्धश्च प्रयोजनम् ।
चत्वारि कथनीयानि शारूस्य भुरि धीमला ।। तत्र मलममिहितं नमस्कारवचनेन । अभिधेय पाच शाले सम्यकान्यस्वरूपम् । संबन्धवास्य वाध्यवाचकमावाशिः। तपाहि-रत'च्या वाचकम्, सम्यमान्यस्वरूप वाभ्यम् । उपायोपेसमामो मान सेवन्धः । वरनरूमापदंशामामुपायः। तरूपरिवान चौपेयमिति । भयोजन बनन्तर विमाणा पासपरिवानम् । परम्परं तु सम्पविश्वसम्भिकूप
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प्रथमः परिच्छेदः ।
1
कीर्तिप्रभूति भयार्यस्थ स्वनसरं प्रयोजनं शिश्वानुभवः । परम्परं तु सदेव ऐहिकमि सुक्तम्, पारकिं तु परम्परयोजनमुभयेषामपि निःश्रेयसाबासिरिति । भतो दुष् केनचित् -"नारम्यव्यमित्रं शास्त्रमभिषेयादिरहितस्वा एकाकदन्त परीक्षाच प्रति तह किचित् तद्युक्त्वाभिधेयादिदर्शनात् । अमुमेवार्थ समर्थयितुं वक्ष्यामि नागभै कामफल साइ
३
साधुशब्दार्थ सन्दर्भ गुणालङ्कारभूषितम् । स्फुटरीतिरसोपेतं काव्यं कुर्वीत कीर्तये ॥ २ ॥
:
अत्र प्रस्तावाच्छ्रियः कर्ता गम्यते । ततः शिष्यः काव्यं कवैः कर्म काव्यम् । 'पतिराजान्यायम्' इति यणि प्रत्यये साधः । कुर्वीत विदीत करचें । कीर्तये यशसे । इति फलनिर्देशः । अत एव 'कुर्वीत' इत्यत्र पालवत्कर्तयत्मिनेपदविधानम् । फाल्यं किविशिष्टम् । साधु वक्ष्यमाणेनानर्थकत्वादिना दोषे रक्षितः शब्दः साधुः । प्रस्तु वक्ष्यमाणेन देशविरुत्वादिना दोषेण विमुक्तः साधुर्भवति । तत साबू निर्दोषी शब्दार्थी यस्मिन्दादार्थः संदभौ रचना पत्र तथा माधुशब्दार्थयोः संयत्रेति विकुर्वन्ति । तत्र समासप्राप्तिरुत्रा या शब्दार्थयोः संदर्भः शब्दार्थसंदर्भः साधुः समार्थसंदर्भों यत्रेति विग्रहः कार्यः । 'माधुशब्दार्थयनेन न शामतिपादको द्वितीयः परिच्छेदः सूतिका विवादको
1
अस्थात्यः, माधस्तु जात्युपमादयः तैर्भूपिनन् । अलंकृनमित्यर्थः । अनेन च तृतीय गुणपरिच्छेदः चतुर्धश्वालंकारपरिच्छेत्रः सूचितः । तथा स्फुटाः काम्यान कूकावेन प्रकटा या तो गौवीयायाः पवनाविशेषाः रसाचारादयो वक्ष्यमाणाः, तेयमेतमन्तिन् । अनेन चतुर्थपरिच्छेद रातिमतिपावनं शापिनन् पचमश्च रसपरिच्छेषः सूचितः प्रथमः पुनरयं शिक्षापरिच्छेदः । काव्यस्य चानेकगत्वेऽपि कीर्तेरेव ग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थम् । याता हि कवित्वं धनं व्यवहारपरियानं अशियोपशमनं सहमानां चालतं करोति । इदमेव च कवित्वं कान्तासंमितभूतं कान्तेव सरसता रामेनाभिमुखीकृत्य 'रामादिवर्तितव्यं नराणादिव' स्युपदेश व विधते इति । दुक्तं काव्यप्रकाशे राजानश्रीमम्मटकवीन्द्रेण'काम्यं पश से व्यवहारविदे शिवेतरक्षत। सः परनिर्वृतये कान्तामियोपदेशयुजे ।' त्रिविधं हि शाखम् 1 यथाप्रभुसंमितं शयप्रधानं वैश्वदि। सत्संमितमतात्पर्य पुराणादि । कान्तासंमितं घोतलक्षणं विशिष्टकान्यादि - इति। एतद्विपरीतं काव्यं - विपरीत फलमेव स्यादिति व्यतिरेकार्थः ॥ २ ॥
अहङ्कारशास्त्र काव्य का एक अङ्ग है, अतः काम्य के जो फल हैं वही अ लाख के फल होंगे। इस दृष्टि से काव्य- फकी का वर्णन करते हैं--साध्विति ।
पास के किये कवि को ऐसे काव्य की रचना करनी चाहिये जो सा शब्द और अर्थ से पूर्ण हो। इतना ही नहीं, उस ( काव्य ) से (ओबादि ) गुरु,
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४
वाग्भटालङ्कारः ।
( उपमादि ) अलंकार ( वैदर्भी आदि) रीतियों और ( श्रृंगार आदि ) मदरसों को भी स्पष्ट रूप से विद्यमान रहना
-
टिप्पणी- मम्मट आदि काव्यशास्त्र के आचार्यों ने 'काम्यं ससेऽर्थकृते विदे शिवेतरक्षतये । सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ॥' यह काव्य का प्रयोजन स्वीकार किया है, किन्तु क्षाचार्य वाग्भट काव्य का एकमात्र उद्देश्य कीि मानसे हुए प्रतीत होते हैं ॥ २ ॥
छत्र कवित्वस्योत्पसचे सामग्रीमुपदिशा---
प्रतिभा कारणं तस्य व्युत्पत्तिस्तु विभूषणम् । भृशोत्पत्तिकृदभ्यास इत्याद्यकविसङ्कथा ॥ ३ ॥
'सर्व हि वाक्यं सावधारणमामनन्ति इति न्यायात् प्रतिभैव तस्य काव्यस्य कारणं हेतुर्भवति । त्रप्रकाशालिनी बुद्धिः प्रतिमा 'बुद्धिर्भवनवोन्मेषशालिनी प्रतिमा मता' इति वचनात् । ननु यदि प्रतिभैव कान्योत्पतेनं तथा व्युत्पत्तिः किं करोति । उच्यते— तस्य काव्यस्य प्रतिभया जन्यमानस्य व्युत्पत्तिभूषणमलङ्कारो भवतीत्यर्थः । अभ्या सस्तु पुनःपुनस्तदा सेवन लक्षणस्तस्य काव्यस्य भृशमुत्पति करोति भृशोत्पत्तिद्रव । अभ्यसने हि सतः स्थैर्यानेयोगातिर्विलम्बकाव्योत्पत्तेः । एवं प्रतिभाव्युत्पत्त्यभ्यासानां श्रयाणामपि स्वस्वविषयः पार्थस्येन प्रदर्शितः । इति पूर्वोकप्रकारः पुराणकवीनां कधीपदेशः ॥ ३ ॥
प्राचीन कवियों का मत है कि प्रतिभा काम्पोत्पत्ति का हेतु है, व्युत्पत्ति से उस ( काव्य ) में शोभा का आधान होता है और अभ्यास से श्रीघ्र ही काव्य--- रचना सम्भव होती है ॥ ३ ॥
अथ अन्धकारः प्रतिभा व्याख्यातुमाह
प्रसन्न पदन व्यार्थयुक्त्युद्बोधविधायिनी ।
स्फुरन्ती सत्कवेर्बुद्धिः प्रतिभा सर्वतोमुखी ॥ ४ ॥
प्ररुनान्यकिष्टानि यानि पदानि तथा नव्याभिनवा पार्थयुधि । ततः प्रसन्नप दानि च नन्यार्थयुक्ति प्रसन्न पदनन्यार्थयुक्तस्तासामु उद्घासन्तं विदधतीत्येवंशीला स्फुरतीला सर्वतो मुर्ख यस्थाः सा तथा । सर्वव्यापिनी सर्वाङ्गीणा चेत्यर्थः । एवंविवोत्तम कवेर्बुद्धिः प्रतिभा प्रोच्यते ॥ ४ ॥
कवि की उस बुद्धि को प्रतिभा कहते हैं जो सर्वसंचरणशीला हो ( जिससे कचि सूक्ष्मातिसूचम सभ्यों की कल्पना भी सहज ही कर सके ), जो कोमलकान्तपदावली को इस प्रकार सुनकर रख वे जिससे नवीन एवं चमत्कारपूर्ण अर्थ की उद्भावना हो सके और जो स्फुरणशीला भी हो ( जिससे सकवि की रचना में रख भर जाये ७४ ॥
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प्रथमः परिच्छेदः। भय व्युत्पत्ति व्याचिख्यामराक्ष
शवधर्मार्थकामादिशाखेष्वानायपूर्षिका ।
प्रतिपसिरसामान्या व्युत्पत्तिरभिधीयते ॥ ५॥ - शास्त्रशस्य प्रत्येक सम्बन्यात-शब्दशासू व्याकरणम् , धर्मशास्त्रमागमः, अर्थशास्वं चाणक्यप्रणीतो राजनीतिमधा, कामशास्त्रं को कुको) वारस्यायनादिग्रन्थः । आदिशम्दाछन्दोलकाराभिधानचिन्तामणिमचाश्वरवपरीक्षादिशाखाणि बौद्धाविदर्शनामिधायकशास्त्राणि च गृह्यते । अन्न 'शब्द-स्थादिन्टे कृते शमधमार्थकामा भादी येषां से शुश्दधर्मार्थकामादयस्तेषां शास्त्राणीति समासविधिः। पतेषु सर्वेषु-आम्नायः पूर्वो यस्याः सानायपूर्वा स्वार्थिककपल्पये मानायविका । गुरुवारपर्यमूछेत्यर्थः । असामान्या निःसामान्या प्रतिपत्तिः परिचानविशेषो व्युत्पत्तिः प्रोच्यते । शब्दशाप्रवीणो हि कान्ये क्रियापदविन्यासे निःसंशगो न भवति । धर्मशास्त्रादिपरिज्ञानरहितश्च तत्तत्मपन्थेगु धर्मार्थकाममोक्षाविकाग्रजातमुदाहर्तुपशक्तः बाधं करिर्मवतीति ॥ ५॥
गुरुपरम्परा से प्राप्त शब्दशाल, श्रुति-स्मृति पुराणादि धर्मशास्त्र और वारस्यायन-प्रणीत कामसूत्रादि जो अनेकानेक पास हैं उनमें परम्परा से प्रवृत्त रहने बाली असाधारण प्रतिपसि ही म्युत्पत्ति कही गयी है॥५॥ अथाभ्यासमार
अनारतं गुरुपान्ते यः काव्य रचनादर।
तमभ्यासं विदुस्तस्य क्रमः कोऽप्युपविश्यते ॥ ६ ॥ निरन्तर गुरुपा यः काव्यविश्य र बनाया श्रादरी मति, कथयस्तमभ्यासं विधुनिनिराधेन जानन्ति । पतेन-यः कदाचिदेवारमध्यभ्यसनमात्रमभ्यासा, सोऽम्यास एव न भवति–ति शापितम् । तस्य पूर्वोक्तस्थाम्यासस्य कोऽपि कियन्मात्रः। न समग्न इति मानः । कमः प्रकार पदिश्यते ॥ ६ ॥
योग्य गुरु के चरणों में मिरन्तर बैठकर काम्य रचना के लिये जो परिश्रम किया जाता है उसे ही 'अभ्यास' कहते हैं ॥ ५॥ तमेवाइ
बिभ्रत्या बन्धचारुत्वं पदावल्यार्थशून्यया ।
वशीकुर्वीस कायाय छन्दांसि निखिलान्यपि til छाव्याय काव्यं निष्पादयितुं शिम्पः सर्वोप्यपि छन्दांसि शालिनीमालिनीप्रभूतौनि वशीकुति अवशान्यपि वशानि कुर्यात् । कया। पदानामावली श्रेणिस्तया। किंविशिध्या । अर्थशून्यया । अभिधेयरहितयापीत्यर्थः। तथा-बन्धस्य संदर्भस्य चारुत्वं मृदुपतियोगेम मनोशत्वं विभ्रत्मा पारयम्स्या । याइशी हि प्रथममभ्यासस्ताशी पुरः कार्यनिष्पसिरिति विशिष्टकाथ्यानिभिरभ्यासोऽपि सुरूलितपदशम्यामाधुपविशिष्ट पन विधेयः। .
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वागमवावार पत्र चोदाहरणमुभ्यते
'देवश्रेणी शासिनिस्फूतिरेणा पर्माधर्मप्राप्त धर्ममामः। .
विश्वाधान मन्यमान समान मातृस्नेहा रोहिणीवप्रदीप इति शालिन्मभ्यासोऽसमन्वशून्ययापि शब्दश्रेण्या। एवं सर्वाण्यपि छन्दांसि साकनिर• कैर्वा शनसंपन्धेरभ्यसनीयानोति ।। ७ || - काम्याभ्यासी को शहिये कि वह प्रारम्भ में अभ्यास के किये रसना-सौन्दर्य से युक्त निरर्थक पदावली के द्वारा भी सभी छन्दों पर अधिकार प्राप्त करने का प्रयास करे ॥ ७॥ मथ बन्धचारत्वमेव कथं भवतीत्याह
पश्चाद्गुरुत्वं संयोगाविसर्गाणामलोपनम् ।
विसन्धिवर्जन चेति बन्धचारुत्वहेतवः || संयोगवशात्पाबाल्यवर्णस्य गुरुत्वं कार्यम् । एवं हि बन्धस्य दादा भवति । सथाविसर्गलोपो न कार्यः। यतो विसर्गाणामवस्थानेन काव्य ओजोगुण उपजायते। तथाविज्ञब्धी विरूपत्वेऽभावे च बर्तते। यथा-'विस्वरोऽयं गायना, विमदो मनिरयम्। इति च। ततोऽत्रापि विरूपः संधिविसंधिः। यद्वा-न संविविसंचिरिति ।. विरूपसंघरसंधश्न वर्जन कार्यम् । एवंप्रकारा अन्येऽप्यत्वष्ट्राविष्टिपदवर्जनायो बन्यचारुत्वस्य शेतको भवन्तीति प्रकारार्थ दतिशम्दा सूचयति । अत्रोदाहरण यथा
निपीय यस्य शितिरक्षिणः कथा तथाट्रियन्ते न बुधाः सुषामपि।
नमः सितच्छप्रितकीर्तिमण्डलः स राशिरासीन्महसा महोज्ज्वलः ।।' इइमुदादरणमन्वये उक्तम् ॥ ८ ॥
छन्योबन्ध में सौश्व कामे के लिये यह आवश्यक है कि संयुक्त वर्ण परे रहने पर ( उसके) पूर्व का लचक भी गुरुवत् मामा जाय, विसर्गों का लोप म किया जाय और कर्णकटु वर्गों की सन्धि भी न की जाय ॥ ४॥ यतिरेके तु ग्रन्धकार भवोदशहरति-.
शिते कृपाणे विधृते त्वया घोरे रणे कृते ।
बधीश क्षितिपा मीत्या वन एवं गता जयात् ।। ६ ।। .. नृणामधीशो प्रधीशः संबोपने बधीश नरेन्द्र, त्वया शिते तीक्ष्ण खड़े पारिते सति । अत एव रणे संग्रामे पोरे रो क्या कृते सति क्षितिपाः प्रस्तावाच्छचो सूपा भयेन बने कामने एवं गताः। न क्षणमपि युद्ध स्थिता इति भावः 1 जवा गाए । बनेन सातिशय मय व्यत्यते। अब त स्वया' इत्यादी संयोगवशात्पूर्वस्व गुरुत्वं नास्ति, किंतु सद
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प्रथमः परिच्छेदः ।
विवक्तिकृतम् । 'अधीराः इत्यत्र विरूपसंचिः, विया श्रीया इत्यत्र विसर्गा लोपोऽस्ति । एवमेभिर्दोषैरस्मिन्बन्धे शैथिल्यादिप्राप्नस्ति बन्धचारस्वमूं । तो विशि काव्याधिभिरभ्यास न्वारस्येव पदावस्या कार्य इति स्थितम् ॥ ९ ॥
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हे राजन् ! घोर संग्राम में जब आप तीच्ण कृपाण उठा लेते हैं जब भयभीत होकर आपके चितिपाल शीघ्र ही वन की ओर भाग जाते हैं ।
टिप्पणी- यहाँ पर 'धीश' शब्द 'नृ' और 'अधीक्ष' शब्दों की सन्धि से खना है। यह सध कर्ण कटु है। 'विधुते खया' में 'ते' का गुरुत्व उसके बाद में आने वाले संयुक्त वर्ण 'ख' के कारण नहीं, अपितु अपने आप है और 'चितिपा या' में 'पा' के बाद विसर्ग न होने से ओजगुण का अभाव है। अतः इन तीन कारणों से उपर्युक्त श्लोक में सौन्दर्याघात नहीं हो सका है ॥ ९ ॥
अधाविशेषं विनापि पद्मवन्धाभ्यासमाद
अनुल्लसन्त्यां नध्यार्थयुक्तावभिनवत्वतः ।
अर्थसङ्कलनात स्वमभ्यस्येत्स्वपि ॥ १० ॥
शिष्यः कविरर्थसंकलनात श्वमर्थस्याभिषेयस्य संकलनात संघटनारहस्यं पचबन्ध विविलक्षणं संऋचास्वपि परस्पराला पेष्वप्यभ्यस्येत् । कस्यां सत्यामित्याश्— नव्या युक्ताः मायामा माग नया कैरनुछासः कुत इत्याह-अभिनवत्वतः कर्नवीनत्वादित्यर्थः || १० ||
raft प्रारम्भिक अभ्यास से काव्य में नूतन अयों की उद्भावना नहीं हो सकती किन्तु प्रतिदिन के वाग्व्यवहार में अर्थ-तत्वों के संग्रह का अम्पास करना काव्य-रचना करने वालों के किये आवश्यक है ॥ १० ॥
अत्रोवाहरति । यथा
आगम्यतां सखे गाढमालिङ्गधात्र निषीव व सन्विष्टं यनिजभातृजायया वन्निवेद्य ॥ ११ ॥
यथेति दृष्टान्तोपदर्शनार्थः । हे मिश्र त्वयागम्यतान् । तथा प्रस्तावान्मामा दिया कृत्वा स्थाने त्वं निषीदोपविश 'आलिका' इति पाठे तु - सखे, त्वं मामालिश मालिङ्गन कुर्वित्यर्थः । तथा यन्निजन्नातुमंलक्षणस्य बायया । अथवा निजया खातूनामयः ॥ सन्दिमस्ति । स्वभ्रातृजायया यः सन्देशौ मम शापितोऽस्तीत्यर्थः । ननु कथं 'आजा मां' इति सिद्धयति । यतोऽत्र योनिसंबन्ध सद्भावात् 'ऋसो विद्यायोनिसंबन्ध' इति सूत्रेण प लुप्प्राप्तः 'आतुर्जायया' त्यसमासः प्राप्नोति 'मातुष्यता' इत्यादिवत् । उच्यते-नातेव भ्राता वयस्य इत्यर्थः । ततश्च भ्रातृशब्दस्य भित्रार्थत्वादत्र योनिसंरन्धाभावावसमासस्याप्राप्तिः । तथा च बहारो भवन्ति – 'ममानेन सह भ्रातृत्वमस्ति । सखित्वमित्यर्थः ॥ ११ ॥
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वाग्भटालाकारः। _मित्र ! बाइये, गावालिकम करके यहाँ बैठिये और फिर मेरी भाभी ने जो संदेश भेजा है उसे काहिये।
टिप्पणी-इस झोक में 'भाइये और गाहालिबान का रिमादिपायों से स्वागत करने का अर्थ निकलता है और मामी द्वारा दिये गये संदेश को पूलमे से परस्पर कुशल-पेम की सिम्ता का ज्ञान होता है। यह परस्पर यातालाप में भी सुन्दर अर्थों की संकलना का उदाहरण है ॥ ११ ॥
ननु यदि नव्यार्थयुक्तिोलसति, तदा घरकाल्यार्थमादाय किमित्यभ्यासो न विधीयते इत्यासापनौदार्थमाह
परार्थचन्धाधश्च स्यादभ्यासो वास्यसङ्गसौ।
सन श्रेयान्यतोऽनेन कविर्भवति तस्करः ॥ १२ ॥ चशम्दोऽत्र पुमर । यः पुनरभ्यासः परेषां कोना गृहोतस्मार्थस्य बन्धात् । अभ्यासः किविषय इत्याह-वाच्यसंगती वाच्यस्यार्थस्य संगती संघटनायामित्यर्थः । अब विषयसप्तमी शेय।। अर्थसंबन्धविषये योऽभ्यासो भवतीति भावः । सोऽम्यासः अंयान्माल्यो न भवति । यस्मात्तोरनेन परतवन्धेन । अथवा--परतवन्याक्तिमयमागेनार्थविषयाभ्यासेन पविः कान्यकर्ता तस्कर व तस्करतुल्पो भवति । 'बाच्य संगती' इति प्रतिपादनाच्छम. संगतिविषयोऽभ्यासः परनोऽपि गृहीसो न स्तन्य सूयटोति । तथा परार्थबन्धनसतः कमिः सुखमनो नामिनत्रार्थोत्पतये क्लिश्यते । ततश्च परापितवयविशेषवर्णनायामशतः सन्नपहास्यः स्यात् । काय च काम्यविधान विपरीतफलमेव भवेदिति ॥ १२ ॥
काव्यरचना में कवि को अन्य कवि की पवाथली भघका अर्म-योजना का अपनाना श्रेयस्कर नहीं होता, क्योंकि दूसरे की वस्तु ग्रहण करमेषाला कवि घोर कहलाता है जिससे वह निन्दा का भागी बन जाता है ॥ १२ ॥ . समस्यायो पुनः परार्थग्रहणं न विरुद्धम् । विशेषतस्तथा बैदुष्यातिशयदर्शनादिति वथैव चाह
परफाव्यप्रहोऽपि स्यात्समस्यायां गुणः कवेः।
अर्थ तवर्थानुगतं नरं हि रचयत्यसौ ।। १३ ।। समस्यामा परमान्यमहोऽपि विशिष्ट द्धिपकाशलक्षणहेतुत्वाद्गुणः स्यात् कवेः कान्यकतरित्यर्थः । अत्र परकाव्यग्रहणेन पर काव्यस्यैको वा दो वा त्रयो वा पादा यासाः, न तु संपूर्ण काव्यम् । परकाध्यमदणस्य गुणत्वे हेतुमाह-हि यस्माद्धेतोरसो समस्यापूरकर फविस्तस्य परकाव्यस्य योऽयस्तस्पानुगतमनुयायिनमनुकूलमर्थमश्रुतपूर्व नबं निनप्रतिमाप्रागल्भ्येनामिन रचयत्ति 1 एवं च समस्यापूरणे परकान्यार्थमपि निजनिर्मलमुश्विलोत्पादिताभिनवान योजयन्कनिश्चमत्कारकारको भवतीति। समस्यौदाहरणं यथा- केनाप्येक पावोऽपिस:-कमल जयसि हिमोपमम् इति । एतदर्थसंगत्यर्थ पादत्रयं नवं विधेयम् । यथा
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प्रथमः पारे
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'जानती भगवता मवं सं पार्वती निजपतिभ्रमाद्रुषा ।
रक्तमक्षि विदधे रुचास्य तत्कजलं जयति कुडूमोपमम् ।। स्थमिदम् । रामार्पितं पादत्रयं कुमारसंभवस्य पृथपृथग्रसं यथा-'चकार मेना रिहातुराङ्गी', 'प्रवासथ्याश्चयनं शरीरम्, 'हिमालयो नाम नगाधिराज ति । तुपादेन पूरणे तु
'चकार मैना विरहातुराङ्गी प्रवाकशम्याशयनं शरीरम् ।
हिमालयो नाम नगाधिराजस्लव प्रतापज्वलनानगाल | इत्यादि स्वयं मम् ॥ १३ ॥
किसी समस्या की पूर्ति करने के लिये एक कवि दूसरे कवि के पद और भावों का ग्रहण कर सकता है। इस दशा में परार्थग्रहण दोष नहीं माना जाता क्योंकि समस्यापूर्ति में कथि जिस अर्थ की रचना करता है वह प्राचीन अर्थ से अनुगत होने पर भी नषा लगा करता है ॥ ३॥ अथ काव्यनिमिप्तमोत्पत्तये सामग्रीमाह
मनःप्रसत्तिः प्रतिभा प्रातःकालोऽभियोगिता ।
अनेकशानदर्शित्वमित्यथोलोकहेतवः ॥१४॥ सकलानिधिगमनान्मनसः प्रसन्नता । 'मुरमनवनवीनरेषशालिनी प्रतिभा मसा' । प्रातःकालस्योपलक्षणस्वादपररावारिबलापि लिया । सत्र हि मन्द मेघसोपि मेधा प्रसीदति । अभियोग उचमोऽस्थास्तीति न् 1 तनावोऽभियोगिता । नानाशास्त्रदर्शनशीलवं च । मन्त्र समुच्चयार्थश्चशमोऽनुक्तोऽपि गम्यते। यथा-'अहराइनयमानो गाम पुरुषं पशुम् । देव. स्वतो न तृप्यति सुराया इव दुमंदी॥ इति । पूर्वोक्ता अर्थालोकस्यार्थप्रकाशस्य छेतनो भवन्ति । किचवण्यवस्तुपरीवारं दृष्ट्वा बाविशेषणः । वाक्यांशुकविर्मयादुत्तगणग्गादिभिः ॥ १४ ॥
मामसिक भाडाद, नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धि, प्रभातला, काव्य-रचना में अभिनिवेश और समस्त शास्त्रों का अनुशीलन ये पाँच अर्ध स्फूति के निमित है। अथ सनुत्पनस्पार्थस्य निवेशनविषयै शिक्षामा
समाप्तमिष पूर्वार्धे कुर्यादर्थप्रकाशनम् |
तत्पुरुषबहुश्रीहीन मिया प्रत्ययावहौ ।। १५ ।। कविरथस्य प्रकाशनं पूर्वार्धे काव्यस्म समाप्तमिब समाप्तप्राय विदध्यात् । न तु समाप्रमेव । उचरा तूपमार्थान्तरन्यासादिधकारैरपूरर्ण कार्यमित्युक्तपूर्वम् । पुनः शिक्षान्तरमाइ-कुर्यादिति क्रियानुवर्तते । तत्पुरुषश्च बहुब्रोहिश्च मिया प्रत्ययमावहत प्रति मिय:प्रत्ययावही तो परस्परप्रवीतिकारको न कुर्यादित्यर्थः । यथा-श: इत्युके मः शवर्यस्येति बहुमीही सत्यपि पृषश्चासौ शपश्चेति तत्पुरुषप्रान्तिः स्यात् । एवं वीरपुरुष इत्युक्त-पौत्श्वासी पुरुषति तत्पुरुषे सत्यपि बीरापुरमा यत्र ग्राम इति पहुब्रोशिमलातिः
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यामंटालद्वारा स्यात् । एवं न कार्यम् । मनु प्रबासौ शत्रुश्च' इत्यत्र 'वीरम्बासी पुस्पश्च' इत्यत्र च कर्मधारयसद्भावात्तत्पुरुषभ्रान्तिर युक्ता प्रोत्तेति चेत , मैवम् । कर्मपारपसंहाधिकारे तत्पुरुषसंशाया अपि शाभिः प्रतिपादनात् । ततः कर्मधारयः तत्पुरुषसहचर पवेति तत्पुरुषमातिकता । 'अनुष्टमि सनी नामात्' इति वचनानिषिी नगणपतिः 'तपुरमबानीही पत्र न विरुद्धः स्याव , भस्थ शिक्षाशास्त्रत्यादिहेतुभिः ।। १५॥
लोक के पूर्वा में हो प्रसिपाय अर्थ को समाप्त कर देना चाहिये और सरपुरुष तथा बहुचीहि समासों का इस प्रकार प्रयोग करना चाहिये जिससे दोनों में भेद स्पष्ट हो सके (अन्यथा अर्थ-वपरीत्म की माशता रहती है)॥ १५ ॥ पुनः शिक्षान्तरमाइ
एकस्यैवाभिधेयस्य समास व्यासमेष च ।
अभ्यस्येत्कर्तुमाधानं निःशेषालक्रियासु च ।। १६ ।। विः एकस्यैव एकस्याप्यभिधेयस्पार्थस्य समास लघुनिच्छन्दसि संक्षेप, व्यासमैनः विसरमपि राम मनि। घुमन्यस्य संक्षेपं कमभ्यस्येत् । प्रौदच्छन्दसाय विस्तरमपि कर्तुमभ्यस्येत् । तभा । विरभ्यस्पैत् । किं कर्तुम् । आधानं कर्तुं अर्थस्य स्थापना कर्तुम् । कास । निःशेषाक्रियासु सर्दालंकारेषु । श्यं भावः सर्वेष्चध्यलंकारेघूपमाविष्वेकस्याप्यर्थस्य स्थापना वर्तुं चाभ्यस्येविस्यर्थः । प्रौढस्यार्यस्थ लघुच्छन्दसा समासो यथा--- 'हामावनिप्रतिध्वानमुखरास्वद्रि पूभियात् । लीयमानानिकोपु यारयन्सीय पर्वताः॥
अस्यैवार्थस्य ध्यासी यथा'यात्रारम्भभयानकानशतध्वानप्रतिध्वानिनः स्वस्योच्छेदपराभवागमममीसंभाव्य शाकुला त्रासायेशवशाइसन्तमधुना त्वरिराजमज दूरादेव निराकरिष्णव इव स्वामिन्विभान्स्यद्रयः ॥'
अथवा'ज्योत्ला गङ्गा परनय दुग्धधारा समाम्बुभिः । हाराशापि न रोचन्ते रोचते यदि ते पशः ॥' अयं समासः । अस्यैव व्यासो यथा'ज्योत्स्ना स्निग्धा न, मो वा इरवि रशिरोरहिणी इतरङ्गि
ण्यानन्द मन रम्यं म भवति, मधुरा नाप्यसो धारा। मुग्धा दुग्धाम्बुधेनोविकसति बहरी हारिणो वा न हाराः
प्रत्ययाः स्वर्गमाङ्गणरमणचणाः कीर्तयश्चेत्त्वदीयाः ॥ है । तथा निःशेषालंकारेश्वर्थाभानविषयेऽभ्यासी यथा--'मुखमस्याः सुन्दरम्' इत्येताजन्मात्रोऽयों 'मुखकमकं सुन्दरम्' इति रूपके श्राधीयते, 'अस्या मुखे षट्पदावलिः कमल
मा निपतति' इति भ्रान्तिमदलंकारे, अस्या मुछे परिते विधात्रा चन्द्रः किमयं निष्पादित बस्पाछेथे 'बदमेवस्या मुखमथवा पझम्' इति संशयाकार, स्वंन मुखं किंतु झमझम्।
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प्रथमः परिच्छेदः।
इत्यपहतो, 'अनलंकृति सुभगमस्याः खियो मुखम्' इति विभागमायाम्, 'मस्या युक्त्या वदनकान्तिभिनिताले समवनतमोभरे न भरति प्रदीप परिममः' इत्यतिशय । एवमन्येवलकारेषु स एवाभोऽभ्यसनीयः ॥ १६ ॥
(मवाम्बासी कधि को) एक ही प्रतिपाद्य वस्तु को संक्षेप और विस्तार से वर्णन करने का पास करना चाहिये। साथ ही उसको चाहिये कि एक ही वस्तु का विभिन्न मलद्वारों में वर्णन करने का अभ्यास भी करे ।। १६ ॥ अथ काय्यकत गा विशेष शापयति
स्यादनर्धान्तपादान्तेऽप्यशैथिल्ये लघुगुरुः ।
पादादौ न च वक्तव्याश्चादयः प्रायशो बुधैः॥१७ ।। अर्धस्यान्तः अर्थान्तः पादस्यान्तः पादान्तः, अन्तशासी पादान्तश्व अर्धास्तपादान्तः,. न अर्धान्तपादामोइनन्नपादान्तः । अथग। अमान्तश्चासौ पावान्तति समासविधिः । भास्ता तावात् । यत् अर्धान्तपादान्ते अर्धान्तरूपे पादान्ते लघुवर्णा गुहर्मबलि। किंतु अनधन्तिपादप्रान्तेऽपि रूपयों शुमभनि। कस्मिन्सनि। अविस्ये सति । शिथिलस्य भावः शैथिल्यम्. न शैथिल्पमधिस्यम् , तस्मिन्नन्यस्व पूढत्वे मतीत्यर्थ: ।
'सुभ्यं नमस्त्रिभुवनातिवाय नाथ तुभ्यं नमः क्षितितलामतभूषणाय ।
तुभ्यं नमसिजगतः परमेश्वराय तुभ्यं नमो जिन मदोदधिशोषणाय || एचंबिधेषु वसन्सतिल केन्द्रयमादिषु छुन्दःम बन्धस्म वृहत्वे सति प्रथमतृतीयपादान्तेऽपि लघुगुरुः स्यात् । न पुनर्मालिनीप्रभृतिषु, बन्धशैथिरयसभषात् । सथा बुधैः पावस्यादौ चावयो न वान्याः। यथा-'च नौमि नेमि लुधिषि सुपार्श्वम्' इत्यादि । प्रायोप्रहणातरे-विक-हा-कि-न-आम्-प्रभृतयो न दुष्टाः । यमा---
'रे राक्षसाः कवयत के सरायो यो रहं रदीन्द्रकुल्योरपहत्य नष्टः।' 'यो चिन्तयामि सततं मयि मा विरक्ता साप्यन्यमिच्छति जन म अनोऽज्यसका। अस्मस्कृते व परितुष्यनि काचिदन्या विका च तं च मदनं च इमां च मां च ॥' 'श्राः सर्वतः स्फुरति कैरवमाः विवन्ति ज्योखां कषायमधुरामभुना चकोराः।
जातोऽथ सैष चरमाचलपुशचुम्बी पाप्रकरजागर गमदीपः ।।' अन्यत्स्वयमप्यूटनीयम् ॥ १७ ॥
यदि किसी स्थान पर लघुवर्ण को गुरुवर्ण करने की आवश्यकता पवे सो वहाँ पर वैसा ही करना चाहिये (अर्थात मधुवर्ण को भी गुरु समसमा चाहिये) । अपार (विसीय और चतुर्थ पात्र)के पन्त में तो यह नियम असियही है, अमस्तिपाव (प्रथम और एसोय पाब) में भी इस नियम का पावश्यकतानुसार पालन काया चाहिये। इसके अतिरिक कुशल कवि को किसी भी पाच के श्रादि में 'च' आदि 'भावों का प्रयोग कर्षित मानना चाहिये।
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वाग्मटालद्वारा। भप कविसमर्थ शिक्षयितुमाह
भुवनानि निबन्नीयात्रीणि सप्त चतुर्दश।
अप्यदश्यां सिता कीर्तिमकीर्ति च ततोऽन्यथा ॥ १८ ॥ कविविश्वानि काम्ये प्रीणि निबनीयात स्वर्गमस्पाताललोकभेदात । अथषा सप्त यथा-(१) भूलोक (२) भुवलोक (३) स्वलोक (४) महलक (५) जनलोक (१) प्तपोलोक (७) सत्यलोक इति । यदा चतुर्दश। यथा--सप्त पूर्वाण्येव । (4) सलं (५) वितलं (१०) सुतलं (११) नितलं (१२) तलातलं (१३) रसातलं (१४) पातामिति । मतान्तरेण भुवनान्येकर्विशतिरपि । तपा-याप रामबाढयो गुणा मूर्तिमद्भ'यालयास्तथापि की लि. मवृश्यामप्यमूतमपि श्वेतां निबन्नीयात् । अदृश्यामप्यकीति तसः स्वेतकोतरन्यथा अपरप्रकारामसिता कृष्णामित्यर्थः । निपक्षीयात् ॥ १८ ॥
कषिता में भुवनों को सीन, सात अथवा चौदा संख्यक बताया गया है। पश यद्यपि अमूर्त है तथापि उसको शुभ्रवर्ण और अपयश को श्यामवर्ण बताना चाहिये।
वारणं शुभ्रमिन्द्रस्य चतुरः सप्त चावुधीन् ।
पतः कीतयेद्वाष्टी दश वा ककुभः कचित् ।। १६ ॥ यपि हस्तिनां घणः कृष्णस्तथापि सुरेन्द्रस्य गजं शुम्नं कीर्तयेत् । तथाग्नेस्तुरमाणां लोहितवर्णः, सूर्यतरमाणा नीलवर्णः, इन्द्रतुरङ्गत्य कडारो वर्णः, शेषः स्वयमूषनीयः । सम्धीम् वणं येत् । कति चतुःसंख्यान् । पूर्वपश्चिमवाक्षिणोत्तरघात् । किंवा (१) लबण (२) क्षीर (३) दधि (x) आजम (५) रा (१) रक्षु (७) स्वादुवारिसमुद्ररूपान्सतलोकप्रसिडान् । तथा ककुमो दिश: चीतयेत् । कति • चतनः। अथवाष्टौ । यद्वा दश । न सर्वत्रापि दश किंतु चित्स्थाने काव्योपयोगिनि पूर्वपश्चिमदक्षिणोशरभेदापातम्रो दिशः। चतसणा विदिशा प्रक्षेपावटौ। अदिगमोदिकप्रक्षेपाशापि दिशः। सम्रौदाहरणानि तेमु तेषु स्थानेषु स्वयं शोयानि ॥ १९॥
जन के हाथी ऐरावत को शुभ्रवर्ण का वर्णन करना चाहिये, समुद्रों की संख्या थार अथवा सात मिर्धारित करनी चाहिये और विशाओं की संख्या चार, पाठ और यदा-कदा दश भी वर्णन की जा सकती है ॥ १९॥ पुनः शिक्षामाह
यमकोषचित्रेषु बययोर्डलयोन मित् ।
नानुस्वारविसगौ प चित्रमय सम्मती ।।२०।। यमकार्यकारे श्लेषालंकार चियालंकारे वकारवकारयोर्न मित् न भेडो भवति । पुनः कयो। स्कारलकारयोः 1 तथा--अमुस्वारश्च विसर्गश्च चित्रस्य शाररम्भन्न्चबन्धाविरूपस्य मनाय विधाताय न संमतौ। न कथितालियर्थः ॥ २०॥
पमक, श्लेष और चित्रापि सादालंकारों में 'क' मा 'द' और 'सया 'क'
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प्रथमः परिच्छेदः ।
१३
तात्पर्य यह है कि 'ब' तथा 'थ' और '' तथा '' चित्रकाव्य में अनुस्वार और विसर्ग के कारण भी कोई ब्यावास नहीं पड़ता, अर्थात् अनुस्वार और विसर्ग की उपस्थिति में भी चित्रकाम्य की हानि नहीं होती ॥ २० ॥ अथ कमैणोदाहरणानि -
[ तत्र ] यमके बोल्योरभेदो यथा
में भेद नहीं माना जाता। समान ही समझे जाते हैं।
शङ्कमानैर्महीपाल कारागारबिडम्बनम् ।
त्वरिभिः सपत्रीकैः मितं बहुविडम्बनम् ।। २१ ।।
महीपाल क्षितिपाल, स्वद्वैरिभिर्वनं खितम् । किंविशिन् । बहूनि विद्यानि विलानि सर्पदेर्विवराणि यत्र तत् सह पश्चभिर्वर्तन्त इति सपक्षीकास्तैः । किं कुर्वाणैः । शङ्कते इति शङ्कमानास्तेः । किं कर्म तब कारारूपे भगारे विम्ब गुतिगृहकदर्थनमित्यर्थः । कारा Treaगारं चेति कर्मधारयः । अत्र लोके यमग्रालंकृते विमनं वहु विलम्वनमिति वयोव्योवा मेरः ॥ २१ ॥
के असं
हे राजन् ! आप के शाकुळ शत्रुओं ने अपनी पत्रियों को साथ लेकर ऐसे भावनिक हिंस जन्तुओं विचर है और जो कारागार के समान असामकों से भरपूर हैं। टिप्पणी--इस श्लोक के द्वितीय और चतुर्थ पादों में 'विडम्बनम' शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ पर 'यमक' नामक कार है।'' और '' का अभेद इस तरह स्पष्ट है कि चतुर्थपाद में प्रयुक्त 'बहुविडम्बनम्' शब्द वास्तव में 'बम' है, किन्तु 'यमक' के लिये 'ल' ही 'ड' मान लिया गया है ॥ २१ ॥
यदी यथा
त्वया दयाद्वैण विभो रिपूणां न केवलं संयमिता न बालाः | वियोगिनी भिर्मुहुर्महीपात विधूसराङ्गाः ।। २२ ।।
तत्कामिनीभिश्च
दे स्वामिन्, रिघूणां बालाः शिशवो न केवलं स्वया न संयमिताः न केवलं खया न बज्राः । बन्दीला इत्यर्थः । किंतु तेषां रिपूर्ण कामिनीभिरपि वाला न संयमिताः । अत्र बालाः केशा न बज्रा इत्यर्थः । लया दयार्द्रेण सता न संयमिताः तत्कामिनीभिद्य विभोगि नीभिः सतीभिर्न बद्धा इति । बालाः शिशवी नालाच केशाः । किविशिष्टाः । मुमंदीपाल विधूसराङ्गाः। मुटुरंवार मां पातेन पवनेन विधूसर विशेषेण धूलिनिथितं अङ्गं येषां तै तथा । अत्र बालबालशब्दोत्रयोरैक्यम् ॥ २२ ॥
हे राजन् ! दया-द्रवित मापने केवल शत्रुओं की स्त्रियों को ( अथवा बालकों को) नहीं बाँधा, यह नहीं, अपि तु बिरइव्यथित शत्रुतियों ने भी पुनः पुनः धूलि - धूसरित होने वाली अपनी केशराशि को नहीं बाँधा ।
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वाग्भटामशः। टिप्पणी-बाला से श्री बालक और बालों के बर्थ का बोध होने से यहाँ पर श्लेष है। यदि 'ब' और 'क' में अभेड़ माना जाप तो श्वेष सम्भव नहीं है। अतएव '' और '' में पहों पर कोई भेद नहीं है। २२ हले लयोरक्य यथा
देव युष्मद्यशोराशि स्तोमेन अफत्मकाः ।
उत्कण्ठयति मां भकिरिन्दुलेखेय सागरम् ।। २३ ।। हे देव राजम् । अमेकार्थनाममालायां देवशम्दो राजार्थोऽप्यस्ति । युष्माकं यशसा राशि स्तोतुं वर्णयितुं स्वदीया भक्तिर्मामुत्कण्ठयति उत्सुनं करोति । पर्म इमं प्रत्यक्ष माम् । किंविशिष्टम् । जड मात्मा यस्य स महात्मा जसात्मैव हारमकः । स्वार्थे का प्रत्ययः । का ५न । यथा इन्दोलेवा सागरमुकण्ठयति उल्हसितं करोति । सागरमपि फिभूतम् । जहारमकं जल नीर मामा म्वरूपं यस्य स बलात्मकरन जथा। अन जहजकमायोर्डकयो काम् ॥२॥
हे देव ! आपके प्रति मेरी ओ भकि है यह मूर्खमति मुसको भाप के स्तुसिगान के लिये उसी प्रकार से उत्साहित कर रही है जिस प्रकार से चन्द्रकिरण जल से परिपूर्ण सागर को उत्तम्भित कर देती है।
टिप्पणी-'जबारमकम्' शब्द के दो मिन-भित्र भर्थ है मूखमति और जलमय। अतः यहाँ पर श्लेषालंकार मामा गया है। 'जसास्माकम्' शब्द 'जलमय' का अर्थ सभी प्रकट कर सकता है जब उसे 'जलारमकम्' मान लिया जाय। इससे '' और 'कों में पारस्परिक सभेव स्पष्ट है ॥ २३ ॥ मथ चित्रे इलयारेक्यं यथा--- चन्द्रद्वितं घटुलितस्वरधीतसाररबासनं रभसकल्पितशोकजातम् । पश्यामिपापतिमिरक्षयकारकायमल्पेतरामलतपःकचलोपलोधम् ।। २४ ॥
अहं देवं पश्यामीति संटङ्कः 1 चन्द्रण सकलज्योतिश्चक्रस्वामिना डिसः स्तुतस्तम् । पुनः फिभूतम् । बटुलिसस्वरथीतसाररमासनम् । स्परशदोऽव्ययमस्ति । स्वः स्वर्गेऽधीतो विख्यातः 1 मेलरित्यर्थः । तस्य सारं रक्षमय आसनं पाण्डुकम्बलादिशिलास्थितम् । चटुलिन चलीकृतं स्वरधीतस्य मेरुशैलस्य साररवासनं येन स तम् । मौनीरेण मेरोः कम्पनात् आसनमपि कम्पसे इति 1 अथवा । स्वः स्वर्गेण स्वर्गवासिदेवजनेन अधीतं पठित व्यावर्णित सारं बलं यस्य स स्वरधीतसार इन्द्र इत्यर्थः। चलितं कम्पितं स्वरीतसारस्येन्द्रस्य रशासनं येन स सम् । परमेश्वरस्य कल्याणेपु इन्द्राणां सिंहासनानि कम्पन्त इप्ति । रमसेन वेगेन फरिपत सिनं शोकजातं असमाधिसमूहो येन ससम् । पुनः कथम्भूतम् । पाकाम्येब तिमिराणि पापतिमिरागि तेषां क्षयं करोतीति पापतिमिरक्षयकार: पापतिमिरक्षयकार: कायो देहो यस्य स ठम् । अल्पेवरं च तत् अमल चाम्पेतरामल अपेतरामधं च ततपश्च तस्मै अपेतरामलतपसे कचलो कपामा धान लोपोनयन गोप्रति व्यतीति मस्पे
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प्रथमः परिषदेवः। जरा राग लोपको नाम । .. नरसिदगई क्यम् । इदं काव्य हारमाकिव्य वाचनीयम् ॥ २४॥
हारबन्धचित्रम्
။
क्ष का का
श्या तिपा
मैं उन शिवजी का वर्णन कह जिनकी स्तुति चन्द्रमा द्वारा की जाया करती है, (जिमकी तपस्या से) उन इन देव का आसम प्रकम्पित हो जामा करता है जो शीत्र ही नाना प्रकार के दुःखों का विनाश कर देते हैं, जो पापान्धकार के मष्ट करने वाले हैं और जिनके केश अनवरत रूप से पाचन तप में रहने के कारण विगलित हो गये हैं। (यहाँ 'सम्नेदितम्' के रकार और 'पटुलिसम्' के लकार में अभेद मामा गमा है)॥२५॥ चित्रे वयोर क्यं यथा
प्रभण्डमल निष्काम प्रकाशितमहागम | भाषतस्वमि देव मालमत्रासुता वध ॥ २५॥ :
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वाग्भटासारः। प्रचण्डमुत्कट बन वीर्य चस्थ स संबोध्यःनिर्गतः कामाकन्दाधिकामस्तस्यामन्त्रणमा निष्कामेत्यत्र निबंदिराविप्रादुश्चतुराम्' इत्यनेन सूत्रेण भिर्शनस्प रेफ पो भवति, परमत्र चित्रायें राहुलकारपो म कृतः। तेन विसर्ग एच निकामेति : माश्चासावागमश्व प्रकाशितो महागमो येन स संबोथ्यः । मावोऽभिप्रायश्चित्तमित्यर्थः । तस्य सत्वानि भावतश्वानि अन्तरातत्त्वानि ज्ञानादीनि तेषां निधिरिद मिस्तिस्यामन्वणन् । । देव, तद भा प्रभालनतिशयेन अत्र विश्वम्रयेऽपि अमृता आश्चर्यकारिणी । मस्ति क्रियानुसापि गम्यसे. 'यधान्य क्रियापदं न सूयते तत्रास्तिर्भवतीपरः प्रयुज्यते' इति सृजूदचनप्रामाण्याद । भत्र भावनलयोक्योरक्यम् | तस छत्रस्थापनार्या स्वयं मोयम् । तथा-'चन्द्रडितम्' इत्यत्रानुस्वारेण त्रिभङ्गो न । 'निकाम-' इत्यत्र विसर्गाभ्यो न चित्रभङ्गः ।
याक नमनीय : मार ।
बिनयारखो स्तुपे वीर विनतत्रिदशेयर । इदमपि छत्रकाव्यं कचिदश्यते ॥ २५ ॥
छत्रवन्धचित्रम् (१) छत्रबन्धचित्रम् (२)
नाना
म
म/ममाया तामाप्रमा
स्वां त्रि
काशित माहा गा
वा नि
हे प्रचण्ड बलशालिन् ! कामनाओं से रहित, शास्त्रादि को अपने ज्ञान से सवलोकित करने वाले और निखिल तस्ववेत्ता देष ! आपकी कामित अस्यम्त अनुत्त. रूपा है। ___ टिप्पणी-संख्या () छत्रधधचिन्न में 'बल' के बकार और 'भात्र' के वकार में अभेद माना गया है। संख्या (१) बम्पवित्र संस्कृत दीकास्थ श्लोक का है।
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द्वितीयः परिच्छेदः ।
अत्र पूर्वोक्नेवार्थमुपसंहा
अधीत्य शास्त्राण्यभियोगयोगाभ्यासवश्यार्थपद्मपचः ।
सं तं विदित्वा समयं कवीनां मनः प्रसत्तौ कवितां विध्यात् ॥ २६ ॥ अभियोगस्योपमस्य योगात् शाखाणि धर्मशाखकामशास्त्रार्थशास्त्रशस्त्रशास्त्र नीतिशास्त्रवैषशा काययोसियार यूएन अर्थपदानि सेब प्रयचः अभ्यासेन वश्यो वशवर्ती अर्धपदप्रपचः शब्दार्थप्रो यस्य स सं सं प्रसिद्धं पूर्वकविप्रयुक्तं कवीनां समयं कविसिद्धान्तं शाखा तत्तो मनलात्तस्य प्रस खतीत्यर्थः । कवेः कर्म कवित्वं तां विदध्यात्कुर्यात् ॥ २६ ॥
इति वाग्मटाकार व्याख्यायां सिंहदेवगणकृतायां प्रथमः परिच्छेदः ।
२ वा० लं०
१७
सतत अभ्यास के कारण जिसे अर्थों और पदों के औचित्य का सम्यग्ज्ञाम हो चुका है वह कवि व्याकरण, छन्द और अलंकारादि शास्त्रों का अध्ययन करे। तत्पश्चात् पूर्वकालीन काव्यशास्त्र के मर्मज्ञों द्वारा निर्दिष्ट सिद्धान्तों का पालन करके चिकण दर्शन श्रवणादि के संयोग से उस समय काव्यरचमा में प्रवृत्त हो जिस समय मन सब प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त हो ॥ २६ ॥
॥ प्रथम परिच्छेद समाप्त ॥
1000B*
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द्वितीयः परिच्छेदः अय काव्यशरीरं दर्शयन्नाद
संस्कृतं प्राकृतं तस्यापभ्रंशो भूतभाषितम् ।
इति भाषाश्चतस्रोऽपि यान्ति काव्यस्य कायताम् ॥१॥ वस्य पूर्वप्रस्तुतस्य कान्यस्य पताश्चतनोऽपि भाषाः काया शरीरत्वं प्राप्नुवन्ति । चसस्नोऽपि मायाः काव्यस्य शरीरप्राया इत्यर्थः ॥ १॥
संस्कृत, प्राकृत, उस (संस्कृत) का अपभ्रंश और भूतभाषा ये चार भाषाएँ काव्य-शरीर की रचना करती हैं अर्थात् इन चार भाषाओं में कान्य-रचना की जाती है॥॥ अर्थ भाषाचतुष्टयं स्पष्टयति--
संस्कृतं स्यनिणां भाषा शब्दशास्त्रेषु निश्चिता।
प्राकृतं तजतत्तुल्यदेश्यादिकमनेकधा ॥२॥ देवानी भाषा संस्कृत मवति । किविशिष्टा । शम्दशास्त्रेषु व्याकरण निश्चिता सम्य. ग्व्युत्पत्त्या निीता । प्रकृतेः संस्कृतादागतं प्राकृतं अनेकधा अनेकप्रकारे भवति । तज्न च तसल्म च देश्य च तम्जतत्तुल्यदेदयानि तानि आदी यस्म तसथा। तस्मात्संस्कृतान्जायते स्म तज्जम् । यथा
सिरिसिमराम सन साइसरसिक त्ति कितणं तुज्झ ।
कहमणहा मगं मह पडन्तमभागस्थमक्कमसि ॥ हे श्रीसिद्धराज जयसिहदेव, तर साइसरसिक इति कीनं सत्यमस्ति तत्तथा । अन्यथा कथं मनो मम आक्रामसि । मनः किंभूतम् । पतन्ति मदनास्त्राणि स्मरबाणा यत्र सत् । भत्र संस्कृतशमा पत्र प्राकृतीभूता प्रति तज्जम् । सेन संस्कृतेन तुल्यं समसंस्कृतमित्यर्थः। उदाहरणं यथा-'संसारदावानलदाइनीरम्-' इत्यादिस्तुतयः । भत्र प्राकृतेऽपि संस्कृतशमा नान्यथा भवन्तीति । देशे भयं देश्यम् । यथा
'सत्तावीसमोअणकरपसरो जाव अज्ज वि न हो।
पडिहत्यविम्बगइवश्वक्षणे ता बञ्ज उजाणम् ॥ मत्र सत्तावीसमोश्रणशब्दो देश्यचन्द्रार्थ, सस्य किरणप्रसरो यावत् अद्यापि न भवति । - पनिइत्यशम्दोऽपि देश्यः सम्पूर्थिः । गहवाशझे देश्यश्चन्द्रार्थः। सतो हे सम्पूर्णमण्डचन्द्रवदने तावत्त्वं उन्धान बजेति ।
आविशम्देन शौरसेनी भाषा मागधी च गृश्यते । शौरसेनीमागभ्योः प्राकृतावस्प एव मैदः । शौरसेनी । यथा-इदानीशब्दे इस्लोपः-ज दाणी दुबलो अयम् । तदशब्दस्य
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द्वितीयः परिच्छेदः ।
सा--'तापछि '। एवमु
अम्महेश हर्षे अम्म, एसो वलही जगो' विदूषकादीन इर्षे ही ही भो शति शब्दा:
'ड़ी ही भो, एस नरु जम्प' इत्यादि ।
मागधीभाषायां अकारान्तस्य सौ एर्भवति- 'एस वहदे' । तथा भईशब्दस्य ह भवति-'हगे अगदा' । तिष्ठतेस्वकारस्य चकारः - 'चिट्ट तुमम्' । तथा रेफस्य लः कारल्य चनः । यथा तरुणस्थाने 'तलुन' इति, रूक्षस्थाने 'लुक्स' इत्यादि । एवमनेन प्रकारेणानेकथा प्राकृतं शेयम् ॥१२३
१६
से
व्याकरणादि शब्दशास्त्रों में संस्कृत भाषा देव भाषा बतायी गयी है। संस्कृत भाषा प्राकृत है जो कि विभिन्न देशों में प्रयुक्त होने के कारण विभिन्न नामों से प्रचलित हैं, यथा-मागधी, अर्धमागधी, पैशाची, महाराष्ट्री इत्यादि ॥२॥ अपभ्रंशभाषामाद-
अपभ्रंशस्तु यच्छुद्धं तत्तद्देशेषु भाषितम् ।
अपभ्रंशः पुनर्भवति । स इति स्वयं गम्यते । यतेषु तेषु कर्णाटपञ्चालादिषु शुद्ध अपर- भाषाभिरमिथितं भाषितं सोऽअभ्रंशो भवतीत्यर्थः । इद कचिदभूतोऽपि रेशो भवति । यथा-'चार तुहु अमोडि अदीस अब पढन्तु क िमा कई आविस अक्षं के रनु कन्तु ।' अन्य ( पवन वर आदि) देशों में जो संस्कृत से मिस्र किन्तु उन देशों के नियमानुसार भाषा बोली जाती है उसको अपभ्रंश कहते हैं ।
पैश्चात्रीमाह
यद्भूतैरुच्यते किञ्चित्तद्भौतिकमिति स्मृतम् ॥ ३ ॥
बल्किंचिद्भूतैः पिशात्तैरुच्यते जय्यते तङ्गोलिक पैशाचिकमिति कथितम् । भूतानामिद मौतिकम् । अत्र दकारस्य तः । यथा- 'भाइतेवं तवं नमद' मारुदेवं देवं नमत | यूयमित्यर्थः । हृदयस्य यकार: पकारो भवति । यथा - हित पंके ' रस्य लः। यथा '' रौद्र इत्यर्थ इत्यादि ॥ ३ ॥
भूतादि जातिविशेष द्वारा जो भाषा प्रयुक्त होती है उसे भौतिक भाषा कहते हैं ॥ ३ ॥
मथ बाममस्य द्विप्रकारत्वमाद
छन्दोनिषद्धमच्छन्द इति तद्वायायं द्विधा ।
पथमाद्यं तद्न्यच गथं मिश्रं च तद्वयम् ॥ ४ ॥
तत्प्रसिद्धं वाचा विचारो वायायं द्विधा द्विप्रकारं भवति । पर्क मात्रा गणबन्धाच्छन्दसा निषद्धस् । अपरं च छन्दश्छन्दीरहितम्। आचं छन्दोनिष पथं कहते। तदन्य ततोऽभ्यच्छन्दीविहीनं गर्भ कथ्यते । तयोयं समूह छन्दोनियाछन्दसो मि
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बाग्मटोलबारः। गलपमरूपम् । तच चम्भूरिति मित्रम् । 'गपषमयी चम्पः' इति वचन्तत् । मिश्नं च नाटकादिषु धम्पूग्रन्थेषु च भवति ॥ ४॥ ___ वाङ्मय दो प्रकार का होता है-एक तो छम्बोधन और दूसरा छचोहीन । । इनमें से पहले (छन्दोबर) को पच और दुसरे (छन्दोहीन)को गद्य कसे हैं । पथ और गन से मिले हुये वादमय को मिश्रित कहते हैं ॥४॥ काव्ये दोपपरिहारार्थमाह--
स्वदुष्टयन ताकी म्बर्गसोपानपतये ।
परिहायोनतो दोषांस्तानेवादी प्रचक्ष्महे ॥५॥ तत्काव्यमदुष्टमेव दोषरहितमेव कौतिनिमिर्स भवति । किंविशिष्टाय कीत् । स्वर्गस्य स्वर्गरूपस्य आवासस्य सोपानरहिरिव स्वर्गसोपानपकिस्तस्यै । यथा सोपान तथा उच्चस्तरे प्राप्तादे आरुहासे कोसिंरूपसोपानश्रेण्या कादयः काव्यकरणेन स्वर्गलक्षगतुङ्गप्रासादमारोएन्ति । करिकीर्तेः स्वर्गेऽपि विस्तीर्यमाणस्वात अतः कारणात्परिहार्यान्दोषाअसिखानादौ धुरि प्रचक्ष्महे कथयामो त्रयम् ॥ ५॥
केवल दोषाहीन काव्य ही (लोक में) यश को देने वाला और (परलोक में) स्वर्शपद को प्राप्त कराने वाला होता है। दुष्टकाव्य से तो केवल अपकीर्ति ही हाथ आती है। अत एव काव्य में स्याग्य दोषों का उल्लेख किया जा रहा है ॥५॥
तत्र काव्ये दोषासिविधा भवन्ति । पददोषा वाक्यदोषा वाच्यार्भदोषाश्च । तत्र प्रथम पदविषयानष्टौ दोषानाच
अनर्थक श्रुतिकटु व्याहतार्थमलक्षणम् । स्वसङ्केतप्रक्लुप्तार्थमप्रसिद्धमसम्मतम् ॥६॥ प्राम्यं यच्च प्रजायेत पदं तम्म प्रयुज्यते ।
कचिदिष्टा च विद्वद्भिरेषामप्यपदोषता ।। ७ ।। ( युग्मम् ) न विद्यतेऽर्थः प्रयोजनं यस्य तदनर्थकम् । निष्प्रयोजनमित्यर्थः । श्रुती प्रवणे कटु श्रुतिकटु यह अवणे कर्कशमित्पर्धः । ग्याइतो विरुद्धोध्यौँ यस्य तघाइतार्थ विरुद्धार्थमित्यर्थः । न दियते लक्षणं शम्दशाव्युत्पत्तिर्यस्य सत्तश्या । व्याकरणहीनमित्त्यः । स्वसंकेतेनैव न परसंकेतेन प्रकल्पितोऽयों यस्य तत्तथा । स्वाभिप्रायकल्पितमित्यर्थः । शास्त्रे कचित्प्रोक्तमपि पन्न प्रसिद्ध विख्यातं तान् साप्रसिजूम् । श्रसम्मतं नामिमलमिस्वर्थः ।। ग्राम प्रत्यन्तपुरे भयं माम्य ग्रामीणजनपचनतुल्पमित्यर्थः । एवंविधं यत्पदं प्रजायेत प्रादुर्भधैव तत्पदं शनरूपं न प्रधुज्यते, कान्येषु ताशस्य पदस्य पुष्टस्यात् । अत्रापबारमाह-इचिदिष्टा चैत्यादि। कचिस्केचिदनुवादोपहासाधु विमिः पूर्वाचायरेषामपि पूर्वोक्ताष्टपदानामपि अपदोपता निदोपता या प्रतिपादिवेत्यर्थः । यया
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द्वित्तीयः परिच्छेदाः। 'मुर्ख चन्द्रनियं पचे श्वेतश्मनुकराहुरीः । अत्र हास्यरसोदेशे ग्राम्यत्वं गुणतां गतम् ॥? हास्यरसावतारादिहेतवे प्राम्यादिपदान्यपि गुणाय मयन्तीति भावः॥ ३-७॥
अमर्थक, श्रुतिकटु, ज्याइसार्थ, अलक्षण, श्वसंकेतप्रक्लुप्ताथ, अप्रसिद, असम्मत और प्रारम--ये भार डोप जिल पद में छा जाये उसका प्रयोग नहीं करना चाहिये। किन्तु कही पर ये दोष रहने पर भी दोष नहीं माने जाते ।। ६-७ तत्र प्रथममनयेकमाइ
प्रस्तुतेऽनुपयुक्तं यत्तदनर्थकमुच्यते ।
यथा विनायकं वन्दे लम्बोदरमहं हि तु ॥८॥ प्रस्तुते प्रारब्धेथे यदनुपयुक्तं नोपयुक्त अनुपयोगि भवति तत्पदमनर्थकमुच्यते । उदाहरणमाइ–यदिति । यथाशब्दो दृष्टान्तोपन्यासार्थ: । अत्र लम्बोदरपद दितु इति च सर्वमनर्थकम् । यसः यत्स्वरूपमाषवारकं पादपूरभाषं च यत तवयमपि अनर्थक ज्ञेयम् । लमोदरपदं हि स्वरूपमाववाचकम् । हितुपदे तु पादपूरणमात्रार्थ के । अतोऽनर्थकानि । तथा वन्दे इत्यत्र वर्तमानाया एकवचनस्य प्रयोगादमित्यपि स्वयं लभ्यते । अलो. प्रमिति पदमपि पुनरुतत्वाइनर्थक बोयम् । प्रयोजनविवक्षायां तु अहमिति पदं प्रयुक्तं नानकमिति । अत्र शिष्य आह'ननु लम्बोदरपदं गणेशार्थप्रतिपादकं ततः कथमनर्धकम् । न च बाच्यं विनायकशब्देनैवोक्तार्थत्वार पुनस्कदोषः स्यादिति । पुनरत्तदोषस्यात्रानिषिद्धत्वात् । अत्र उच्यते--पुनमक्तदोषा अनर्थकदोघेऽन्तर्भवन्ति । ये तु पुनरुपादोषा पृथग्निधन्ति, तेऽपि पाईप्रतिपत्तो जालायां पहान्तरप्रयोगमनुपयोगिनं मन्यन्त एव। न चे प्रस्तुते वन्दे इत्यर्थे लम्बोदरपदं कभिदुक पुष्णाशि। तेन पुनरुक्तदोषोऽनर्थकोषेऽन्तर्भवतीति सिद्धम् । यत्तु वक्ता पंषयाविवशार पर दिखा प्रयु, तत्र नायं दोषः। तेन विना हि कथं वर्षमयादिप्रतीतिः स्यात् । तदुक्तं श्रीभाबश्यके
'सज्झायज्झाणतबो स हेसु उवएसुश्रुवश्वयणेसु।
संत गुणकित्तणेमु अ न दुन्ति पुनरुत्तदोसाओ ।' यषा
'जयजय ववरजिष्णो विष्णोरवतार भूप जयसिंह।
अतिकेशहस्तातल्यावृसदुर्वारबीर भुवनेऽस्मिन् ।' अत्र जयजयशद विना दर्थो न गम्यते । वस्तशम्दयोस्तु पुनरुक्ताभासत्वमेव । मित्रायस्वरत् । मये यथा अहिरहिः । एवं वीप्सानुवादादिष्यपि द्रष्टव्यम् ॥ ८॥
जो पद प्रस्तुत विषय के अनुकूल न हो उसे अनर्थक कहते हैं। पवा-मैं मोदर गणेशजी की स्तुति करता है।
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२२ /
वाग्भटालङ्कारः । :
टिप्पणी पर विनायक ( गणेशजी ) के मन में 'कम्पोवर' विशेषण अनुपयुक्त होने के कारण काव्य में 'अमर्थक' नामक दोष उत्पन्न करता है ॥ ८ ॥
अथ श्रुतिकटु भाइ
-
निष्ठुराक्षरमत्यन्तं बुधैः श्रुतिकटु स्मृतम् ।
एका मनसा मन्ये स्रष्टेर्य निर्मिता यथा ॥ & ॥
विद्भिर्भूशं कटोराक्षराणि यत्र तत्प 'श्रुतिकटु' इति पठितम्। उदाहरणमाहएकेति । यथाशब्दो निर्देशनोपदर्शनार्थः । इयं युबती स्रष्टा विधात्रा घटिता। किंभूतेन । एकार्थ सावधानं मन्दौ यस्य स एकाग्रमनास्तेन । मन्ये इति विसर्के । एवंविधाद्भुतरूपस्यान्यथानुपपत्तेरिति । मन स्रष्ट्रा दति कठोरम् || ९ ||
काव्य में अत्यन्त कर्णकटु अचरों के प्रयोग से उत्पन्न होने वाले दोष को आभार्यों ने 'श्रुतिकटु' संज्ञा प्रदान की है। यथा
मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि एकाप्रति स्रष्टा के द्वारा इस ( सुन्दरी ) की रचना की गयी होगी [ क्योंकि ऐसा न होने पर स्रष्टा ( विधाता ) इस अपूर्ण सुन्दरी स्त्री की सृष्टि कर ही कैसे सकते थे ? ]
टिप्पणी- यहाँ पर 'स्त्रयं' शब्द में टकार और रकार का प्रयोग दूषित है क्योंकि ये दोनों कर्कश वर्ण हैं ॥ ९ ॥
ब्याहतार्थमाह
—————
व्याहतार्थं यदिष्टार्थबाधकार्थान्तराश्रयम् ।
स्वस्थमेव भूपाल भूतलोपकृतौ यथा ॥ १० ॥
तत्पदं व्याहतार्थे मवति यदभीष्टार्थत्य नाथकं श्रर्थान्तरमान्यार्थमाश्रयति । एकस्मादर्थादन्योऽर्थः अर्थान्तरं दृष्टार्थबाधकं च तदर्थान्तरं न इष्टवाकार्यान्तर भाभयो . यस्येति समासविधिः । उदाहरणं यथा— भुतकस्योपकृतिरूपकारस्तस्यां वं रतः आसन इष्टोऽर्थः । तस्य वाधकं भूतानां प्राणिनां खोपकरणे रतस्त्वमित्येवंविधमर्थान्तरभावयति भूतलोप कृतिशब्दः || १० ॥
ऐसे पत्र का प्रयोग जिससे हृष्टार्थ के अतिरिक्त, अन्य अर्थ का प्रतिपादन होता हो और वह ( अन्य अर्थ ) दृष्टार्थ में बाधा डालता हो ब्याहवार्थ' नामक दोष कहलाता है । यथा - हे राजन् ! आप सदैव संसार के उपकार में लीन रहसे है।
टिप्पणी - इस पद में 'भूतोपकृती' शब्द का प्रयोग दूषित है। एक प्रकार से सन्धि करने पर इसका रूप बनता है-'मूसल + उपकुशी' जिसका अर्थ है 'संसार के उपकार में और वास्तव में यही इष्टार्थ है । इस शब्द का एक और
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&
द्वितीयः परिच्छेदः ।
२३.
भी रूप बनेगा 'भूत + लोपकृती' जिसका अभिप्राय है 'प्राणियों के विनाश में । पूर्वोक्त इहार्थ के साथ-साथ इस अनिष्टार्थ का प्रतिपादन होने के कारण यह पर 'म्याहतार्थ' शेष उत्पन्न हो गया है ॥ १० ॥
लक्षणं लक्षपति
शब्दशास्त्रविरुद्ध यसवलक्षणमुच्यते । मानिनी मानवलनो यथेन्दुर्विजयत्यसैौ ॥ ११ ॥
यत्पदं शब्दानां शाखेण व्याकरणेन विरुद्धं तदलक्षणं कथ्यते । उदाहरति-त्युदाहरणार्थम् | मानवसौना तरुणीनां मानस्याहङ्कारस्य वळयतीति दलनो विदारकः इन्दुन्द्रो विजयत्ति विशेषेण जयति । चन्द्रोदये सन्मयोन्मादेन पतिषु साहद्वारा अपि युवतयो मानं मुखन्तीति । अत्र 'परवेः' इति सूत्रेणात्मनेपदप्राप्तिर्विजयतीति परस्मैपदं दुष्टम् विजयते इत्येव सत्यम् ॥ ११ ॥
जो पद व्याकरणविरुद्ध हो उसे 'अलक्षण' दोष कहते हैं। यथा- मानिनी स्त्रियों के मान-मर्दन करनेवाले चन्द्रमा की विजय हो ।
टिप्पणी- यहाँ पर 'विजयति' शब्द दूषित है। व्याकरण नियमानुसार 'जि' धातु - जिसका अर्थ है जीतना-'परस्मैपदी' है, किन्तु 'वि' उपसर्ग पूर्व में रहने पर वह धातु 'आरमनेपदी' हो जाती है। अपुन 'जयति' शब्द तो व्याकरण-सम्मत है और इसीलिये मदुष्ट भी । जैसे कि--'स जयति सिन्धुखदनो' आदि पद में, किन्तु 'वि' पूर्वक 'जि' धातु का लट् लकार में प्रथमपुरुष का रूप होना चाहिये ''विजयते' न कि 'विजयति' जैसा कि यहाँ पर प्रयुक्त है। इसीलिये इस लोक में 'क्षण' नामक दोष माना गया है ॥ ११ श्वसङ्केत प्रक्तार्थमाह
स्वसङ्केत प्रक्लृप्रार्थं नेयार्थान्तरवाचकम् | यथा विभाति शैखोऽयं पुष्पितैर्वानरध्वजैः ॥ १२ ॥
नीयत इति नेयं मह्यं न तु गम्यम् । नेयं च तदर्थान्तरं च नेयार्थान्तरं तस्य बाधकं पदं स्त्रसंकेत प्रक्तार्थं भवतीत्यर्थः । उदाहरति-- यथेति । अत्र वानरध्वजैरिति ककुमाख्यैरर्जुनवृक्षैरित्यर्थः । वानरध्वमशब्देनार्जुननामा पाण्टवः कथ्यते तस्य कपिध्वजत्वात् । ननु अर्जुननाम्ना सादृश्येन ककुमपक्षास्तेन वानरवत्रपदं नेयार्थन् । वानरध्वमश देन हि रुकुमवृक्षा न कथ्यन्ते ततः स्वसंकेत प्रकृतार्थं दानरध्यन पदम् । यतु समस्त कविसंकेतनं तथ न दोषः । यथा रथाङ्गशब्दचक्रनानि पक्षिणि द्विरेफशन्नो भ्रमरे, दिकशब्दः काके ॥ १२ ॥
'स्व संकेत प्रकृतार्थ' नामक दोष वहाँ पर होता है जहाँ किसी प्रसिद्ध एवं
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२४
याग्भटालङ्कारः ।
सर्वविदित अर्थ के विपरीत कषि स्वकविपत अर्थ में किसी पविशेष को प्रयुक्त. करता है । यथा-यह पर्वत पुष्पराशि-मणिस कपिध्वज- (अर्जुन) के पूतों से सुशोभित हो रहा है।
टिप्पणी- 'कपिध्वज' शब्द साधारणतवा पाण्डुपुत्र अर्जुन के लिये ही रूद्र है, किन्तु यहाँ कषि ने उसे स्वरूपित अर्जुन नामक वृद्ध के अर्थ में प्रयुक्त किया है। अतएव यहाँ 'स्वसंकेत सार्थ' नामक दोष है ॥ १२ ॥
अथाप्रसिद्धमाइ
यस्य नास्ति प्रसिद्धिस्तदप्रसिद्धं विदुर्यथा । राजेन्द्र भवतः कीर्तिचतुरो हन्ति वारिधीन् ॥
१३ ॥ यस्य पदस्य प्रसिद्धिः कविरुद्धिर्नास्ति तदप्रसिद्धं विदुः तथात्वेन न जानन्ति । धातूना मनेकार्थत्वात्कथयन्ति च । उदाहरणं यथा - हे भूपेन्द्र तब कीर्तितुः संख्यान् पूर्वपश्चिम दक्षिणोत्तरान् समुद्रान् इन्ति गच्छति भ्राम्यतीति भावः अत्र 'छन् हिंसागत्योः' इति धातुपाठे गत्यर्थः पठितोऽपि इन्तिधातुर्न कविपरम्पराय प्रसिद्धः । प्रयोजनविशेषे तु प्रयोगोऽभ्यदुष्ट एव । यथा विशेषे श्लेषादिषु ॥ १३ ॥३ अप्रसिद्ध एवं अप्रचलित अर्थ में किसी पत्र को मामक दोष लत्पन्न होता है।
।
I
तक जा चुकी है।
प्रयुक्त करने से 'अप्रसिद्ध' आप की सुकीति चारों समुद
टिप्पणी- 'इन्' धातु प्रायः मारने के अर्थ में ही प्रवति है, जाने के अर्थ में नहीं, तथापि यहाँ पर 'इति' जाने के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। अतएव इस श्लोक में 'सिद्ध' नामक दोष आ गया है ॥ १३ ॥
असम्मतमाद
शक्तमप्यर्थमाख्यातुं यन सर्वत्र सम्मतम् ।
असम्मतं तमोम्भोजं क्षालयन्त्यंशवो रवेः ॥ १४ ॥ यस्पदमर्थमाख्यातुममित्रेयं वक्तुं शतमपि समर्थमपि सर्वत्र महाकविशाखेषु न संमतं कवीनां नाभिमतं तदसंमतं कथ्यते। यसदोनित्यसंबन्धत्वात् तच्छब्दस्य स्वयं गम्यमानत्वाद । अत्रोदाहरणमाह- रवेः सूर्यस्याशवः किरणास्तम पत्राम्भोनः कर्दमस्तं तमोम्भोजं ध्वान्तरूपमम्मीजं कर्दमं चाखयन्तीत्यर्थः । अत्राम्मोनशब्दोऽग्भलो जातोऽम्भोज वि व्युपस्या कर्म नाचथितुं समर्थोऽपि कमलादन्यत्र कवीनां न संमतः कमले एव तस्य रूढत्वात्ः । तथा---प्रपूर्वः स्मृधातुविस्मरणार्थे एवं प्रसिद्धो न तु प्रकृष्टस्मरणार्थे । तथा चोकं नैषभकाव्ये---
'नाक्षराणि पठता किमपाठि प्रस्मृतः किमथवा पठितोऽपि । इत्थमर्थितसंशयदोळा झेल लघु चकार नचारः
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द्वितीयः परिष्यः ।
२५.
तथा - प्रपूर्वः स्थाषातुर्गमनार्थे प्रसिद्धो न तु प्रस्थानार्थे । यथा-' -'असौ नगरं प्रति प्रस्थितः । गत त्यर्थः । तथा भापूर्वी धतिः करणे, न तु समन्तादने । यथा - 'सद्विचा विस्मयावा'। विस्मयकरीत्यर्थः । एवं कविसंगतमेव पद प्रयोज्यं काव्ये नान्यत् ॥ १४ ॥
जो पद किसी अर्थ को प्रकट करने में समर्थ होते हुए भी सर्वमान्य नहीं होता उस (पद) का प्रयोग 'असम्मत' नामक दोष की उन्द्राया करता है । यथा - सूर्य की रश्मि अभ्भोज (अन्धकार) के कीचन ( अथवा अन्धकारः रूप कीचड़ ) को धो डालती हैं। टिप्पणी--इस पक्ष में 'अंभोज' पद यद्यपि कीधव का बोध कराने में समर्थ है, तथापि 'अम्भोज' पद का यह अर्थ सर्वसम्मत नहीं है। इसीलिये इस पद्म में 'सम्मत' नामक दोष है ॥ १४ ॥
अथ माम्यमाह
यत्रानुचितं सद्धि तत्र ग्राम्यं स्मृतं यथा | छादयित्वा सुरान्पुष्पैः पुरो धान्यं क्षिपाम्यहम् ॥ १५ ॥
यदिति । यत्पदं यत्र देशेऽनुचितं वतुमयोग्यं भवति हि निश्चितं तत्पदं तत्र देशे आम्यं स्मृतं कचिभिस्तद कथितमित्यर्थः । यथेत्युदाहरणार्थम् । अहं पुष्पैः सुरानभ्यचर्य बलि ढोकयामीत्येवं वक्तुं योग्यं भवति । अत्र तु महं देवान्पुष्पश्वादयित्वा धान्यं क्षिपामोति ग्रामीणो कयवचनं प्रो ततादृशं पदं ग्राम्यं शेयमिति । तथा श्री जुगुप्साअमङ्गलप्रतीतिकरा ये समास्तेऽपि समानुचि ब्रांडचा सामन सुमइयस्य-' इत्यत्र साधनशब्दः पुञ्चिपि शक्कयेत । जुगुप्सावाचको प्रथा 'वायुः प्रसरति । वायुशब्दोऽपानपवनशङ्काकारी अमलप्रतीतिकरो यथा - 'संस्थितोऽयम् । संस्थितशोऽत्र मृतार्थशक (कारी | तथा
'अलिपेलवमतिपरिमितवर्ण लघुतरमुदाहरति शठः ।
परमार्थतः सहृदयं वहति पुनः कालकूटघटितमिव ॥
अत्र पेलवशब्दोऽसम्यरवा आम्य एव यास्यt साभिरित्यादयस्तु कचिदेशेऽसभ्यत्वाआम्याः न तु सर्वत्र | भगवती भगिनी शिवलिङ्ग भूत वस्तु लोकेऽविरुद्धत्वाददुष्टाः । उक्त'लोकप्रतिपतयो लौकिकोऽर्थः परीक्षकः । प्रतिलोकव्यवहारसदृशौ बालपण्डितौ ॥ इति ।
कचिदेषामप्यनर्थकादीनामपदोषता ।
*वनयस्थास्मि दादासी ततवाई ससर्वदा । ततमानय मन्दोक्तिमेनामध्येत्ययं शुकः ॥ बकारादयोऽनर्थका अलक्षणाश्च तथाप्यत्रानुकरणार्थत्वात्तेषां न दोषः । युगपत्स्तुतिनिन्दयोर्वाच्ययोग्यहतार्थमपि न दुष्टम् 1 यथा-
"रतस्त्वमेव भूपाल भूतोपको सतत एव यशः स्वैर तवा पूर्वाश्थी ॥" स्वैरं स्वेच्छाचारी मयं । अपूर्वा मुलकारपूर्वाध
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२६.
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धाग्भटालारस प्रकिका ससंकेतमालसार्थमपि न एम् यथा--
'अवलो श्ऊण सामलव अर्ण सयाम दारो जाओ।
रचितणय मण्डलीक्रय इस्थिपसूर्ण कुरंग ॥ भन रवितनयः कणस्तच्चष्ट्रवाच्यः ॥ १५॥
जह कोई पद प्रसंग विशेष में अनुचित होने पर भी प्रयुक्त हो वहाँ 'प्राग्य' दोष समझना चाहिये । यथा-देवताओं को पुष्पों से प्राच्छादित करके मैं उनके आणे घाम्य-इविष्-इल्यादि फेकला हूँ।
टिप्पणी-देवताओं के ऊपर पुष्प चलाये जाते हैं न कि उन्हें फूलों से उक दिया जाता है, जैसा कि यहाँ पर प्रयोग किया गया है श्रतएव इस श्लोक में 'ग्राम्य' दोष समझना चाहिये ॥ १५ ॥ संप्रत्यष्टी वाक्यदोषान्कमेणाह
पदात्मकत्वाद्वाक्यस्य तदोषाः सन्ति तत्र हि ।
अपदस्थास्तु ये वाक्ये दोषांस्तान्ब्रुमहेऽधुना ।। १६ ।। उक्ताः पदवशेषाः । यस्मिन्वाक्ये सदोषं पदं प्रयुज्यते तद्वाक्यमपि सदोषपदयोगात्सदोघमेवेत्या-तोषाः पदमतदोषाः अनर्थकादिकाः हि निश्चितं तत्र वाक्ये सन्ति । पाक्यस्य पदात्मकस्यास्पदपस्वात् । सदोषपदनिष्प थापथमपि सदोषम् । निषिः पदैर्वाक्यमपि निवौषम् । यश
___ राजेन्द्र भवतः कीर्तिश्चतुरो इन्ति यारिधीन् ।' इत्यत्र पन्तासि सदोषक्रिया समग्रदोष वाक्यं सदोषं जातम् । पलावता ये पददोषा भवन्ति ये अपदस्था वाक्यदोषाः, ये पदेन मस्ति किंतु वाक्ये सन्ति सानधुना बच्मः ॥ १६ ॥
पदों से ही वाक्य की रचना होती है, अत: पद में रहने वाले दोष वाक्य के भी दोष हो सकते हैं। मथापि जो दोष पद में म होकर वाक्य में ही होते हैं उन वाक्यदोषों का वर्णन आगे किया जाता है ॥१६॥
खण्डित व्यस्तसम्बद्धमसम्मितमपक्रम ।
छन्दोरोतियतिभ्रष्टं दुष्टं वाक्यमसक्रियम् ।। १७ ॥ एवंविधं वाक्यं दुष्टं सदोषम् । छन्दोभ्रष्टं रीतिभट यतिश्रयम् ॥ १७ ॥
खण्डित, व्यस्तसम्बन्ध, असम्मित, अपक्रम, छन्दोभ्रष्ट, रीतिभ्रष्ट, पतिभ्रष्ट, दुष्टवाक्यस्य और असस्क्रिया-थे नौ वाक्य दोप है ॥ १७ ॥ अधानुक्रमेण सर्वांनाह
वाक्यान्तरप्रवेशेन विच्छिन्न खरिडतं मतम् । । यथा पातु सदा स्वामी यमिन्द्रः स्तौति वो जिनः ॥ १८॥ .
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द्वितीयः परिच्छेदः। यदाक्यं वचनान्तरम्यासेन विच्छि शुटितं तत् खण्डितम् । जिनः स्वामी यो युस्मान्पातु इति वाक्य यमिन्द्रः स्तोतीति वाक्यान्तरेण विछिन्नत्वावद्धितम् ॥ १८ ॥ __ एक पाग्य के अन्तर्गत अन्य याक्यांश के भा जाने से प्रथम वाक्य में जहाँ विच्छेद उपक हो जाता है, वहा खपिद्धत' नामक दोष माना जाता है। यथा-थे जिनस्वामी जिनकी स्तुति सदैव हद भी करते रहते हैं, आप लोगों की रक्षा करें।
टिप्पणी-यहाँ पर थे जिनस्वामी श्राप लोगों की रक्षा करें-स वाक्य के बीच में "जिनकी स्तुति सदेव इन्द्र किया करते हैं। इस वाक्य के आ जाने से पूर्वोक्त वाक्य में व्यवधान उपस्थित हो जाता है। अतः यह 'स्खण्डित' नामक दोष का उदाहरण है ॥ १८॥
सम्बनिकरपरत्वे यस् हाम्वास्गो :
यथायः सम्पदंशाता देयात्तत्त्वानि वोऽर्हताम् ॥ १६ ॥ एकस्मिन्नेव वाक्ये सम्बन्यिवदाददूरबे सति यस्य परस्य वरद सम्बन्धि तत्रैव योज्यम् । तदूरत्वे सति ध्यस्तसम्बन्धगुच्यते । यथाबाईलामा यस्तत्त्वानि शाता वः सम्पद देगादिति मम्बन्धिपदानां यरे स्थापन तम् व्यस्तसम्बन्ध ज्ञेयम् ॥ १९॥
किन्हीं दो पदों में परस्पर-सम्माथी पदों के दूर-दूर रहमे पर 'व्यस्तसम्बन्ध" नामक दोष उत्पन्न होता है। यथा-आईतों में अग्रगण्य तत्वयेत्सा (जिम) देव भाप लोगों को सम्पति-धन-धान्य प्रदान करें। ___टिप्पणी-इस वाक्य में 'आधः' और 'बईताम् शन परस्पर-सम्बन्धी होते. हुए भी एक दूसरे से दूर हैं । अतएव यहाँ पर 'व्यस्तसम्बन्ध' दोष है ॥ १५ ॥
शब्दार्थों यत्र न तुलाविधृताविव सम्मितौ ।
तदसम्मितमित्याहर्वाक्यं वाक्यविदो यथा ।। २० ॥ यत्र बन्धे शम्झाौँ तुलाविभूतादिव न सम्मितौ । यथा तुला विश्रुतौ बन्यो चोः पार्श्वयोने नमतः, सदा सम्मिती । यत्र भन्दा बहवोऽर्थोऽल्पः, वाक्याविदस्तद्वाक्यमम्मितमाटुः ॥२०॥
जहाँ पर पारद और अर्ध संतुलित न हों (अर्थात् शब्द जाल तो दीर्घ हो किम्तु अर्थ छोटा हो) यहाँ पर विद्वान् लोग 'असम्मित' नामक दोष. बतलाते हैं ॥२०॥ उदाहरणमाइ--
मानसौकापतद्यानदेवासनविलोचनः ।
तमोरिपुत्रिपक्षारिप्रियां दिशतु यो जिनः ॥ २१ ।। मानने भोको गृहं यस्य पततः पक्षिणः स मानसौका पतम् ईसः, स एष यानं यस्य
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२८.
वाग्भटाचङ्कारः ।
स चासौ देवश्व मानसीकः पलानदेवो ब्रह्मा तस्यासनं कमलं तद्वन्तत्सचे विशिष्टे लोचने यस्य स जिनो वो युष्माकं तमोरिपुषिपश्चारिमियां त्रिशतु तमोरिपुः सूर्यस्तस्य विपक्ष-रास्तस्यारिविष्णुस्तस्य प्रिया लक्ष्मीस्तो दयात् भत्र शब्दाभ्येऽस्तोकस्वमेव दोषः । 'अप्पक्खर मइत्थं एवं न दोषः । शब्दाल्पत्वेऽर्थे बहुलता गुणाय भवति ।। २१ ।।
मानसरोवर में निवास करने वाला पक्षी ( हंस ) जिसका वाहन है उन ( भाजी ) के आसन ( कमल) के समान होयनों वाले ( अर्थात् कमलनमन जिनदेव ) आप लोगों को अन्धकार के शत्रु (सूर्य) के विपक्षी ( राहु ) के शत्रु (विष्णु) की प्रिया (दमी ) अर्थात् श्री सम्पत्ति प्रदान करें । टिप्पणी- इस श्लोक में दो लम्बी-लम्बी पदावलियाँ हैई-एक है 'मानलोक:पतधान देवासन विलोचन' और दूसरी 'तमोरिविपारिप्रियाम' । इनमें प्रथम, का अर्थ है कमलनयन और दूसरी का लक्ष्मी । ये अर्थ शब्दावली की अपेक्षा अध्यस्त छोटे हैं। अतः शब्द और अर्थ में परस्पर संतुलन न होने के कारण आचार्यों ने इसमें 'असम्मित' नामक दोष माना है ॥ २३ ॥
अपक्रमं
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भवेद्यत्र ।
यथा भुक्त्वा कृतस्नानो गुरून्देवांश्व वन्दते ॥ २२ ॥
यत्र वाक्ये प्रसिद्धक्रमलङ्घनं भवेत् तद्रपक्कनमुच्यते अपगतः क्रमी यस्मात्तदुपक्रममु च्यते । तथादौ स्नानं ततो देवन्द्र ततो गुरुनमस्करणं ततो भोजनमित्यादिक्रमोऽश्रममः ॥ fafe कार्यों के पूर्वापर क्रम की छोकप्रसिद्ध मान्यता का उल्लंघन करके जहाँ पर क्रम में कुछ उलट-फेर कर दिया जाता है, वहाँ पर 'अपक्रम' नामक दोष माना जाता है । यथा ( वह ) भोजन करके स्नानोपरान्त गुरुजनों एवं आचार्यों की वन्दना करता है ।
"
टिप्पणी-- लोकाचार के अनुसार सर्वप्रथम स्नान करना चाहिये, फिर गुरु और देवताओं की वन्दना और तत्पश्चात् भोजनादि अन्य खौकिक कर्म, परन्तु यह कवि ने इस क्रम के विरुद्ध सर्वप्रथम भोजन, तत्पश्चात् स्नान और गुरु तथा देवताओं की बन्दना करना वसलाया है। अतः यहाँ पर 'अपक्रम' दोष मानना चाहिये ॥ २२ ॥
छन्दः शास्त्र विरुद्धं यच्छन्दोभ्रष्टं हि तद्यथा ।
स जयतु जिनपतिः परब्रह्म महानिधिः ॥ २३ ॥
यद्वाक्यं छन्दःशाल विरुद्धं तच्छन्दोभ्रष्टं कश्यते तमेत्युदाहरणे स निनपतिर्भवतु विजयतां परब्रह्मणो महानिधानं स जयतु इत्यय छन्दोभङ्गः । आषादक्षराक्षगणस्य पतनादनुष्टुभ्क्षक्षणं नास्ति । तथा चोकम् ' नाथानसी स्वाताम्' इत्यादि । अधिकारस्तु तत्र वृतरावरच्छन्दसि विल्कनी इति ॥ २२ ॥
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द्वितीय: परिच्छेदः ।
२६
पदि किसी वाक्य के लक्षण निर्दिष्ट लत्तणों के विरुद्ध हो तो उसमें 'पोट' नामक दोष समझना चाहिये। थावे परवर महानिधि जिनपति सदा विजयी हो ।
टिप्पणी- इस श्लोकाऊं में 'स जयति जिनपतिः' अनुष्टुप् छन्द का पाद हैकिन्तु इसमें छन्दःशास्त्रनिर्दिष्ट अनुष्टुप् छन्द का लक्षण नहीं है, क्योंकि अनुष्टुप् का लक्षण इस प्रकार से दिया गया है - 'श्लोके पष्ठं गुरुर्ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम्' इत्यादि । इस नियम के अनुसार उपर्युक्त उदाहरण में जो पष्ठ वर्ण 'न' है उसे गुरु हो साहियान जैसा कि यह पर है। अतः यहाँ 'छन्दोभ्रष्ट' दोष माना गया है ॥ २३ ॥
रीतिभ्रष्टमनिर्वाहो यत्र रीतेर्भवेद्यथा ।
जिनो जयति स श्रीमानिन्द्राद्यमरवन्दितः ॥ २४ ॥ || २४ ॥
एवं बाली रीतिः समासा
जिस वाक्यछन् में किसी रीतिविशेष का यथेष्ट निर्वाह नहीं हो पाता, उसमें रीतिभ्रष्ट नामक दोष उत्पन्न हो जाता है। यथा-इन्द्रादि देवताओं के द्वारा यवनीय श्रीसम्पन उन जिन भगवान् की सदा जय हो ।
टिप्पणी- इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में असमस्त पद होने से वैदर्भी रीति है, किन्तु उत्तरार्द्ध में 'इवाद्यमरवन्दितः' समस्त पद के प्रयोग से गोडी रीति है t एक ही पथ में दो रीतियों का प्रयोग होने से इसमें 'रीतिभ्रष्ट' नामक दोष है ||१४|| पदान्तविरतिप्रोक्तं यतिभ्रष्टमिदं यथा ।
नमस्तस्मै जिनस्वामिने सदा नेमयेऽर्द्धते ।। २५ ।।
या पदान्तरित्या पदमध्ये विरतिर्येतिस्तवा प्रोक्तं तद्यतिभ्रष्टुं कथ्यते । पदान्ते सर्वत्र विरतिः कार्या न तु पदमध्ये यत् परमध्यविरतिप्रोक्तं सत् यतिभ्रष्टमुच्यते । यतिविरता प्रकार्थौ । 'नमस्तस्मै जिंनस्वामित्वर्णपूर्णश्वाश्पदान्तर्गतिः कृता । 'ने' प्रत्यक्षरं चतुर्थपादे पतितम् । नैवं भवेत् । भवेच्च कापि सन्ध्यादिविशेषमात्रात् ॥ २५ ॥
जिस वाक्य में पद के बीच में ही पतिभङ्ग हो जाय उसमें यतिभ्रष्ट दोष समझना चाहिये । यथा-उन जगत् के स्वामी अर्हत नेमिनाथ भगवान् को हम लोग सदेव नमस्कार करते हैं ।
टिप्पणी- इस वाक्य को पढ़ने से 'जगरस्थामि' के पश्चात् प्रतिभङ्ग हो जाता है और 'जगत्स्वामिने' पद का 'ने' अंश दूसरे पाद के साथ जोड़ना पड़ता है - इसलिये पद के मध्य में ही (न कि पदान्त में ) यतिभत होने के कारण 'यतिभ्रष्ट' दोष स्पष्ट है ॥ २५ ॥
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वाग्भटालङ्कारः। सक्रियापदहीनं . यसदसक्रियमुच्यते ।
यथा सरस्वती पुष्पैः श्रीखण्डघुसणः स्तवैः ।। २६॥ असती किया यत्र वाक्ये तरिक्रयापदविहीनमसक्रियमुच्यते । यथाई सरस्वती पुष्प , रर्चयामि औखण्ड घुसृणैवि लिम्पामि स्तः स्तोमीत्यादिक्रियाणाममावादसस्क्रियस्वम् । तथा न विद्यते सती मङ्गलार्धा क्रिया यशनमार्थाश्रयणादमादित्याही चित्र 'दोषः यथा
'मा मुजकास्तरङ्गिण्यो मृगेन्द्राः करदन्तिनः ।
भवन्तं वत्स सम्प्राप्त पन्थानः सन्तु ते शिवाः ।। पत्र हे वास, मुजमा मा धोक्षः, सरङ्गिग्यो मा नैपुः, मृगेन्द्रा मा दार्पः, करदन्तिनो दुष्टगजाः पथि त्वां मा भैसरित्याचमनलाकियाहीनत्वेनापि न दोषः । यदि प्रान्त 'हे वत्स, ते तव पन्यानः शिवाः सन्तु कल्याणा भवन्तु' सि मङ्गलगक्रिया प्रयुक्ता । क्रियागुप्लेषु पुनरसत्कियामासत्वमेध, गुप्तायाः क्रियायाः सम्झावात् । यथा---
__'राजेन्द्र करपालोऽयं कीर्तिपण्याजनारतः ।
मुजाल्यातमूर्तिस्ते द्विषछोहितकुमैः ।। इत्यत्र मुजातीति क्रियाप नष्टप्रायम् ॥ २६ ॥
जिस वाक्य में कोई क्रियापद ही न हो उसमें 'मसरिया' नामक दोष . समयमा चाहिये । यथा-पुष्पों से, चन्दन से, कुंकुम से और स्तुतियों से मैं सरस्वती की पूजा करता हूँ)। _____77- इस वाक्य में 'पूजयामि' क्रियापद के न होने से 'असरिक्रया' नामक दोष पा गया है ॥२५॥ उक्ता भावपि वाक्यदोषः । अथ वाक्यस्यादोषानाप
देशकालागमावस्थाद्रध्यादिषु विरोधिनम् ।
वाक्येष्वर्थ न बनीयाद्विशिष्टं कारणं विना ॥२७॥ बाक्पार्थविद्रः पुरुषा वामयेषु देशविरोधितोऽस्तिथा कालविरोधिन भागमविरोधिनोडपस्याविरोधिन आदिशग्वालोकविरोपिनोडन्यान् विशिष्टं कारणं विना न रथैयुः ।।२७||
पेश, काल, शास्त्र, अवस्था और दूग्यादि के विरुद्ध पर्थ को प्रतिपादित करने वाले काव्य की रचना बिना किसी कारणविशेष के नहीं करनी चाहिए (क्योंकि इससे काव्य दृषित हो जाता है)॥ २५ ॥ सर्वेषामुदाहरणम्फस्मिन्काव्ये प्रदश्यन्ते
प्रवेशे चैत्रस्य स्फुटकुटजराजीस्मितदिशि
प्रचण्डे मार्तण्डे हिमकणसमानोरुममहसि
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द्वितीयः परिच्छेदः ।
जलक्रीडायातं मरुसरसि बालद्विपकुलं
मदेनान्यं विध्यन्त्यसमशरपातैः प्रशमिनः ॥ २८ ॥ यथा प्रशमिनः क्षमापराश्चैत्रस्य चैत्रमासस्य भवेशे मार्तण्डे सूर्य प्रचण्डे सति मरुसरसि मरुस्थलोसरोवरे जलकोडाया पानीयको डार्थमागतं मरेनान्धं बाळ द्विपकुलं कलभसमूह असमशरपातै विषमवाणप्रकारं त्रिष्यन्ति । किंभूते चैत्रप्रवेशे । स्फुटकुटनराजीस्मितदिशि स्फुटाः प्रकटाः कुटजास्तेषां राजी श्रेणिस्तया स्मिता दसिता दिशो यत्र प्रवेशे । किंभूते मार्तण्डे । हिमकणसमझे एक स्मिता रिसाव कुटज मवन्ति, न बसन्ते इति कालविरुद्धम् । मार्तण्टे दिभंशीतलता इति द्रव्यविरुद्धम् । मस्सरसि जलकीढा इति देशविरुद्धन् । बालद्विपान मदान्धतेत्यवस्थाविरुद्धम् 1 प्रशमिनो विष्यन्तीत्यागमविरुद्धम् ।
यत्र तु विशिष्टं कारणं तत्र न दोषः । यथा
३१
'तरिनारीनयनाश्रुवारिमिनंरेन्द्र निर्मूलित पचत्रलिभिः ।
सरांसि सत्कज्जलक माविलान्युचैर जायन्त मरुस्थीष्वपि ॥' यादि भदोषः । एवं सर्वत्र भावनीयम् ॥ २८ ॥
प्रफुलिस मकिापति से सुशोभित दिशाओं से युक्त चैत्र मास के आगमन पर हिमकण के समान उष्ण सेजवाले प्रचण्ड सूर्योदय के समय मरुभूमि के सरोवरों में जकीवा के हेतु आये हुये मतवाले हाथियों के बच्चों को सदैव शान्त - रहने वाले ( मुनिजन ) विषम शरों से बेधते हैं ।
टिप्पणी- उपर्युक्त श्लोक में चैत्र मास में सूर्य की प्रचण्डका समम विरुक्ष, मरुभूमि में सरोवरों का होना देशविरुद्ध, हाथियों के वर्षों का मदान्ध होना अवस्थाविरुद्ध तथा तीक्ष्ण ग्राणों से मुनिजनों के द्वारा हाथी के बच्चों को मारना शास्त्रविरुद्ध है । इसीसे यह काव्य दूषित हो गया है ॥ २८ ॥
इति दोषविषनिषेकर कलङ्कितमुज्ज्वलं सदा विबुधैः । ऋविहृदयसागरोत्थितममृतमिवास्वाद्यते काव्यम् ॥ २६ ॥ 'विदुषैः सदा कविहृदयसागरोत्थितमनृतं देवेरास्वाद्यते इत्युक्तिलेशः ॥ २९ ॥ इति वाग्मटालङ्कार टीकायां सिंहदेवगणकृतायां द्वितीयः परिच्छेदः । Oaxeso
ऋषियों के हृदय सिन्धु से निकले हुये दोषरूप विष से अकलङ्कित अमृततुल्य काव्य रस का पान विद्वज्जन सर्वे
॥ द्वितीय परिच्छेद समाप्त ॥
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'मुक्त होने के कारण किया करते हैं ॥ ५९ ॥
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तृतीयः परिच्छेदः अदोषायपि शब्दाथों प्रशस्येते न थैर्षिना। तानिदानी यथाशक्ति मोऽभिव्यक्तये गुणान् ॥ १॥ औदार्य समता कान्तिरर्थव्यक्तिः प्रसन्नता ।
समाधिः श्लेष ओजोऽथ माधुयं सुमारता ।। २ । दोषरहितावपि शब्दार्थों यंगविना म प्रशस्य से । पानी तान् गुणान्यधाशक्ति शक्तिमनतिक्रम्य यथा भवति तथा अभिव्यक्तये स्पष्टतानिमित वदामः । कवित्वस्यौदादियो दश पश्य माणा गुणा भवन्ति । नामान्यपि दशानां सुगमानि । तथा अभिव्यरुये इत्यत्र तादध्ये चतुर्थी । तेन वद्यपि दोशणामभावो गुणान्साधयति तथापि कति ते गुणाः किनामानः किस्वरूप इत्यभिव्यक्तिर्न स्यात् । अतोऽभिव्यक्तिनिमिश वदामः ॥ २॥ .. जिन (औचित्यादि गुणों ) के विना (अनर्भकत्यादि) दोषहीन भी शब्द और अर्थ श्रेष्ठत्ता को प्राप्त नहीं हो सकने उन गुणों को यथाशक्ति स्पष्ट काने के लिये उनका वर्णन किया जा रहा है ॥ . उदारता, समता, कान्ति, अर्थव्यक्ति, प्रसनता, समाधि, श्लेष, भोज, माधुर्य और सुकुमारता-ये दश गुण हैं ॥ २॥ प्रत्येक सोदाहरणार्थानाह
पदानामर्थचारस्वप्रत्यायकपदान्तरैः ।।
मिलितानां यदाधानं तदौदार्य स्मृतं यथा ।। ३ ॥ यदर्थचारुलप्रत्यायकपदान्समिलितानामर्थरम्यत्वोत्पादकापरपदैः संयोजिताना पदानामाधान करणं तदौदार्य स्मृतम् ॥ ३ ॥
अर्थ की चारुता के प्रत्यायक पद के साथ वैसे ही अन्य पदों की सम्मिलित योजना को 'उदारता' नामक गुण कहते हैं ॥ ३ ॥ उदाहरणमाह--
गन्धेभविभ्राजितधाम लक्ष्मीलीलाम्खुजच्छचमपास्य राज्यम् । फ्रीडागिरौ रैवतके तपांसि श्रीनेमिनाथोऽन्न चिरं चकार ।। ४ ।।
श्रीनेमिनायोन क्रीडागिरी रेवत के चिर तपसि चकार । राज्यमपास्य त्यक्त्वा । कथंभूतं राज्यम् । गन्धेमैन्धवस्तिमिस्त्रिाजितं शौमितं धाम गेदं यस्मिस्तत् । लक्ष्मीलीलाम्मुजं लीलाक्रमलं यादृम्मबत्ति पर्वविर्ष छ यस्मिराज्ये तशक्ष्मीलीलाग्जच्छत्र । अप्रेमकमलगिरिशदानां गन्धलीलाको हापदे मिजिताना सत्तामर्थरम्यत्वोत्पादकत्वादोदाम् ।
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सुखीयः परिच्छेषः।
भकमलगिरिशहाना नलानां तावशी न शोभा यातनी गन्धकीला क्रीडापदान्तरः संयोजिताना पवति 1 एसौगायमुख्यने ।। ४ ||
श्रीनेमिनाथ महाराज ने गंधगजों से सुशोभित निवासस्थान और लचमी के क्रीडाकमली से निर्मित छत्रयुक्त (अर्थात् ऐचर्य से परिपूर्ण) राज्य को छोर कर चिरका चमतक नाप पर्वतमा मिना:
टिप्पणी-इप लोक में चाताप्रस्यायक 'गन्ध' शब्द के साथ जन्म सुम्बर पर 'इम', 'कीलाम्बुज' शब्द के साथ 'चत्र' और 'की' शब्द के साप 'गि पार में पाया का मापान करते हैं। अतः इसमें 'औधाप' नामक गुण है। समता कान्ति बैंकको के नाम
बन्धस्य यस्यैषम्य समता सोच्यते बुधैः ।
यदुज्वलत्यं तस्यैव सा कान्तिसदिता यथा ।।५।। बन्यस्य पदवेपन्याविषमता सुकमारना सा समता मता। तस्येव बन्धस्य यदुबलवं निर्मकता सा काग्निच्यते ॥ ५॥ ___ बन्ध में पदों के अविषम होने पर जो गुण उत्पन्न होता है उसको 'समता' कहते हैं। और विरुद्ध पन्धि आदि दोनों के स्याग से बन्ध में उबलता था जाने पर कान्ति' गुण उत्पन्न होता है ॥ ५॥ उदाहरणमाह
फुचकलशविसारिस्फारलावण्यधारा
मनुवदति यदनासचिनी हारवलिः । . असशहिमानं तामनन्योपमेयां
कथय कथमह ते घेतसि व्यञ्जयामि || ६ ॥ सा कोदशी वियते पनि केनापि को-पि पाः सन्नुवाच -- मोः, कभए । अहं तां से सब चेतसि का न्यायामि कार्य प्रकटीकरोमि | अनन्योभमैयां श्रन्यामिनधिमीयते इत्यनन्योपमेया नाम् । सोत्तमरूपाभियर्थः । अनशमहिमानं सन्माहारम्याम् । यतकामानिनी बारवलिः यस्या अलमा हारम्ना कुनकलशबिमारिम्फारलावण्यवागमनुवदत्यनुकरोति । कुचबालयाम्मो सनकुभा दिपारगी प्रसरणशाला स्फारोदारा लायधारा सामनु. करोति पर्वविधरूपा न फर्थ व्यायानयित्वा से चेतसि प्रकटयामि । अनोत्कट पदामावासम्पदामाषाच भभवन्धत्वान समता काथिना । पप समतागुणो दिनीया।। ६ ||
जिस (नायिका) के सस्पल पर लिपटी हुई माला कुम्भ के समान पोन कुचों पर फैली हुई सौन्दर्यामा का अनुकरण करती है, उस बसाधारण महिमा से घुजीर निरुपमा सुन्दरी का वर्णन में किस प्रकार से आपके सम्मुख करूं। टिप्पणी-पहाँ पर 'कुच के साथ 'कलमा', 'बिसारिके साप 'स्मार' मावि ३ का लं
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वामदालङ्कारः। ऐसे पदों का प्रयोग किया गया है जिनसे प्रतीत होता है कि इस स्थान पर यही शब्द स्वाभाविक रूप से जाना चाहिम था। इन पदों के प्रयोग से अन्य में उरपा मधुरिमा से 'समता' नामक गुण माना गया है ॥६॥
फलैः क्लुप्ताहारः प्रथममपि निर्गत्य सदना
दनासक्तः सौख्ये कचिदपि पुरा जन्मनि कृती। तपस्यमत्रान्तं ननु वनभुवि श्रीफलदले
रखएडैः खण्डेन्दोश्चिरमकृत पादार्थमनसौ ॥ ७॥ कस्यापि धनिनो वर्णनमेतत् । असावनिर्दिष्टनामा कृती पुरजन्मनि पूर्वमवे क्वचिकुत्रापि मनु निश्चितं वनभुव फाननभूमौ श्रीफलदलविरबदलैः खण्डेन्दोहास्य पादार्चनमकृत चकार । कथम्भूतोऽसौ । सदनातहानिर्मत्य प्रथममपि फलैः कप्ताहारी रचितभोजनः । अत एव-सौख्येऽनासक्तः। अवान्तमम्वेदं यथा भवति तथा तपस्यन् तपः कुर्वन् । ततोऽनेनेशी लक्ष्मीः प्राप्ता । श्रय विमधिरूपसधिविसर्गलीपप्रभूतिबन्धाग्लानिकारणाभापादोज्ज्वल्यं तृतोयो गुणः ॥ ७ ॥
पूर्वजन्म के सुकृती उम (ध्यक्ति)ने जो केवल फलाहारी है तथा जो सुख में सनिक मी प्रासक नहीं है, घर से निकलकर वर-प्रदेश में निरन्तर नप करते ध्ये पूर्ण विश्वपत्री से शशिशेस्वर शिवजी के पानी की चिरकाल तक पूजा की।
टिप्पणी-विरूद्ध सम्धि के त्याग से 'फल: क्लुप्ताहारः' में विसों के अलोप से और समानहीन होने से इस श्लोक में 'कान्ति' नामक गुण है ॥ ७॥
यदशेयत्वमर्थस्य सार्थव्यक्तिः स्मृता यथा ।
त्यसैन्यरजसा सूर्ये लुप्ते रात्रिरभूदिवा ॥८॥ युवर्थस्याशेयल तत्तच्छब्दसत्तया माझादप्रतिपादनेन बलात्कारार्थाप्राप्यत्वं अर्थस्य सुखेन गम्यत्वम् । अल्प बन्धेनापि तादृशाः शब्दाः प्रयुज्यन्ने यादृशः साक्षादर्थों लभ्यते सा अर्थव्यक्तिया । है नरेन्द्र, त्यान्यरजमा सथै लुम दिवसे रात्रिरभूत् । अब रात्रैः सूर्यलोपः सूर्यलोपस्य हेतू रजः रजसो हेतुः सैन्यमित्यर्थस्य खलभ्यत्वाशयानम् ॥ ८ ॥
जहाँ पर प्रर्थ को समझने में किसी तरह का विघ्न नहीं रहना वहाँ 'अर्थध्यहि गुण समझना चाहिये । यथा-आप की सेना के (गमन के) कारण जो धूलि छा गयी है लससे सूर्य छिप गया है और दिन रात्रि में परिणत हो गया है।
टिप्पणीसूर्यास्त होने से रात्रि का आगमन स्वाभाविक है। इसको समासने के लिये किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं होती है। अतएव इस पन में 'मर्थम्याकि' भामक गुण है ॥ ८॥
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तृतीयः परिच्छेदः ।
व्यतिरेकमाइ – यत्रार्थस्य शेयता तत्र शेषः । यथा
चतुर भवत्सैन्ये प्रसर्पति दिशः क्रमात् । नरेन्द्र बहुलवाता दिषाच्या विरभूनिशा ॥ ६ ॥
३५
अत्र रात्रेर्हेतुः सूर्यलोपः सूर्यकोपस्य हेतू रजः रजसो हेतुः सैन्यमित्यादिदेोरभावार्थस्य शेयत्वम् । ध्वंसोधना ( बा ) । नतु एव गुणः ॥ ९ ॥
हे राजन्! आपकी चतुरंगिणी सेना के क्रमशः दिशाओं तक पहुँचते ही दिन में ही घने अकारवाली रात प्रकट हो गई।
।
यहाँ पर रात्री के आगमन के हेतु का उल्लेख नहीं किया गया जिसके कारण अर्थ समझने में बाधा पहुँचती है। अतः यहाँ अर्थव्यक्ति गुण नहीं समझना चाहिए ॥ ९ ॥
झटित्यर्थापत्यं यत्प्रसत्तिः सोच्यते बुधैः ।
कल्पद्रुम इवाभाति वाच्छितार्थप्रदो जिनः ॥ १० ॥
यत् झदिति शीघ्रनपिकत्वं सा प्रसिरुच्यते । यथा कल्पद्रुमादिपदानामुश्चारणमात्रै मेवापकत्वात्प्रसतिरुच्यते । एष पत्रम गुणः ॥ १० ॥
जिस गुण के कारण शीघ्र — पड़ते ही अर्थावबोध हो जाता है उसे प्रसन्नता' अथक'' कहते हैं। यथा-अभिलषित वस्तु को प्रदान करने वाले जिन देवरु की भाँति सुशोभित होते हैं ।
टिप्पणी- यह कहने से कि जिनदेव कप की भाँति अभिलषित फल के देने वाले हैं उनकी दानशीलता तुरन्त स्पष्ट हो जाती है। अतः यह पर 'अव्यक्त' नामक गुण माना गया है ॥ १० ॥
स समाधिर्यदन्यस्य गुणोऽन्यत्र निवेश्यते । यथाश्रुभिररस्त्रीणां राज्ञः पल्लवितं यशः ॥ ११ ॥
यदभ्यस्य पदार्थस्य गुणोऽन्यपदार्थे निवेदयते स्थास्यते स समाधिगुणः । यवारिश्रीभाभी राशी यशः पचिननिस्यन गुण वृक्षसम्बन्धी स यशस्यारोपितः । पुष
समाधिः ॥ १.१ ॥
जहाँ पर एक वस्तु के गुण का आधान अन्य वस्तु के साथ किया जाता है, वहाँ 'समाधि' नामक गुम होता है। यथा- शत्रुओं की स्त्रियों के अश्रुओं से राजा का या पति हो गया हो गया ।
टिप्पणी- पल्लवित होना लाक्षादि का गुण है, न कि यश का किन्तु कवि ने पति होने की विशेषता को राजा के यश में नियोजित करके 'समाधि' गुण उत्पन्न कर दिया है | १३ ॥
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वाग्भटालङ्कारः। अथ शेषौजोगुणायमेकश्लोकोनवाह
श्लेषो यत्र पदानि स्युः स्यूतानीव परस्परम् ।
ओजः समासभूयस्त्वं तद्गद्यावतिसुन्दरम् ।। १२ ।। पृथग्भूतान्यपि पदानि रत्र सूताना गिनातानी समस्तानीव परस्परं भवन्ति स इलेषगुणः । यत्सनासभ्यरत्वं समासनाचुगं भवति स भोजोगुणः । तत्समारभूयावं गधेपु गयबन्धेष्यतिसुन्दरं भवति ।। १२ ।।
जिस अलंकार में अनेक पद परस्पर संश्लिष्ट रहते हैं वहाँलेप' गुण होता है; और समासबहुला पदावली से 'खोज' गुण उत्पन्न होता है। किन्तु समास. बहुला पदावली गय में ही शोभित होती है, पन में नहीं ॥ १२ ।। श्लेषोदाहरणमाइ--
मुदा यस्योद्गीतं सह सहधरीभिर्वनचरै
मुहुः श्रुत्वा हेलोद्धृतधरणिभारं भुजबलम् । दरोद्गच्छदर्भाकुरनिकरदम्भात्पुलकिता_श्चमत्कारो के कुलशिखरिणस्तेऽपि दधिरे ॥१३॥ तेऽपि कुलशिसरिणः कुलाचला यस्य राशी भुमचलं सई सहचरीभिः सह पत्नीभिर्वगचरैमिलमुहारवार नुदा इर्षेणोद्गीतं व्याख्यातं श्रुपा चमत्कारोंदेक चमत्कारबाशुल्म दधिरे । पाथ भूताः पर्वताः । दरोगर्भावनिकरदम्भात्पुलकिताः ईदुल्पचमानकुझा करसमूहमिषाद्रीमा चिताः । एष इलेषगुणः सप्तमो भवति ॥ १३ ॥
सहचरियों से युक्त वनसरों के द्वारा इस (राजा) के उस भुजबल के यश का गान सुनकर जिससे उसने पृथ्वी के भार को वहन किया था, थोड़े से निकले हुये वर्भारममूह के दंभ से पुलकायमान (महेन्द्रनिषधादि) कुलपर्वत भी माश्चर्य में पर गये । श्रभिप्राय यह है कि प्राणी ही नहीं जड वस्तुयें भी राजा के भुजबल की कीर्सि से चकित हो जाती हैं।
zuf ---इस श्लोक में 'मुदा यस्योद्गीतं' भादि जितने पद हैं वे एक सूत्र में पिरोई हुयी भगिर्यो की भाँति शोमित हो रहे हैं, क्योंकि इसमें कोई भी पद ऐसा नहीं है जो दूसरे के साथ अस्वाभाविक और प्रयाम्छनीय हो । ऐसा प्रतीत होता है कि एक के बाद दूसरा पद अमायास ही निकाल पाता है। अतः सभी पदों के परस्पर संश्लिष्ट होने से यहाँ पर 'श्लेष' गुण है। कुलपर्वत ... सात है-महेन्द्र, निषष, सह, शुक्तिमान् , पारिमान, धिम्य और हिमाचल ॥१३॥ श्रथ गवरन्धेन प्रोजो गुणमा
समराजिरस्फुरदरिनरेशकरिनिकरशिरःसरससिन्दूरपूरपरिचयेनेवारणितकरतलो देव ॥ १४॥
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तृतीयः परिच्छेदः। हे देव, त्वमरुणितकरतलो रक्तोकृसहस्ततलो विभासि । उत्प्रेशले-समराजिरे संग्रामागणे स्फुरन्तो येरिनरेशानी करिनिकरा इसिसम्हास्तेषां शिरसप्तरससिन्दूरपूरस्तस्य परिचयेनेवारणितकरसलः ॥ १४ ||
हे राजम् ! समराङ्गणा में फड़कते हुए शत्रुराजाओं के हस्तिममूह के मस्तक पर छगे हुए सुन्दर सिन्दूर के संसर्ग से लाल-लाल हथेलियों वाले माप शोभित हो रहे हैं।
रिपणी-- गणेश समायमहुल होने को मोज गुण का जन्दाहरण है ॥१॥ अथ माधुर्यसौकुमार्यगुगावाह
सरसार्थपदत्वं यत्तन्माधुर्यमुदाहृतम् |
अनिष्ठाक्षरत्वं यत्सौकुमार्यमिदं यथा ।। १५ ॥ ___ यत्सरमार्थपदत्वं नदिई माधुर्य कथितम् । अर्थाश्च पदानि चार्थपदानि रससहितान्यर्थपदानि यत्र तद्भावः । अथवा सरसानि पदानि तद्भावः सरसार्थपदत्वम् ।। १५ ।।
सरस अर्थ के प्रत्यायक पदों के प्रयोग से 'माधुर्य' गुण उत्पन्न होता है; और जहाँ अनिष्ठर (कोमल) वर्गों का चालुक्य होता है यहाँ 'सौमार्य' गुण समझना चाहिये ॥ १५ ॥ बदाहरणमाइफणमणिकिरणालीस्यूत चश्चनिचोलः कुचकलशनिधानस्येव रक्षाधिकारी। उरसि विशदहारस्फारतामुजिहान क्रिमिति करसरोजे कुण्डली कुण्डलिन्याः।।
किमितीनि वितर्के । शिमयं कुण्डलिन्धाः भावत्याः नारसरो फरकमले कुण्डली सर्पः कुचकलशनिधातस्य रक्षाधिकारोवास्ति। अन्यत्रापि निवानस्थ पणे रक्षा करोति । अत्रापि सनकुम्भा पत्र निधानानि तद्रमाकनास्ति । मामणीना किरणान्या स्यूनो निवश्वबन्दीप्यमानो निचोलः क को यस् मर्पस्य मः । उरति विशारतां प्राप्नुवन् । तत्तुल्यता दधान इत्यर्थः ॥ १६ ॥
(कोई रसिक नायिका के हाथों में हार को देखता है तो उसे सर्प की भ्रान्ति होती है और वह शसा करता है कि) फणमणि की किरणालियों से प्रकाशमान केंचुल को धारण करने वाला, कुम्भ की भौति उसत एवं पीन कुचों में स्थित (सौन्दर्य से) कोप की रक्षा करने वाला और वक्षःस्थल पर पड़े हुए हार की भाँति सक्छुसा और उज्जवलता को प्राप्त करने वाला कुपदलादि आभुपणों से मण्डित यह सर्प इस कामिनी के कर कमलों में कहाँ से आ गया।
टिपणा--इस श्लोक में जितने पदों का प्रयोग किया गया है वह सभी सरस अर्थ के बोधक हैं अतः यहाँ 'माधुर्य' गुण हुआ ।। १६ ॥
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वाग्भटालङ्कारः। सौकुमार्यमाधोदाहरणं चारप्रतापदीपाजनराजिरेव देव वदीयः करवाल एषः । नो चेदनेन द्विषतां मुखानि श्यामायमानानि कथं कृतानि ।। १७ ॥ हे देव, एष त्वदीयः करयाल, प्रतापदीपाजनराजिरेत्र वर्तते । प्रताप एव दीपो दीप्यमानस्वात्तस्य प्रतापदीपस्य खड्दोऽबनरानिरवनश्रेणिरतिकृष्यत्वारसङ्गस्य । यथेच पूर्वोक्तं न
मारनेनझेन विपला सम्मानि मामानानि झ्याम्मानमा नरन्ति कथं कृतानि | अत्रा. निष्ठुरसमाप्तवत्वात्सौकुमार्यम् ॥ १७ ॥
हे राजन् ! भापकी यह कृपाण तेअरूप दीपक से उत्पन काजल ही है। नहीं तो इसने विषियों के मुख को काला कैसे का डाला !
विमणी- इस श्लोक में कवि ने 'करवाल की कठोरसा का वर्णन किया है, अतः उस फर्कश शब्दों का प्रयोग ही करना चाहिये था। किन्तु वह कठोर से कठोर वर्गों की सहायता से भी कृपाण की कठोरगा को नहीं बता सकता। इसीसे उसमे विवश होकर सभी कोमल वणों का आश्रय लिया है। इससे कृपाण की कठोरता स्पष्ट प्रतीत हो जाती है। कोमल पणों के प्रयोग से यहाँ पर 'सौकुमार्य' नामक गुण है ॥ १७ ॥
गुणरमीभिः परितोऽनुविद्धं मुक्ताफलानामित्र दाम रम्यम् । देवी सरस्वत्यपि कण्ठपीठे करोत्यलकारतया कवित्वम् ॥ १८ ॥ अमीमिरीदायर्यादिभिः परितः समन्ततोऽनुविन व्याप्तं कवित्वं देवी सरस्वत्यपि अलकारतया करोति मुक्ताफलानां दामेव । यथा मुक्ताफलानां मालालंबारतया कण्ठपीटे योषया क्रियते सा परिती गुणैरनुविधा मनसि तथा कवित्वमलकारतया कण्ठपी क्रियते । अतोऽलङ्काराषसरस्वतस्तानेव नामतः हद ॥ १८ ॥ इति वाग्मटालकारीकायां सिंहदेवगणितायो तृतीयः परिच्छेदः ।
---CORROC-----
देवी सरस्वती (अथवा वाणी) उपयुक औदार्यादि गुणों से सम्यक रूपेण गुथे हुए काम्य को मोतियों के दानों से पिरोई हुई माला की भाँति आभूषण रूप से अपने कण्ठ में धारण कर लेमी हैं (अर्थात् ऋषि की वाणी गुणसम्पन्न निर्दुए काष्य को ही अङ्गीकार करती है, दूपिस काम्य को नहीं), १८ ६
___॥ नृमीय परिच्छेद समास ॥
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चतुर्थः परिच्छेदः दोषैर्मुक्तं गुणैर्युक्तमपि येनोज्झितं वचः ।
स्त्रीरूपमिव नो भाति तं खुवेऽलंक्रियोचयम् ।। १ ।। येनालंकियोभनालङ्कारसमुदायेनोजितं त्यक्तं वचो नो भाति । यथा श्रीरूपमलंक्रियोवयं विना नो मवति । काम्पविषये विश्वको पत्यादयोऽलकाराः। श्रीरूपविषयेऽलझारा: कटककेयरतिलकादयः ॥ १॥
अनर्थकस्यादि दोषों से रहित और प्रौदार्यादि गुणों से युक्त (किन्तु मलकारहीन) होने से भी काव्य कान्ताकान्निवत् शोभित न होने के कारण त्याज्य होता है। अतः अलारसमूह का काम किया जा रहा ॥
चित्रादयोऽल क्रिया अलंकारा विविश्वाः-शब्दालारा अर्थालङ्काराश्च । ततः प्रथम शम्दालकारस्ततोऽर्थालकारान्प्राइनाममात्रः पश्चाद्विस्तरतः सोदाहरणानाए--
चित्रं वक्रोक्त्यनुप्रासो यमकं ध्वन्यलंक्रियाः । अर्थालककृतयो जातिरुपमा रूपकं तथा ॥ २॥ प्रतिवस्तूपमा भ्रान्तिमानाक्षेपोऽथ संशयः । दृष्टान्तव्यतिरेको वापद्धसिस्तुल्ययोगिता |॥ ३॥ उत्प्रेझार्थान्तरन्यासः समासोक्तिर्विभावना । वीपकातिशयौ हेतुः पर्यायोक्तिः समाहितम् ।। ४ ।। परासियथासंख्यं विषमः स सहोक्तिकः । विरोधोऽवसरः सारं स श्लेषश्च समुन्धयः ॥ ५॥ अप्रस्तुतप्रशंसा स्यादेकावल्यनुमापि च ।
परिसंख्या तथा प्रभोत्तरं संकर एव च ॥ ६ ॥ प्रागमीषां नामानि प्रत्यैकमाह -चित्रमित्यादिशोकापचकेन । तथा चित्रादयश्चत्वारोऽपि ध्वन्यलकारा अवगन्तव्याः । अर्थालारा जान्युपमारूपकादयः ॥ ६ ॥
मित्र, वचोक्ति, अनुमाम और यमक- ये पार शब्दाल कार हैं। अलकारों की गणना इस प्रकार की गयी है-(१) जाति, (२) उपमा,(३)रूपक, (४) प्रतिवस्तूपमा, (५) भ्रान्तिमान् , (६) आप, (७)संशय, (८) डटात, (९) व्यतिरेक, (१०) अपहलि, (५५) तुरुपयोगिता, (१२) उस्प्रेषा, (१३) अर्थान्तरन्यास, (१४)पमासोक्ति. (५) विभावमा(६) दीपक, (७) अतिः शयोक्ति, (१८) हेतु, (१५) पर्यायोक्कि, (२०) समाहित, (२१) परिति, (२२) अथासंकप, (२३) विषम, (२४) सहोकि, (५५) विरोध, (२३) भवसर,
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वाग्भटालङ्कारः ।
(२७) सार, ( २८ ) संश्लेष, (२१) समुचय, (२०) अप्रस्तुतप्रशंसा, (३१) एकावली, (१२) अनुमान, ( ३३ ) परिसंख्या, (३४) प्रश्नोत्तर और (३५)
सङ्गर ।। २-६ ।।
ore चित्रादीनामङ्काराणा सोदाहरणानि लक्षणान्याह - यत्राङ्गसन्धितद्रूपैरक्षरैर्वस्तुकल्पना
1
सत्यां प्रसत्तौ तचित्रं तश्चित्रं चित्रकृश्च यत् ॥
यत्र बन्धे वस्तुतपना पदार्थघटना मङ्गसन्धितद्रूपैर शरे भवति । वस्तुनः कमलच्चाम रमन्वादेर्घटना वस्तुनोऽङ्गार्ना ये सन्धयस्तेषु सद्रूपाणि तान्येवाक्षराणि वस्तुकमध धादिङ्गानि कमलानानि दलादीनि । छशाङ्गानि दण्डपट्टिकादीनि तेषामङ्गानां ये सन्धयस्तत्र सदृशाक्षराणि कार्याणीत्यर्थः । तच्चित्रमुच्यते । यच चित्रकृदाश्चर्यकारि दुष्करत्वेन कविप्रद्यातिशयव्यापकं भवति एकस्वरात्रिकभैकव्यञ्जनादिकं वा तदपि चित्रमुच्यते । परमपि यथाचित्रं प्रसौ सत्यां प्रसत्तेरेव काव्यविधेयम् । अप्रसत्तेस्तु काः को नाम चित्रकविर्न भवेत् । चित्रमा कार गतिस्त्ररत्यक्षनभेदाश्चतुर्विधं भवति । माकारचित्रं पद्मच्छत्र नामरस्वस्तिककलशयाविधैरनेकधा । गतिचक्रं गोमूत्रकार गगनपद । दिभिर्भवति । स्वरेण स्वराभ्यां स्वरैव चित्रं स्वरवित्रम् । स्वरत्रयं यावविषकन्य दुष्करत्वं सम्भवति । स्वरया - दूर्ध्वं किं चित्रम् । तथा मात्राच्युतविन्दुच्युतावपि स्वरचित्रमेदः । तथा व्यञ्जनचित्रं एकव्यचनद्दिव्यचनविण्यझन चतुर्व्यञ्जनवन्धं यावद्ववचनचित्रम्, तत्परं सुकरत्वात् । अक्षरच्युतकं व्यनचित्रभेदः ॥ ७ ॥
जिस पद्यबन्ध में अङ्गसन्धिरूप अक्षरों से प्रसाद-गुणयुक्त अर्थ की कल्पना की गई हो उसे चित्रालङ्कार कहते हैं। इसे 'चित्र' इसलिये कहते हैं क्योंकि इस में की गई रचना ( पाठक को ) आश्चर्य चकित कर देती है ॥ ७ ॥
आकार चित्रमाह
जनस्य नयनस्थानध्वान एनच्छिनस्विनः ।
पुनः पुनर्जितः पीनज्ञानध्वानघनः स नः ॥८॥
सजिन इनः स्वामी नोऽस्माकमैनः पापं पुनः पुननिकिंभूतो जिनः । जनल्प नयनस्थानध्वानः । जनस्य लोकस्य नयनस्थाने ज्वानो ध्वनियस्य स तथा । जिनध्वनिना आगमरूपेण नयनेनैव जनः परटोकं पश्यतीत्यर्थः । तथा पीनं स्फारतरं ज्ञानध्वाने एव धनं यस्य स तथा षोडशदष्टं कगलं गोमूनिका चित्रन् ॥ ८ ॥ समस्त लोक के मयन ही जिनके निर्वाणकारक और महान् ज्ञान-धन ही जिनका एकमात्र धन है इस छोगों के पापों का नाश करें।
बचन हैं, जो सर्वपूज्य हैं वे जिनमगवान् पुनः पुनः
टिप्पणी--इस लोक में से 'जनस्य' इत्यादि पद हैं उनकी सन्धियों में एक
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चतुर्थः परिच्छेदः। समाम वर्ण 'न' होने से 'सिम्र' अलकार है। यह पोखशवल-पप्रबन्ध-मित्र है, किन्तु कुछ क्षाचार्यों के अनुसार गोमूनिका-यन्धभित्र भी हो सकता है। पोशबछ-पभवनम-चिन्न का रूप निम्न प्रकार होता है ॥ ८॥
षोडशदलपद्मबन्धचित्र
18 |
-
नयन स्था
गोमूत्रिकाबन्धचित्र
नए मः| छिन रिच मः --------------
न | ज्ञा न ध्वा न |ध ; नः |रू मः एकस्वरचित्रमाद
गणनरगणवरकरतरचरण परपद शरणगजनपथकथक | अमदन गतमद गजकरयमल शममय जय भयघसवनदहन ||३||
हे गणनरगणवर करतरचरण । गणा कषयो नरा मनुष्याश्च क्रियास देवादयः। गणनराणां गणाः समूहास्तेषां परस्म कल्याणस्य करतरी महाष्टं कल्याणकारी चरणो यस्य स सत्संवोधनम् । संश परं पदं यस्य सः। हे शरगजनपथकथक हे शरणागलोकमार्गनिर्देशक 1 श्रमदन निष्काम । हैं गतमद निर्मद। हे गजकरयमल गजकरो इस्तिशुण्ठादण्डस्लवरकर यमलं यस्य सः । एककरशदस्य छोपः । हे शममय । हे भयपनवनदहन । भयमेव
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बाग्मदाजकार। घने वनं पानीयं तस्य दहन व दानस्तत्संबोधनम् । अत्र मणिगुणनिकर न्यः । चित्रत्यादन्ते गुरूणाममायोडपीह न दोषाय । एक वरचित्रम ॥ ९॥
श्रेष्ठगों के समूह को अनिवास रूम मै सभिलषित फली को प्रदान करने वाले ! श्रीचरणों से युक्त! हे निर्वाण पथ पर चलने वाले मनुष्यों के पथ-प्रदर्शक ! । हे कामनाओं से राति निनहंकारहाहाहन की मौसि सि मानों वाले ! हे शान्तिरूप! है भयरूप गहन वन को वहन करने वाले शषभ देव ! आप की जम हो। ___ टिप्पणी-यहाँ सम्पूर्ण श्लोक में प्रकार के अतिरिक्त आय कोई घर न होने के कारण स्वरचिन्न है ।। ९॥ मात्राच्यूतकमपि स्वरचित्रम् । अतस्तदेवाह
मूलस्थितिमघः कुर्वन्यात्रैजुष्टो गताक्षरैः ।
विटः सेव्यः कुलीनस्य तिष्धतः पथिकस्य सः॥१०॥ स दासीसतो विटः पथि न्यायमार्गे तिष्ठतः कस्य कुलीनस्य रोल्यः स्यात् । न फस्या. पीत्यर्थः । कीदृशः । मूलस्थिति मूलकुलाचारमधः कुर्वन् । तश गताक्षरै मूर्ख पार्जुष्टः। अध विशदस्य इरहितस्यार्थभेदः। स इति प्रसिद्धी विटोनटः पथिकास्य पान्थस्य तिष्ठनो निवर्तमानगतेः कुलीनस्य सदधोभूमायुपनिष्ठश्येत्यर्थः । सेल्यः स्यात् । पान्धस्य गच्छतोऽनुपविष्टस्य कथं वरः सैन्यः स्यात् । ततस्तिष्ठतः कुलीनस्येति विशेषगलयस्य साफल्य आतन् । कोद्वशो वटः । मूलानां जरानामधः स्थिति कुर्थन् । नथा--गृताक्षरः पात्रलष्ट एवं गतमासमन्ताक्षर रणं येभ्यस्तै ताक्षरैः पात्रः पार्नुष्टः ।विटपदादिकारमात्राच्युतक वट प्रति ॥ १० ॥
कृल की मर्यादा का उल्लम कर देनेवाला, निरक्षर (विंचूपक आदि) पात्रों से घिरा हुआ लम्पद व्यक्ति सन्मार्ग पर चलनेवाले किस कुलीन (सत्पुरुष) के द्वारा सेवनीय है किसी के द्वारा भी तो नहीं ।
“विट' शब्द से इकार निकाल देने पर 'वट' शद रह जाने के कारण ही इसमें 'चित्र' है। 'वट' शब्द से इस श्लोक का यह अर्थ होगा
क्षपनी जरों को पृथ्वी के नीचेतक फलाय रखवाला, नवीन पत्ती से कहाहुआ वह वट वृक्ष पृथ्वी पर मंठे हुए पथिक के द्वारा सेघनाय है ॥ १० ॥ तथा निन्थ्यु तकमपि स्वरचित्रम् । तदार---
धर्माधर्मविदः साधुपक्षपातसमुद्यताः ।
गुरूणां वद्धने निष्ठा नरके यान्ति दुःखिताम् ॥ ११ ।। ___ प्रपंविधा नरा नरके दुःखिता यान्ति दुःखमा प्राप्नुवन्ति । धर्ममेवाधर्म या विदन्तीति भोधमविदः । साधुपक्षः सतां पक्षस्तस्य पाते पतने नाशने सगुबताः । गुरूणां पूज्यानो पश्चने निधा आताः । अथ बरन शमाद्विन्दुन्मुवावर्थान्यत्वम्। तया हे नरोत्तम, गुरुगा
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चतुर्थः परिच्छेदः। पित्रादीना वचने निदेशे निधास्तत्पराः के दु:खितां यान्ति । न केऽपौत्यर्थः। कीदृशाः । धर्माधर्मविदः पुण्यपः पश्यक्तिशातारः साधूनां य: पक्षपातः पक्षस्वीकारस्तत्र समुमताः भासक्ताः । वानपदादिन्दुध्युतकं वचन इति ॥ ११ ॥
इस रलोक के दो अर्थ हो सकते हैं-एक 'वचने' से और दूसरा 'वाने से। 'वजने' शब्द के अनुस्वार को हटा देने से नबीम अर्थ की उभावना में ही 'चित्र' है। 'वखने शब्द से इस श्लोक का यह अर्थ होगा___धर्म को अधर्म समझने वाले, सज्जनों के सत्कर्म को नष्ट करने के लिये उग्रत और गुरुपनों के प्रवचन में सतत लगे रहनेवाले मनुष्य दुख का भोग करते हुए नरक के भागी होते हैं। 'वचम' शब्द से इस प्रकार अर्थ होगा--
हे मनुष्य ! धर्माधर्म का विवेक रखने वाले, मजनों के पक्ष को ग्रहण करने नो तथा गुपनों के
करने वाले कौन सत्पुरुष दुभत्र के मागी होते हैं। कोई नहीं ॥
ककाकुकङ्कके काङ्कफेकिकोकैककु: ककः ।
अकुकौकाकाककाकऋकाकुकुककाककुः ।। १२॥ ककाकु इत्येष इलोक एकव्यसनो नैमिनिर्वाणमाकान्ये राजीमतीपरित्यागाधिकार समुद्रवर्णनरूपो शेयः तथा कयाः समृद्रो वर्तने । केन अलेनोपलक्षितः को वायुर्यत्र स ककः । यदा केन वायुना प्रेरितं के जल यत्र स ककः । अथवा कमेव कमारमा यस्य म ककः । समुद्रः कीदृशः। ककाकुकर का कैदिकोकैकाः। के एल यया मत्ति काकुर्वनिषा ते ककायवः । अथवा केन सुखेन जलेन वा काकयो ध्वनिविशेषा येत्रों से ककाकवः । ककावरी का। कड़ा जलपक्षिणः। तथा केका केकारबोधिज्ञ येशे ते केकामाः केकिनो मयुराः I तथा कोकाशकवाकाः। कार्य निथो मेलकः । ककाकुका: केकासकेकिनः कोका पञ्जका अद्वितीया कमियम्य स तथा । तथा-अकुकौक-काककाकः । कवः कुत्सिताः न कत्रोऽभवः शोभनाः कौकसो जलवासिनः काका: 1 शोभनजलवायसा इत्यर्थः । तेषां समूह काकं काकमेव कारकम् । स्वाय धाः। तस्य भका मारा यः समुद्रः स एव पालकत्वान्माला । तथा-काकुकुकवावकः । ऋचो वेदवाक्यानि तेषी काकवी वक्रोक्तयस्ता कुक प्रचारक को प्रक्षा सो उत्सर यस्यासौ अर्थादेव विष्णुस्तस्य कु. स्थान समुदः । जलायनवादस्पेनि ॥ १२ ॥
इस सागर में एकमात्र सुखकारी ध्वनि को अस्पन्न करनेवाले 'क' नामक पचिविशेष तथा 'केका' नामक ध्वनिविवोष से पहिचाने जानेवाले मोर और चक्रवाक पची रहते हैं। और ग्रह समुन उन विष्णु भगवान् का निवास स्थान
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वाग्मटातारा है जिनके अक में निर्मल जल में निवास करनेवाले कोशी को (बलिमहणार्थ) अक्षानेवाले अझाजी विराजमान हैं ॥ १२ ॥
टिप्पणी-यहाँ पर केवल 'क' क्याम से समस्त श्लोक की रचना होने से पिन मारक अलकार है। तकन्यशनच्युतकमपि व्यसनचित्र ततस्तदेवाइ--
कुर्वन्दिवाकराश्लेषं दधचरणडम्बरम् ।
देव यौष्माकसेनायाः करेणुः प्रसरत्यसौ ॥ १३॥ हे देव, यौष्माकसेनाया असौ करेणुगंजः प्रसरति । कोशः । दिवा आकाशेन सह कराएलेषं कुर्वन् । तथा चरणडम्बरं दधत् 1 पक्षे वर्णच्युतकत्वात्ककारलोपे असौ रेणुः सरति । कीशः । दिनाकरण सूर्येण सहाशेष चन् सूर्य यावनच्छन्त्रिस्यर्थः। न समुश्चये । रणडम्बर संभामडम्बरं दधम । करेणुपदात्ककारच्यतकम् ॥ १३ ॥
हे महाराज ! आप की सेना के हाथियों की विशालता को क्या कहा जाय ! थे अपनी बँड से भाकाश का मालिनन-चुम्बन करते हुए और सेना के श्रावम्बर को धारण किये हुप इधर-उधर विचरण करते रहने हैं। _ 'करेणु' शब्द से 'क' निकाल देने से 'रेणु' शब्द शेष रह जाता है, जिससे इस श्लोक का यह अर्थ होता है
है राजनू ! भाप की सेना के चलने के कारण उठनेवाली धूलि श्राकासातक जाकर सूर्य को एक लेती है। और युद्धभूमि में भीषणता उपस करके वह इधरउधर छ। जाती है।
टिप्पणी--इस श्लोक में आये हुए 'करेणु' हा का दो प्रकार से अर्थं किया गया है-प्रथम 'रेणु' शब्द से और दूसरा करेणु के 'क' को हटा देने के कारण 'रेणु' रह जाने से ॥ १३॥
प्रस्तुतात्परं चास्यमुपादायोत्तरप्रदः 1
भङ्गश्लेपमुखेनाह यन्त्र वक्रोक्तिरेय सा ॥ १४ ॥ अत्र कन्धे उत्तर प्रदः पुमान्प्रस्तुतादांदपरं वाच्यमर्थमुपादाय मङ्गश्लेषपदेन बाद वदति सा बोक्तिरेव ॥ १४ ॥
जव उत्साह देनेवाला व्यक्ति (किसी पद को) भन करके अथवा उस (पद) में आये हुए श्लेष के आश्नय से पूछनेवाले के द्वारा प्रस्तावित अर्थ से भिन्न अर्थ के प्रोतक वाक्य का माशय लेकर उत्तर देता है सष 'वक्रोक्ति' महार समाला जाता है। भा और श्लेष से वक्रोक्ति के दो भेद हुए-सभरलेखबमोकि मोर भाषक्षकोकि ।। १ ॥
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चतुर्थः परिच्छेदः ।
मङ्गपदोदाहरणमाह-
नाथ मयूरो नृत्यति तुरगाननवक्षसः कुतो नृत्यम् । ननु कथयामि कलापिनमिह सुखलापी प्रिये कोऽस्ति ।। १५ ।। प्रस्तु भयूरः केकी । बकोक्तौ तु तुरब्रवदनो मधुः किश्वररतस्थोरो वक्षस्तनृत्यति मर्वोक्तम् । तुरगाननस्य वसो नृत्यं कुतः । नाथ, अहं कलापिनं कथयामि ति पत्न्योक्तः । पीता हे प्रिये, कोऽपि भङ्गप प्रस्तुत शब्दस्य खण्डना यथा । मयूरस्य कलापिनो बा १५ ॥
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नृत्य करते हुए मयूर को देकर आश्चर्य चकित नायिका अपने प्रियतम को पुकार कर कहती हैं- 'हे स्वामिन्! मयूर नाच रहा है। प्रियसम ने 'मयूर' शब्द को भक्त करके 'मयु' नामक राक्षस का उर (हृदय) समझने का स्वांग किया और पूछने लगा कि 'अरे ! मयुरासस के हृदय का नाम कंसा ?' नायिका
अपने मन्तब्य को अधिक स्पष्ट करने के लिये मयूर का दूसरा नाम ( कलापी ) लेकर कहा - ' freतम ! मेरा तात्पर्य है कि पिछों को धारण करनेवाला कलापी (मोर) नाच रहा है।' प्रियतम ने नायिका को खिझाने के लिये 'कलापिनः का अर्थ किया सुख से आलाप करने वाले ( 'क' का अर्थ हैं सुख और 'लापिनः ' का आलाप करने वाले ) और फिर एक तीक्ष्ण व्यंग्य से कहा--'"प्रिये ! कहो, यहाँ पर सुख से आलाप करने वाला है हाँ कौन ?"
टिप्पणी... यहाँ पर उत्तरदाता (नायक) ने 'मयूर' और 'कलापिनः' शब्दों को भन करके भिन्न अर्थ से उत्तर दिया है। अन एवं यह सभङ्गश्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण हुआ ॥ १५ ॥
भर्तुः पार्वति नाम कीर्तय न चेत्वां ताडयिष्याम्यहं क्रीडान्जेन शिवेति सत्यमनचे किं ते शृगालः पतिः | नो स्थाणुः किमु कीलको न हि पशुस्वामी नु गोप्ता गवां दोलाखेलनकर्मणीति विजयागर्योोगिरः पान्तु वः ॥ १६ ॥ खेलनकर्मणि क्रीडाकर्मभि इत्येवंभूता विजयानी योग व सुमान्पान्तु विजया गौरी. पृच्छति दे पार्वति मर्तुर्नाम कीर्तय कथय नो चेदनेन क्रीडाकमलेन त्वां तावयिष्या म्यहम् । पार्वश्योक्तम्-स्फुट प्रकटमिदमेतन्मे पतिः शिवः। विजयोचे- -तब पतिः शृगालः
•
नो नो सखि, मे पत्तिः स्थाणुः । किं कीलकस्तव भर्ता । नहि नहि भगिनि मम पति: पशुस्वामी । तव पतिः कि गर्वा गोसा पशुपतिः पशुपाली गोपालकः । हत्याया विजयागौर्योदालन कर्मणि वाचः पान्तु । प्रस्तुतादर्थाच्वादपरं शृगालादिकमर्थमाशय षेण. विजया गौरी मति वदति । इत्येषा शेषपद वक्रोक्तिः ।। १६ ।।
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वाग्भटालाकार। विजया ने पार्वती से कहा- हे पात्रंति ! अपने स्वामी का नाम बताओ, नहीं तो में तुम्ह लीलालटून पार्वती ने सर दिया-'यश्चमुख, मेरे स्वामी शिव-शकर हैं। विजया ने श्लेष से 'शिव' शब्द का अर्थ शृगाल किया और पूछने लगी 'री सरिय! क्या तेरा पति भगाल है ! भोरट्टी-माली पार्वती ने अपने भाव को और स्पष्ट करने के लिये कहा--'नहीं सखि ! मेरे पनि स्थाणु (शिव) हैं।' सनल विजया ने पुनः श्लेष से 'स्थाणु' का अर्थ ट किया और आश्चर्य से कहने लगी---श्री सखि ? तू क्या कहती हैं, वेगपति ट्रैठ है ?' इस पर गौरी लाजत हो गयी। उसने शिव का अधिक स्टोकप्रचलिन नाम 'पशुपनि लेकर कहा'मेरा तात्पर्य है पशुपति शिव से। लेकिन क्रीडा में पत्री हुयी विजया को सन्तोष कहाँ ? उसने कहा-'अच्छा, मो तुम्हारा पनि ग्वाला है ! इस प्रकार हिंडोला मलने के समय कहे गये विजया और गोरी पार्वती के वचन तुम लोगों की रक्षा करें।
टिप्पणी-इस श्लोक में श्लेष के आश्रय से 'शिव', 'स्थाणु' और 'पशुपति' शदों का अर्थ शृगाल, देह और ग्वाला किया गया है। अतः यह अभङ्गश्लेष कर उदाहरण हुमा ॥ १६ ॥ अनुप्रालमा
तुल्यश्रुत्यक्षरावृनिरनुप्रासः स्फुरद्गुणः ।
अतत्पदास्याच्छेकानां लाटानां तत्पदश्च सः ॥ १७ ॥ तुल्या समाना श्रुतिः श्रवणं येषामक्षराण तानि तुल्यअत्यक्षराणि तेषामाकृतिः पुनः पुनरूपावानमनुप्रासः कथ्यते । कीमशः। स्फुरद गुमः स्फुरन्तो बाधिता औदार्यादयो गुणा येन स तथा । सोऽनुप्रासो द्विश-छेकानुनासो हाटानुपासी । का विदग्धाः कजनवलमत्वाच्छेकानुप्रासः 1 लाटजनवलभल्लाछाटानभासः। तथा कानामनुप्रासो-जल्पदः । सान्येव पदानि यत्र तत्पदः न तत्पदोनपदः । अन्यैरन्यैः पदै गत्पन इत्यर्थः । लाटानी तत्पदसौस्तैरेव पनिष्पन्न प्रत्यर्थः ॥ १७ ॥
समान सुनाई देनेवाले अक्षरों की बार बार धावृत्ति हो और माधुर्यादि गणों की स्फुरणा हो तो भनुप्रास' समझना चाहिये । अनुमास दो प्रकार का होता है'छेकानुप्रास', जिसमें केवल एक वर्ण काही प्राप्ति होती है और 'लाटानुप्रास', जिसमें सम्पूर्ण पद की पुनरावृत्ति होती है । १७ ॥ ठेकानुप्रासोदाहरणमाह
अलं कलकनार करप्रसरहेलया | चन्द्र 'चएडीशनिर्माल्यमसि न स्पर्शमसि ।।१०।।
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पार्षः परितोषः। काचिद्विरहिणी चन्द्रमसं प्रत्याइ-कलकार, करप्रसारख्या मलं पूर्यताम् । ३ चन्द्र, चण्डी निर्मात्यमासि स्पर्श नाईसि निर्मात्यस्पशों न युज्यते सताम् । अत्रालं फालयमारकरप्रसरचन्द्रचण्डीशेल्पायत्तत्पदैछे कानुमास इति ।। १८ ॥
कोई विरहिणी नायिका चन्द्रमा से कहती है-'२ लाच्छनविभूषित चन्द्र ! तू अपनी किरणों के प्रसार को क्रीका का बन्द कर दे क्योंकि तू चण्डीश (शिव) के मस्तक से उत्तरा हुभा होने के कारण अस्पृश्य है-कहीं फिर मुझसे न छू जाये ( शिव का निर्मात्य असाझ समझा जाता है)।
टेप्प–प्रथम चरण में 'ल' और 'र' की सथा द्वितीय चरण में 'च' और 'स' की पुनरावृत्ति होने के कारण छेकानुप्राप्त है ॥ १८ ॥
रणे रणविदो हत्वा दातवान्दानद्विषा ।
नीतिनिष्ठेन भूपाल भूरियं भूस्त्वया कृता ॥ १६ ।। हे भूपाल, दानवद्विषा वासुदेवेन रणे संग्राम रणविदः संग्रामनिपुणान्दानपाहस्था इयं भूर्भूः कृता । श्वया नीतिनिधन न्यायनिपुणैन सता ५ भूकता, १६ पुरं पुरमथ जासम् , तथेयं भूर्भूः कृता । अत्र रणे रणविदः, दानवान्दानवदिषा, भूरिय भूरियादितत्पदग्वेनैवानुमासकरणालाटानुप्रासः ॥ १९ ॥
राजन् ! नीति पर चलने वाले दानों के करी आपने संग्राम में रणकुशल देरयों को मार कर इस पृथ्वी को रगर्भा बना दिया है।
शिणी-- इस रलोक में 'रण', 'वानव' और 'भू' पदों की पुनरावृत्ति हुई है। मतः यह 'लारानुप्रास' का उदाहरण है ।। ५५ ॥
त्वं प्रिया चेञ्चकोराक्षि स्वर्गलोकसुखेन किम् ।
त्वं प्रिया यदि न स्यान्मे स्वर्गलोकसुखेन किम् ॥ २० ॥ हे चकोराक्ष, यदि त्वं मम प्रिया जाना तदा स्वर्गलोकातुखेन नाकलोकनुसन मम किम् । यदि च त्वं प्रिया न स्याः मम तथापि वा विना स्वर्गलोकाखेन किं मम | अत्र द्वितीयचतुर्थपादेन लाटानुमामो भवति ॥ २० ॥
हे चकोराक्षि ! यदि तू मेरी प्यारी है मो मेरे लिये स्वर्ग में पाए जाने वाले सुखो से क्या! येसमा सुख तर सामने तुच्छ है और यदि तू मेरी प्यारी नहीं है तो मो मेरे लिये स्वर्ग के समस्त सुखों से क्या प्रयोजन ! घे भी तो व्यर्थ ही हैं क्योंकि तेरे बिना स्वर्ग-सुखों में भी आनन्ध कहाँ । ___ टिप्पणा- यहाँ 'स्वर्गलोकसुखेन किम्' इस पाद की पुनरावृत्ति हुई है। अतः इसमें 'काटानुप्रास' अखवार है २० ॥
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४८
वाग्मटासलारः। अन्न कठोरता लाटानुप्रासेऽपि शेषाय । तदाह--
एकत्रपात्रे स्वकलत्रषर्क नेत्रामृतं बिम्बिसमीक्षमाणः ।
पश्चात्पपौसीधुरसंपुरस्तान्ममाद कश्चिधदुभूमिपालः।।२१।। कश्चिद्यभूमिपाल एकत्रपाने एकस्मिन्मदिराकहोलके स्वकलप्रवकं विन्दितमीझमागः पुरस्तात्प्रथमं ममाद 1 पश्चास्सीधुरसं भदिरारसं पणे। अन्यो मयं पारवा पश्चान्मायति । असौ (पाग) ममाद। मत्र बहुतरवर्णावृतौ सौकुभार्यवाधा। एकमा येषामपि गुणानां भाषा मनुप्रासर सिकेम कविना क्षय ॥ २१ ॥
(मदिरापान के समय) किप्ती यदुवंशी रामा मे मथुपात्र में एक ही साथ अमृत के समान नेत्रों को आनन्द देनेवाली अपनी प्रिया के मुख को प्रतिविम्बित देखा। परिणाम यह हुआ कि उस राजा मे मद्यपान बाद में किया किन्तु मत पहले ही हो गया ( मदिरा से अधिक मारकसा तो प्रिया के मुख में है जिसके दर्शन-मात्र से प्रेमी उन्मत्त हो उठा)।
टिप्पणी- पूर्वार्ध मे 'त्र' और उत्तराई में 'प' वर्गों की भावुति से इस श्लोक में 'छेकानुप्रास अलवार है।। २१॥ अथ यमकमाइ
स्यात्पादपवर्णानामावृत्तिः संयुतायुता ।
यमकं भिन्नवाच्यानामादिमध्यान्तगोचरम् ।। २२ ।। पादो वृत्तचतुर्थो मागः। पई विभक्त्यन्तम् | वोऽक्षरम् । अमीषा मिन्नवाथ्यानां भिक्षार्थानःमावृत्तिः पुनः पुनर्वर्णनं यमकं स्यात् । सामात्तिद्विधा संयुता अयुता । संयुसा अन्तराले परपदरहिता। अयुवा अन्तरालपदसहिता । तझा संयुतावृत्तौ। तथमच विधा-मादिमध्यान्तगोचरम् आदिनचरमादियमान, मध्यगोचरं मध्ययमकम् , मन्तगोचरमन्तयमकन । अयुनावृत्तौ वन्वथापि बाख्या । आदिमध्यगोचरम् मध्यान्तगोचरम् । काकासिगोलकन्यायेन मध्यशब्द उभयत्रापि सम्बध्यते । तथा मध्यस्यान्तोऽभापंसान्त एथोच्यते । तेनाद्यन्तगोचरं यमकं स्यादति सिद्धम् । आत्तियथाशक्ति क्रियते । तेन इलोका गामिन्य प्यावृत्तिः सम्भवति । निषेवामावेनैकाकार चतुष्पदं महायमकमुच्यते इत्यपि सिसम् ॥ २२ ॥
भिन्न अर्थवाले पाद, पद और वर्ण की संयुक्त अथवा असंयुक्त रूप से भावसि को यमक कहते हैं। यह (यमक) श्लोक के आदि में हो सकता है, मध्य में हो सकता है और अन्त में भी हो सकता है।
टिप्पणी- इस प्रकार 'पम' के मठारह भेद माने गये हैं। उनकी गणना इस प्रकार से है
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पादगत
संयुक्त
T आदिगंत मध्यरात अन्तगन
चतुर्थः परिच्छेदः ।
अमक
आदिगत मध्यगत अन्तगत
L
.__L.
1
असंयुक्त संयुक्त असंयुक्त संयुक्त असंयुक्त
!
आदिगत मध्यगत अन्तर्गत
वर्णगव
आदिगत मध्यगत अभ्तगत
४
आदिगत मध्यगत अन्तगत
विगत मध्यगत अन्तगत 'पाद' श्लोक के चतुर्थांश को कहते हैं, 'पद' विभक्तियुक्त शब्द को कहते हैं क्योंकि पाणिनि का सूत्र है- 'सुप्तिङन्तं पदम्' अर्थात् जिसमें सुप् और तिब् आदि प्रत्ययों से युक्त विभक्ति लगी हो उसे पद कहते हैं। अचर को वर्ण कहते हैं ॥ संखुतावृत्तौ पादयमकमाह
दयां चक्रे दयाश्चक्रे । सतां तस्माद्भवान्वितम् ॥ २३ ॥
हे राजन् यस्माद्धेतोर्भवान् दयां चक्रं करुणा चकार तस्मात्कारणाद्भवान् सत साधून वित्तदा दत्तवान् । तान्दछन् ॥ २३ ॥
आप ने दया की जिससे सज्जनों को द्रव्यदान किया ।
- यह 'चूडा' नामक छन्द का पाद है क्योंकि उसमें प्रत्येक पाद चार वर्णों का होता है । अतः 'दर्षा चक्रे' इस प्रथम ( आदि) पाद की वृति से द्वितीय पाद की रचना की गई है। अतः इसमें 'संयुतावृत्तिमूलक आदि पादयमक' है ॥ २३ ॥
४ घा० लं०
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वाग्भटालङ्कारः ।
मध्यपादयमकमाइ -
यशस्ते समुद्रान्सदारोरगारेः । सदा रोरगारेः समानाङ्गकान्तेः ॥ २४ ॥
तथा राजन् सत् शोभनं से यशः समुद्रानारगतम् । कीदृशस्य । उरगारेर्गरुडस्य समानानुकान्तेः 1 स्वर्णवर्णस्येत्यर्थः । सदा शेरगारेः सदा सर्वदा रोरगा दारिद्र्यं यता अरो यस्य तस्य शेरगारे: । 'रोर्ट दारिद्रयमुच्यते । सोमराजी छन्दः || २४ ||
गरुण के सम्मान स्वर्णवर्ण की कान्ति बाके एवं वैरियों को दरिद्र बना देने वाहे आप का सुयश समुद्र तक गमन करने वाला है।
टिप्पणी- यह 'सोलान् है, जिसके में होते हैं । इसमें द्वितीय और तृतीय पार्षो की आवृति से 'संयुता ब्रूसि-मूलक मध्यमपाशुयमक' है ॥ २४ ॥
पादन्तियमकमाइ
द्विषामुद्धतानां निहंसि त्वमिन्द्रः । मुदं भो धरणामुदम्भोधराणाम् ॥ २५ ॥
भो राजन्, 'इन्द्रो धराणां पर्वतानां मुदं इष इन्ति । कीदृशानाम् । उदम्भोधराणाम् ! उदुपरि अम्भोवरा मेघा येषां तेषाम् त्वं त्रवद्धतानां द्विषां मुदं निसि । त्वमिन्द्रश्व समानी एकेनेत्यर्थः । छन्दस्तदेव || २५ ||
हे इन्द्र ! तुम मेघाचदियों से आच्छादित और प्रधानुरूप पर्वतों के हर्ष को नष्ट करने वाले हो ।
टिप्पणी- यह भी 'सोमराजी' छन्द है । इसमें भिवार्य तृतीय और चतुर्थ ( अन्त ) पादों की आवृत्ति है। अतः यह 'संयुता वृत्ति-मूलक अन्तपादयमक' का उदाहरण हुआ ।। २५ ।।
अथादिमध्यगोचर मध्यान्तगोचरं यमकभेकवृतेना
विभाऽतिरामा परमा रणस्य विभाति रामा परमारणस्य ।
सदैव तेऽजोर्जित राजमान सदैवतेजोर्जितराजमान ॥ २६ ॥ पादयेनारिमध्ययमकम् । भोतनपादद्वयेन मध्यान्तममकम् । हे अजोर्जित अजो वासुदेव लिष्ठ हे राजमान शोभमान हे नृप, सदैव तेजो जिंतर राजमान सदैवं कर्मसहितं यस्तेनाजितो राजसु भूपेषु मानो महत्वं येन स तथा तत्सम्बोधनम् । ते तव रणस्थ विभा विभाति । कीदृशी । अतिकान्तो रामो दाशरथिर्यया सा । रामा रम्या परमा प्रहृष्टा कोदृशस्य । परमारग्गस्य शत्रुघातकस्य ॥ २६ ॥
हे विष्णु के समान पराक्रमशाछिन् ! सौभाग्य और तेज से राजाओं के मान को अपहरण करने वाले ! शत्रुसंहारक आपके रण की शोभा ने राम अथवा परशुराम की सेना की शोभा का भी अतिक्रमण कर दिया है; और (सेमा की ) वह ममोहारिणी आभा सर्व शोभित होती रहती है।
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चतुर्भः परिच्छेदः । टिप्पणी-इसमें पूथक्-पृथक अर्थों को प्रकट करने वाले यादि पाद की भात्ति द्वितीय पाद में और तृतीय पाद की भावृति अन्तिम पाद में की गई है। अतः इसमें 'संयुतावृतिमूलक प्रायन्सपद यमक है ॥ २६ ॥ अपायुतावृत्तावादिमध्यगोचर यमकमाइ---
21166 सारं गवयसान्निध्यराजि काननममतः।
सारङ्गषयसां निष्यदारुणं शिखरे गिरेः ।। २७ ।। ई प्रिय, अग्रतो गिरेः शिखरे सारगनयसा मृगपश्चिगा काननं पश्य । कोशम् । निध्यदारुणं निषिभिरदारुणममीकम् । तथा सारं प्रधानम् । तथा गवयसानिध्येनारण्यशपदनिकटत्वेन राजि शोभमानम् ॥ २७॥
अहा ! पर्वतशिखर के आगे एक रमणीय वन शोभित हो रहा है जिसमें गायों के सहा दीर्घकाय पशुओं (नीलगायों) के समूह इधर-उधर पहियों में 'घूम रहे हैं और जो सारंग (मोर) पक्षियों से भरा हुआ है।
टिप्पणी-इसमें श्रादि पाद की आपति मिन्नार्थक तुत्सीय पाद में हुई है जिससे उनके बीच में द्वितीय पाद मा बाने से व्यवच्छेद दमा हो गया है। अतः यहाँ पर भयुत्तात्तिमूलक आदिमध्यपाद यमक' प्रकार का
अमरनगरस्मेराक्षीणां प्रपञ्चायति स्फुर
सुरतरचये कुर्वाणानां बलक्षमरहसमेत इह सह सुरैरायान्तीनां नरेश नगेऽन्वह ....
सुरतरुचये कुर्वाणानां वलक्षमरं हसम् ॥ २८ ॥ ... हे बलझम, नरेश, इए नगेऽन्वहं नित्यं सुरतश्चये सुरदुमगणे याणानां पृक्षाणां कुर्भूमिरमरनगरस्मैराक्षीणां देवानानां रदसं वेगं अपवयति । रम्या वाणाः, अतो देव्यो बेगेन क्रीडायै आयान्तीत्यर्थः । कोशानाम् । स्फुरत्सुरसरुचये सुरतसूखनिमिर्च सुरैः सहायान्तीनाम् । तथाऽरमत्यर्थ वलशं पवल इस हास्यं कुर्वाणानाम् । अत्र एवते कुर्भूमिः शोभते ॥२८॥
है पराक्रमी राजन् । कल्पतरु से भरे-पूरे इस पर्वत की उस मनोरम भूमि को देखिये जो वाण-वृक्षों से भरी पड़ी है। यह एकान्त किन्तु चित्ताकर्षक स्थान नित्यप्रति देवताओं के साथ स्वर्गलोक से भाने वाली सुराजनाओं की संभोगाभिकाषा को उकसा देता है।
टिप्पणी-दूसरे पाद की आधुत्ति चतुर्थ पाव में है, और इन दोनों के बीच में सृतीय पाद आ जाने से यहाँ पर 'अयुतावृतिमूलक द्वितीय चतुर्थपाव यमक' अलंकार है॥२५॥
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वाग्भटालङ्कारः ।
अभाचन्तयमकमाद-
आसन्नदेवा न रराज राजिरुचैस्सटानामियमत्र नाद्रौ ।
ster यत्र दिगन्तनागा आसन दे वानरराजराजि ।। २६ ।। अत्राद्वावियं तटानां रानिः श्रेणिनं [ न ] ररान । अपि तु रराजेव । कीदृशी । आसनदेवा समीपस्थसुर । तथोच्चैर्गुव । यत्र यस्यां तरानो नदे उदे दिगन्तनागा दिग्गजाः क्रीटाकत असन् क्रीडाकारिणोऽभवन् । कीशे । बानरराजराजि दानरराजा मुख्यवानरास्ते राजतीत्येवंशीको वानरराजराट तस्मिन्वानरराजराज ॥ २९ ॥
इस पर्वत पर ऊँचे ऊँचे शिखरों की जो पति है उस पर देवगण निवास करते ये और श्रेष्ठ वानरों के समूह उस पर क्रीडा करते रहते थे फिर भला उसकी शोभा कैसे न हो ! वह तो अवश्य ही शोभित होगी। यही नहीं, पर्वत ऐसे थे जिनमें बहनेवाली सरिताओं मे दिनाओं के समान भूधराकार हाथी भी srota किया करते थे ।
टिप्पणी--इसमें पृथक् अर्थ को प्रकट करनेवाले प्रथम और चतुर्थ पादों की आवृत्ति तो है किन्तु उनके बीच में द्वितीय और तृतीय पाद आ गये हैं । अतः यहाँ 'युतावृतिमूलक आधासपद यसक' है ॥ २९ ॥
श्लोकासा नगावृत्ति मंत्रायमकम्, तदाह
रम्भारामा कुरबककमलारं भारामा कुरषक कमला |
रम्भा रामा कुरबक कमला रम्भारामाकुरबककमला || २० |
अत्र पर्वते कुर्भूमिः शोभसे इति सम्बन्धः । कीदृशी भूमिः । रम्मारामा रम्भाभिः कदलीभिर्मिश्रा आरामा चस्यां सा तथा । अवकलामा अब बकरहितं के पानी मलते धारयतीत्यवककमला । तथा अरमत्यर्थ भावना मैर्नक्षत्रैरा शेद्रामा कर्बुरेत्यर्थः । तथाकुरबचक नष्टारम्भा कुरवका वृक्षविशेष: कमलानि पद्मानि तेषाभारम्भा उत्पत्तयो यस्यां सा कुरवककमल (शुम्भा । तुथा गना रम्या । अथवा कुर चककमला रम्भारामा कुककामलानामा रकमेपोमेन आ पद्रामा गनोशा हे कुरवक न विद्यते कुत्सित रवः शब्दो यस्य सोऽकुरवः, अकुश्व एवाकुरवकः । शेषाद्वा कः । हे भकुरवक हे कोमलध्यान । नेनेः सम्बोधननाम तत् । पुनः कीदृशी कुः । कमलारम्भारामा, कमला लक्ष्मीः रम्भा अप्सरसः ता व रामाः स्त्रियो यस्यां सा गिरिभूमौ रामाः कीटामायान्ति । अब कमलारम्भमा एव रसमा शेवाः । तथा भकुरवकमला, कुत्सितं राजन्त इति कुरा न कुरा अकुतः शौममाना वका वृक्षविशेषाः कमला हरिणविशेषाश्व यस्यां सा अकुरवककमा रम्भाराद्वितीयतृतीयपदयोरन्तरा न यतिः । इदं संशवाय यदि पुनर्संशय मकरवाल्कदिना कृतम्, तथापि विलोक्यम् । रम्भाकुर बकैत्यस्य विशेषवती अवचूरिः । हे अकुरवककमल, अपर्व भूमिः शोभते । मकुत्सितः शोभनो रो यस्त्राश्चिदानन्दादिशब्दवा
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श
यस्यात् । एवंविधा कस्य सुखस्य कमला यस्य नेमेः सम्बोधनम् । रम्भारामा तथैव । तथा— आरम्भारामा अर्थः पञ्चात् तथा कुर्भूमिरवककमका तथा रम्भारामा रम्भा एव रामा यस्यां सा रम्भारामा । तथा अकुरवककमला । एवं व्याख्याने पदद्वयस्यान्तरं भवति । 'भौति
हे रक्षक कदलीचन की वह भूमि अत्यन्त रमणीक है, क्योंकि उसमें कमलों का समूह है, सुन्दर कुरषकवृक्षों का कुआ है। मनोहारिणी सुन्दरियाँ हैं: पति से रहित निर्मल एवं रमयीक जलराशि है और है मनोहर शब्द करने. चाला हरिण यूथ भी ।
टिप्पणी- इस एलोक में प्रथम पाद की आवृत्ति द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ पाद में है । अतएव यह 'महायमक' का उदाहरण है ॥ ३० ॥
इदानीं तेनैव प्रकारेण पश्यमकोदाणानि । तत्र संसुतावृत्तौ भादिपदमकमाएहारीतहारी तवमेष ते सेवाल सेवालसहंसमम्भः ।
जम्बालजं बालमलं दधानं मन्दारमन्दारववायुरद्रिः ।। ३१ ।।
पोऽद्रिस्ततं विस्तीर्णमम्भो धन्ते । कीशोऽद्रिः। दारीबदारी, दारीताः पक्षिणस्तैदरी मनोहरः । तथा मन्दारमन्दारववायुः मन्दारेषु कल्पक्षेषु मन्दारवो मन्दशब्दो वायुर्यश्र सः। सुरभित्रायुरावस्तीत्यर्थः । कीदृशम् । सेवालसे वाससम् सेवा सेवायामलसा राजहंसायाम्भसि तथा अलमत्यर्थं बाळं नूतनं जम्बालनं कमळं दधानम् ॥ ३१ ॥
हारीस पक्षियों के समूह से भरा हुआ यह पर्वत अत्यन्त रमणीक है क्योंकि इसके ऊपर मन्दारवृक्षों से निकला हुआ मन्द मन्द वायु वल रहा है और इस पर्वत पर शैवाल के कारण भलसित हंससमूह से परिपूर्ण और कीचड़ से उपच निर्मल जलराशि (प्रपास आदि ) शोभित हो रहे हैं।
"
टिप्पणी- इस श्लोक में आदि पद 'हारीत' की निर्विघ्न आवृति से 'संयुताजूतिमूलक आदिपदयमक' अलङ्कार है ॥ ३१ ॥ नेमिर्विशालनयनो नयनोदितश्रीर भ्रान्तबुद्धिविभयो विभवोऽथ भूयः । प्राप्तस्तदाजनगरानगराजि तत्र सूतेन चारु जगंदे जगदेकनाथः ।। ३२ ।
सूतेन सारथिना जगदेकनाथो नेमिश्वास यथा भवति तथा जगदे । कीदृशः । नयनोदितश्रीः नयेन भ्यायेनादिता प्रेरिता श्रीर्यस्य सः । न्यायाधिकशोम इत्यर्थः । तथा अभ्रान्तः सत्यो बुद्धिरूपी विभवो यस्य स तथा विगतो भयो यस्य स तथा । तदराजनगरात नारायणपुरातन नगराजि गिरीश्वरे रैवतके प्राप्तः ॥ ३२ ॥
संसार के एक मात्र स्वामी दीर्घनयन स्वामी नेमिनाथ जी, जिन्होंने अपनी नीति से धनोपार्जन किया और जिनका ऐश्वर्य सदैब स्थिर रहनेवाला है तथा
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वाग्भटालङ्कारः।
जो अन्म-मरण शादि से युक संसारचाक से परे हैं वे जब सारथी द्वारा नगर से पर्वत पर ले जाये गये हो सारथी ने उनसे बार-बार सुन्दर वचनों में कहा ।
टिप्पणी-'मयनो', 'जग', और 'श्मियो' भादि मध्य पदों की स्पषधामरहिस आवृत्ति से इस श्लोक में 'संयुतादृत्तिमूलक मध्यमपदमक है ।। १२ ।। अन्तयमकमाह
यदुपान्तिकेषु सरलाः सरला यद भूषलन्ति हरिणा हरिणा | तदिदं विभाति कमलं कमल मुदमेत्य यत्र परमाप रमा ।। ३३ ।।
यदुपानिसकेषु यस्य जलस्योपान्तिकशु पार्थेषु सरला अवक्राः सरला देवदारदो वर्तन्ते । यजळमनुरुक्षीकृत्य इरिणा मृगा परिणा वायुना सहोचन्ति । मलमस्यर्थ सदिवं कं जलं निति यत्र जले र ती काही गमा मुदमा १४ ||
महा! कितनी मनोहारिणी है यह जलराशि!! इसके किनारे पर सीधे-सीधे धूप (काठविशेष) के सूप खरे हुए हैं, यहाँ हरिण घायु के समान तीन वेग से दौड़ते हैं और यहाँ पर लघमी भी कमकों में स्थान पाकर इषोलास से भर जाती है।
टिप्पणी-सरला', हरिया', और 'परमा' भादि अम्स पी की भापति से यहाँ पर 'संयुतावृतिमूलक सन्तपदयमक अलकार है ।। ३ ।। आदियमकमाइकान्लारभूमौ पिककामिनीनां का तारखाचं क्षमते स्म सोढुम् | कान्ता रतेशेऽध्यनि वर्तमाने कान्तारविन्दस्य मधोः प्रवेशे ।। ३४ ॥
झान्ता मार्या रतेशे मर्तरि अध्वनि पनि वर्तमाने । विवेशस्थ सतीत्यर्थः । मधोवसन्तस्या प्रवेशे कान्तारभूमी पिककामिनीना का का तारबाचं विस्तारिणी वाणी सोई क्षमते स्म । अपि तु कामपि न क्षमते स्म । कोशस्य मधीः । कान्तारविन्दरय कमनीयषप्रस्य ॥ ३४ ॥
जब किसी सुन्दरी का पति परदेश में हो (उसके पास महो), चन्नमाल कमल और वसन्तादि उहीपक उपकरणों से सजकर आ जाय तो वह घेचारी वनप्रदेश में कछफूजन करनेवाली कोकिला की कौन-सी ऊँची सान को सुन सकने में समर्थ हो सकती है? (वह तो घिरह से ताप उठेगी)।
टिप्पणी-इस श्लोक के चारों पादों के मादि में 'कान्सार' पद की आयुक्ति है और ये सभी पद एक दूसरे से दूर हैं। अतः यह 'अयुतात्तिमूलक मावि पदममक' का उदाहरण है ॥ ३ ॥ मध्ययमक्रयाह
चकार साहसं युद्धे धृतोझासा हसं च या । दैन्यं त्वां साह सम्प्राना द्विषां सोत्साह सन्ततिः ।। ३५॥
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चतुर्थः परिच्छेदः। हे सोसाह हे सोपम हे श्रीनेमे, या दिषां सन्ततिः शवणां श्रेणियुंखे साइर्स चकार । धृतोलासा च सत्ती इसं हास्यं चकार । अपरान्प्राप्यत्यध्याार्यम् । सादियां संततिः स्वां सम्प्रासी सती दैन्यं पकारेत्यर्थः । अथवा दैन्यं सम्प्राता सती त्वामाइ । स्वदमतो दीनवाक्यान्यमाविष्टेश्यर्थः ॥ ३५ ॥
हे उत्साही राजन् ! शत्रुओं की जो सेमा उत्साह का प्रदर्शन किया करती यी और (विजयोझास से) हँसा करती थी, वह (शत्रु-सेना) जब तुम्हारे सामने पड़ी तो अत्यन्त दीन हो गयी।
टिप्पणी-इस श्लोक के प्रत्येक चरण के मध्य में रहने वाले पृथक पृथक 'साइसं' पद की बार बार आवृत्ति होने से 'अयुतावृत्तिमूलक मध्यमपक्ष्यमक' ससकार है ॥ ३५ ॥
अन्तयमकमाइ-- गिरां श्रूयते कोकिला कोधिदारं यतस्तद्वनं विस्फुरत्कोविदारम् । मुनीनां वसत्यत्र लोको विदारं न च व्याधचक्र कृतौको विदारम ।। ३६।। __ गिरा विषये वचनकोमलताविषये अरमत्यर्थ कोविदा पण्डिता । यती यस्मात्कारणानोकिला झूयते तत्तस्मावतद्नं वर्तते । कीदृशम् । विस्फुरत्कोविदारं विस्फुरन्तो सलझलायमानाः कोविहारः काबनारवृक्षा थेन सद। अत्र बने मुनीनो लोको मुभिजनो विदार विगतकलनं यथा मवत्ति तथा वमसि । दाररहितो मुनिजनस्तपसे वसतीत्यर्थः। मत्र बने व्याध वक्रमाखेटकृत्समूहः तौको विहितगेई न वर्तते । फोपशम् । विदारं वीपक्षिणो णाति दारयत्ति वा विदारम् । यता कोकिला भूयते सत एतदनं किमपि वर्तते इप्ति कोऽपि कस्यापि कथयामासेत्युक्तिलेशः ॥ ३६॥ ___कचनार के वृषों से भरे हुए इस यन में हिंसा का साम्राज्य है। इस वन मैं मधुरभाषी कोकिलायें कलकृषन करती हैं। स्त्री और परिवार से विहीन मुनिजन इसमें निवास करते हैं और पक्षियों की हिंसा करने वाले व्याधादि दुष्टों से यह वन विल्कुल विहीन है। __टिप्पणी-चरण के अन्त में आने वाले 'विदार' पद को बार बार श्रावृत्ति होने से यहाँ पर 'अयुतावृत्तिमूलक अन्तपक्ष्यमक' भलवार है ॥ ३६ ॥ अतः पादयेऽपि आदिमध्यमध्यान्तयमकान्युदाहियन्ते
सिन्धुरोचितलताप्रसल्लकीसिन्धुरोचितमुपेत्य किन्नरैः ।
कन्दराजितमदस्तदं गिरेः कन्दराजितगृहनि गीयते ।। ३७॥ किनगिरेरदा शिखरमुपेत्य गीयते । कीदृशं शिखरम् । सिन्धुरोचितलवानसहकातिन्धुरोचित सिन्धुराणां बजानामुचिता योग्या लसामाः सत्यश्च ताभिर्युताः सिम्पयो नय
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वाग्भटालङ्कारः। स्तामी रोयितं शोमितम् । तथा कन्दराजितं कदः शोभितम् । तथाकन्दराजितगृषि कन्दरामिचिंता शोभा येन शिखरे तत् । पई पादद्वये आदियमक कथितम् ॥ ३७ ।
हाथियों के योग्य लता और ससकी पों से घिरी सिन्धु नदी से युक्त, कन्दमूलादि से शोभित सुन्दर-सुन्दर घरों की शोभा को भी परास्त कर देने वाली गुहाओं से पर्वत के समीप जाकर किवारसमूह गान किया करते हैं।
टिप्पणी-सिम्धुरोपित' और 'करपरासित' पचागत पदों की दूर-दूर बायप्ति होने से यहाँ पर 'अयुतावृत्तिमूलक पद्याईगतपयमक अलकार है॥ १७ ॥ पादद्वयमध्ययमके यथा---
यसन्सरोगोऽत्र जनो न कश्चित्परं सरोगो यदि राजहंसः । गीतं कलं को न करोति सिद्धः शेले कलकोज्मितकाननेऽस्मिन् ॥३॥
भत्र शैले ही कामावा मिलेको वन म जनो लोकः कश्चिम्न सरोगो न सच्याधिः । परं यदि सरोगः सरोवरगतो राजहंस इत्यर्थः । अत्र शैले कः सिद्ध किलर: कलं मनोशं गातं न करोति । अपि तु सोऽपि झरोतीत्यर्थः ॥ ३८॥
दिसादि दोषों से मुक्त वनवाले इस पर्वत पर कौम सिक पुरुष कलागान नहीं करता है! (सिजन यहाँ पर वेदादि का गान किया ही करते हैं) इस पर्वत पर निवास करनेवाला कोई भी व्यकि रुग्ण नहीं है (अर्थात् यह पर्वतप्रदेश स्वास्थ्यबईक है); किन्तु यहाँ पर रहने वाला राजहंस अवश्य ही सरोवर के समीप जाया करता है (इससे स्पष्ट है कि पर्वत पर सरोवर भी है)
टिप्पणी-इस श्लोक के प्रथम दो चरणों में मध्यगमपद 'सरोग' की आवृत्ति है और बाद के दो चरणों में कलङ्क' पद की। ये पद भावृत्त पदों से दूर हैं । मतः इसमें 'अयुतावृत्तिमूलक प्रत्यभागभिनपादमध्यगतपदयमक' अलवार है ॥ ३ ॥ पादद्वयान्स्ययमक यथाजहुर्वसन्ते सरसी न वारणा बभुः पिकानां मधुरा नवा रणाः । रसं न का मोहनकोविदार के विलोकयन्ती बकुलान्विदारकम् ।। ३६ ।।
धारणा गजेन्द्रा वसन्तमासे सरसी महासरोवरं न जहुनात्याक्षः। पिकानां मोकिलानां मवा मधुरा रणाः शस्दा बसन्ते बभुः । का च स्त्री गोरनकोविदा सरतपण्डिता बकुलान्मविशेषान्विलोकयन्ती के रस नार । अपितु सर्वमपि रसं प्राप्तव । कयं विदारक निःपुत्रं यथा भवति तथा । निष्पुत्रायाः संमोगक्षमावात् ॥ ३९ ॥
बसन्त ऋतु में हाथियों ने सरोवरों को नहीं छोड़ा, कोकिल-कूजन ने अधीन शोभा को. धारण किया, किस कामशास्त्र-प्रवीणा नायिका ने मौलश्री के सूत्रों को देखकर विरह-न्यथा का अनुभव नहीं किया अथवा किस कामातुरा नायिका ने अपने पति-प्रेम का भानन्द नहीं सूटा!
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चतुर्थः परिच्छेदः ।
टिप्पणी- पूर्वार्द्धगत 'नवारणा' और उसार्द्धगत 'विदारकम्' अन्सगत पदों की आवृत्ति से यह 'अयुतावृतिमूष्टक प्रत्यर्थमाग भिनपा सतपद यसक' है ॥ ३९ ॥ श्रावन्तयमकं यथा
वरणाः प्रसूननिकरावरणा मलिनां बहन्ति पटलीमलिनाम् । तरवः सदात्र शिखिजातरवः सरसञ्च भाति निकटे सरसः ॥ ४० ॥ अत्र गिरौ सदा वरणास्तरवो वरणा वृक्षविशेषा मलीन अमराणां मलिनो नीला पटली श्रेणि वहन्ति । कीदृशाः । प्रसूननिकरावरणाः प्रसूननिकरा एव पुग्दसमूहा एवावरणमाच्या येषां ते तथा । अत्राही शिखिजातरवो मयूरजातध्वनिश्व सरसो निकटे तटाकस्यान्तिके सरसो मधुरो माति १४० ॥
पुष्पराशिमण्डित धरणों के धूप अमरों की मलिन पंक्ति को धारण किये हुये हैं और सरोवर के निकट मयूरों का कलाप सदैव मधुर ध्वनि उत्पन्न करता रहता है ।
५७
टिप्पणी-'वरणाः', 'मलिनी', 'तरवः' और 'सरसः' पद इस श्लोक के क्रमशः प्रत्येक पद के आदि और अन्त में प्रयुक्त हुए हैं। अतः यहाँ पर 'अयुसावृत्तिमूलक प्रतिपादगत आद्यतपद यमक अलंकार है ॥ ४० ॥
द्वितीयपादचतुर्थपादान्तयमकमा -
यथा यथा द्विजिह्रस्य विभवः स्यान्महत्तमः ।
तथा तथास्य जायेत स्पर्धयेव महत्तमः ।। ४१ ।।
द्विजिह्नस्य दुर्जनस्य यथा यथा विभवः स्याद्धनं भवेत् । कीदृशो विभवः । प्रकृष्टो गाम् महसमः । बहुतर इत्यर्थः । तथा नधास्य दुर्जनस्य मद्दत धनं तमः पापं रूपयेव जायेत ॥४१॥
जैसे जैसे दुर्जन का ऐश्वर्य वृद्धि को प्राप्त होता जाता है वैसे वैसे ही स्पर्धा के कारण उसमें अत्यन्त मोह का भी प्रादुर्भाव होता जाता है।
टिप्पणी- इस श्लोक के दोनों चरणों के अन्त में 'महत्तमः ' पद की आवृति | अतः यह 'अयुतावृत्तिमूलक पद्यार्द्धास्य भागगत पदयमक' का उदाहरण है || संयुता संयुतः कृतौ यमकमाह---
दास्यति दास्यतिको पादास्यति सति कर्कराशापम् ।
भवति भवति न भव तिमितस्तेन बटुक त्यम् ॥ ४२ ॥
बटुक, भवति त्वयि आसमन्तात्कर्कर। नस्यति क्षिपति सति दासी अतिकोपाच्छाप दास्यति । हि यस्मात्कारणादनर्थो भवति । ततस्त्वं तिमितो भव स्थिरो भव चापलं मा कृथाः ॥ ४२ ॥
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वाग्मटानकारः। रे बालक ! ते मंशा के पकने से शरीर मा यो मेगी जिससे महान भमर्थ हो जायगा । अतः तू सुपचाप बैठ ।
टिप्पणी–वास्थति' और 'भवति' पद क्रमशः दोनों पायों में साथ साय तो आवृत्त हुए ही हैं, इसके अतिरिफ प्रथम पाव में 'कोप' शब्द से ज्यवछिका 'दास्यति' और द्वितीय पाद में 'अनर्थो शब्द से व्यवच्छिन्न 'भवति' पारूद की भी आवृत्ति हुई है। अतः यहाँ एक ही पत्र में संयुतातिमूलक और भयुतावृतिमूलक पाद के भादि में पदयमक का उदाहरण है ॥ ५२ ।।
कुलं तिमिभयादन्न करेणूनां न दीव्यति ।
नदीव्यति करेणूनां प्राणिनांगणनापि का ॥४३॥ अत्र नदीसमीये करेणूना कुलं निमिभयान्मत्स्यमयान्न हौव्यति न क्रीडति । अणूनां सूक्ष्माण प्राणिना गणनापि का ॥ ४३ ॥ - नदी के सनम में बड़े-बड़े मत्स्यों के भय के कारण हस्तिसमूह भी क्रीद्धा नहीं कर सकता है तो भला ब जन्तुओं की गणना ही क्या ।
टिप्पणी-द्वितीय पादात 'म दीव्यति' और 'करेणूना' पनों की आवृत्ति तृतीय पाद में भी हुई है। अतः यहाँ संयुतावृत्तिमूलक पादमध्यगत पदयमक माना गया है ।। ५३ ।। इदानीं वर्णावृत्तिरुदाहियते
गङ्गाम्बुधवलाङ्गाभो मुमुक्षुध्यानतत्परः ।
पापातिहरणायास्तु स सानोजिनः सताम्।। ४४ ।। __गाजलबवला अगस्यामा कान्तिर्यस्य स तथा । मुमुक्षूणां ध्यानस्य गोचरः। अत्र पादे पादे श्रादौ वार्गद्वयत्यसादृश्याद्वर्णयगकमुच्यते ॥ ४४ ॥
गङ्गाजल के समान धवल अंग से शोभित, मोचार्थियों के ध्यान में आने वाले, सद्ज्ञान से युक्त जिन भगवान् सजनों के पाप और क्लेशा के निवारण करने वाले हैं।
टिप्पणी-'गां गां', 'मुमु' और 'सस' वर्णो की भावृति से यहाँ 'वर्णयमको माना गया है ॥ ३४॥ असंयुतायत्तौ वर्णयमकमा
जगदात्मकीर्तिशुभ्रं जनयनुरामधामदोःपरिषः ।
जयति प्रतापवूषा जयसिंहः इमाभृदधिनाथः ।। ४५।। उद्दामावनिवारौ धाम तेजस्सयुक्तौ मुजरूपो परिधी यस्य सः1 अधिको नाथोऽधिनाथः । अत्र प्रतिपादं जम्रहणादयुतावृत्ती यमकम् । वर्णान्तिः पूर्वबझेदा द्रष्टच्याः ॥ ४५ ॥
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चतुर्थः परिच्छेवः । वे राजाधिराज जयसिंह जिनका प्रताप सूर्य के समान दूसरों (बैरियों) को तप्त करने वाला है,जो उस्कट तेजराशि वाले हैं और जिनकी भुजायें अर्गला के समान दीर्धकाय एवं चलिए है, संसार में अपनी शुभ्र फीति को फैलाते हुए जय को प्राप्त थे।
टिप्पणी राह पर चारों पारे में 'ज' वर्ण की आवृत्ति दूर दूर होने से अयुतावृत्तिमूखक पर्णयमक है ॥ ४५ ॥ संयुतासंयताच्चियथा
मामाकारयते रामा सा सा मुदितमानसा |
या या मदारुणच्छाया नानाहेलामयानना ॥ ४६ ।। सा सा रामा मामाकारत आइयति । या या मदारुणछाया मदेनारूणा आरत्ता छाया शोभा यस्याः सा महारुणच्छाया। या या मुदितमानसा इष्टचित्ता च । तथा नानाइलामयानना नानाविधमनेकप्रकार इलामयं लीलामयमाननं यस्याः सा । अत्र मामा सा सा इत्यादि संयुसायमकम् । पादान्ते च मासे स्पायुतायमकम् । समासाश्चत्वारोऽपि शम्बालङ्काराः ॥ ४६ ॥
जो जो नायिका मदिरापान से रक्तिम नामावाली और नाना प्रकार के हावभावों का प्रदर्शन करने वाली हो जाती है वही बामन्द से मुझको पुकार उठती है।
टिप्पणी- यहाँ पर 'मा', 'सा', 'या' और 'ना' वर्णों की प्राप्ति पास पास और दूर दूर होने से संयुत और अयुत दोमो प्रकार के वर्णयमक का उदाहरण है ॥४३॥ अथालिहारा उच्यन्ते
स्वभावोक्तिः पदार्थस्य सक्रियस्याक्रियस्य था ।
जातिविशेषतो रम्या हीनत्रस्ताभकादिषु ।। ४७ ॥ पदार्थस्य सक्रियस्य क्रियासदिसस्य अनियस्य वा क्रियारहितस्य वा स्वभावोक्तियाँ सा. जातिक्ष्ष्यते। हीन प्रस्ताभकादिपु स्वभावोक्तिः सहजक्रथनं विशेषतः सा जातिरुच्यते । दोनो दीनबस्ती मीतः, अर्भका बालकाः, श्यादिगु स्वभावोक्तिविशेषतो रम्या जातिः । कोऽर्थः। यस्य पदार्थस्य यादृशः स्वमावस्तस्यैव स्वभावस्य यस्कथनं सा जातिरगन्तव्या । होने हीनस्वभाववर्णनन् , परते अस्तलक्षणम् । अमंफादिषु तान्येव लक्षणानि वण्यन्ते । न तु उपमाथलकारेणापस्याथानयनं क्रियते सा जातिरिति ।। ४७ ॥
चेतन अथवा जब पदार्थों के स्वभाव-कपन को जाति कहते हैं, इसी का दूसरा नाम स्वमायोतिबलधार है। यह अलझार क्षुद वस्तुओं और शलकों में विशेष शोभा को प्राप्त होता है ॥ ४५ ॥
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वाग्मटाजहारः।
उदाहरणमाछबावलीबहुलकान्तिरुचो विचित्र भूर्जत्वचा रचितचारुदुकूललीलाः । गुञ्जाफलप्रथितहारलताः सहेल खेलन्ति खेलगतयोऽत्र वने शषर्यः ।।४।।
खेलगतयः सबिलासगतयः शचर्योऽत्र बने सहलं सलीलं खेलन्ति दीव्यन्ति । महविली. मिर्मयूरपिच्छाणिमिडुला मदीया कान्तिस्सया रोचन्ते यास्तास्तथा। शेषं सुगमम् । अत्र शबरीयां हीनत्वाझीनामरगादिवर्णना । सक्रियोदाहरणमिदम् । खेलन्सीसि क्रिया ।। ४८ ॥
इस वन में मयूर पिछों से थमी हुई मेखला से सुशोभित, यकशावि से युक्त, रेशमी वकों को धारण करने वाली और गुलाफको से मालाओं को गूंधने बाली भीलनियाँ विष्ठास-क्रीक्षा में मान हैं।
टिप्पणी-यहाँ हीनजाति भोलनियों के स्वभाव का वर्णन किया गया है। इसी से इस श्लोक में 'स्वभावोक्ति अलङ्कार है ॥४८॥ अक्रियोदाहरणमाह
आरत्तनित्तधोरणिभीसणवअणुकरो कुरङ्गच्छि । उनसिअवीसमुअरणविणिवेसो दसमुहो एसो॥४॥ [ आरक्तनेत्रणिभाषणबदनौकरो कुरझाक्षि ।
उपसितविंशतिमुजवनविनिवेशरशमुख एषः ॥ ] है कुरङ्गाक्षि, पर दशमुखो रावणः । कीदृशः। आरतनेत्रणिमीषणवदनोकरः उच्चसितविंशतिमुजवनविनिवेशः उहसितं विशतिभुजा एव बने काननं सस्प विनिवेश स्थानम् । अत्रानि याइशो राव,स्तावदेवोक्तदात्वमावोचिः । एषा जातिः। प्रस्ते दमदाहृतम् । यभावा'यमालोक्य स्वप्ने करकलितनिशिफलक मयाडागुन्निद्राः कृतनिजवलाकानविधयः । भुजामध्यादखुबै किमिरमिति दारैरभिहिताः कति बीकामौनव्रतमिएन भेजुः क्षिसिभुजः। अभेके यथा
'शिक्षया प्रमालदाशिष मनूवरम् ।
निजच्छायासमाविष्ट चावन्कीइति बालकः। आविशवदाम्मतकुपितादिम्बेवमुदायम् ॥ ४५ ॥
हे मृगनयनि ! यह रावन अच्छा भयानक है, क्योंकि रक्तवर्ण नेत्रों से युक्त इसके इस भीषण मुख हैं और इसकी उठी हुई मील मुखार्थे पृषसमूह के समान है।
टिप्पणी-इसमें रावण के स्वभाव-कथन से स्वभावोक्ति अलंकार है ॥ ९ ॥
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चतुर्थः परिषदः ।
संप्रत्युपमामाइ
उपमानेन सादृश्यमुपमेयस्य यत्र सा ।
प्रत्ययाव्ययतुल्यार्थसमासैरुपमा मता ॥ ५० ॥ यत्रोपमेयस्य मुख्यवस्तुनोपमानेन पृष्टान्सेन साइइयं समानता। सादृश्य दियाअभिधीयमानं प्रतीयमानं च । सा प्रत्ययाव्ययतुल्यार्थसमासर्वक्ष्यमा0रुपमोक्ता विशेषामुपादानाद ॥ ५० ॥
जहाँ 'सि' आदि प्रत्यय, 'इव' आदि अव्यय, 'तुल्य' मादि शब्द और 'कर्मधारय' आदि समासों के प्रयोग से प्रस्तुत (उपमान) के साथ प्रस्तुत (उपमेय) में साइश्य दिखाया जाता है वहाँ उपमालंकार होता है।
टिप्पणी-साधारणतया उपमा में 'उपमेय', 'उपमान', 'उपमावाचक शब्द और 'समानधर्म ये चार अङ्ग होते हैं। जिस उपमा में ये चारों अङ्ग उपस्थित रहते हैं, उसे 'पूर्णोपमा' कहते हैं और जिसमें उपर्युक 'धार पलों में से किसी एक अथवा एक से अधिक श्रमों का लोप रहता है उसे 'लप्तोपमा' कहते हैं ॥ ५० ॥ वाभिधीयमानसादृदये उदाहरणमाइ--- गत्या विभ्रममन्दया प्रतिपदं या राजहंसायते
यस्याः पूर्णमृगाकमण्डलमिव श्रीमत्सदेवाननम् । यस्याश्चानुकरोति नेत्रयुगल नीलोत्पलानि श्रिया
तां कुन्दाईदती त्यजक्षिनपतीराजीमती पातु वः ।। ५१ ।। या राजीमती बिभ्रममन्दया गत्या प्रतिपद राजहस वाचरांते राजहंसायते । अत्र प्रत्यथैनोपमा। यस्या माननं पूर्णमृगाङ्कमण्डलमित्र श्रीमत् । श्रीलंक्ष्मीः शोभा वा। मंत्रबशब्देनाव्ययेनोपमा । यस्या राजीमत्या नेत्रदयं श्रिया नीलोत्पलान्यनुकरोति। अत्रानुकरोतिक्रियातुक्ष्यार्थवाचिका ततस्तुस्यार्थेनोपमा था 1 कुन्दानदन्ति कुन्दाहाँ दन्ता यस्या सा तो कुन्दादतीम् । कुन्दसमानर नामित्यर्थः । अत्र बानीहिंसमासेनोरमा । मन्त्र प्रत्ययाव्ययतुल्यार्थभेदैश्चतुर्भेदोपमाया गस्यादिसाइश्यमभिधीयमानमस्ति । नास्ति गम्यं बला. रकारेण किमपि । राजईसाय गत्या, नवयुगलमनुरोति निया, इत्यादिका नानि सर्यापिण काव्यमये पवाभिहितानि सन्तोतीदमभिधीयमानमुच्यते । या कारणाान कान्यमध्ये नोक्तानि, किंतु स्वयमैदानुमानेन शायन्ते तापनीयमान मुच्यने ।। ५१ ॥ __कामातुरा होने के कारण इंस की भाँति मन्द-मन्थर गति से चलने वाली, चन्द्रमा के समान मुख की कान्ति बाली, अपने नेत्रों की शोभा से कमलदलों की शोमा का अनुकरण करने वाली और कुन्दकली के समान दातो चाम्ली राजीमती का त्याग कर देने वाले जिनपति नेमिनाथजी आप लोगों की रचा करें।
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वाग्भटालङ्कारः। टिप्पणी-इस श्लोक के प्रथम परण में राजीमती उपमेय, राजहंस उपमान, मंदगति समानधर्म और 'हसायले में जो क्या प्रत्यय है वह उपमावाचक शब्द है क्योंकि 'इना पर प्रत्ययः' इस नियम में क्या प्रत्यय से 'इव' शब्द का बोष होता है। अतएव प्रथम चरण में पूपिमा है। दूसरे चरण में राजीमती का मुख उपमेय, चश्वमण्डल उपमान, 'इ' उपमावाचक शब्द और 'श्रीमत्' समानधर्म है। अतः पाहाँ भी पूर्णीपमा हुई। तृतीय चरण में राजीमसी के नेत्रयुगल उपमेय, नीलकमल उपमान और कान्ति समान धर्म है किन्तु उपमाबाचक शब्द के अभाव में यहाँ लुप्तोपमा है। चतुर्थ चरण में राजीमती के बात उपमेय और कुन्दकली उपमान है। यहाँ पर न तो कोई समान धर्म है और क उपमा-वाचक शब्दही । मतः इस चरण में भी 'लुप्तोपमा है ५५ ॥ प्रतीयमानीदाहरणं यथा
चन्द्रवदनं तस्या नेत्रे नीलोत्पले इय ।
पक्कबिम्ब हसत्योष्ठः पुष्पधन्वधनुर्बुवौ ।। ५२ ॥ यस्या राजीमत्या वदनं चन्द्रभन् । नेत्रे नीलोत्पले इव कर्तेते । ओठः पकविम्ब इसति। यस्या अबौ पुष्पधन्वधनुः पुष्पधन्त्रा कामदेवस्तस्य धनुः । अत्र तावत्केन गुणेन मुखं चन्द्रवत्स गुणो नोक्तः । ओहः पक्वविम्ब केन इसति स गुणः स्वमस्या अबतार्यः। अत एवं सत्प्रतीयमानमुच्यते । अत्र चनुर्पु प्रत्ययान्ययत्तुल्यार्भसमासोपमाः क्रमाज शेयाः । इत्यादि । सर्वत्रावगन्तव्यम् । ५२ ॥
वह रमणी भी कितनी मनोहारिणी है जिसका मुख चन्द्रमा के समान है, जिसके नेत्र नीलकमल के समान हैं, जिसके बोठों का हास पके हुए बिम्ब फल की भाँति लाल है और जिसका भूचाप ! वह तो साक्षात् कामदेव के धनुष की भौति कामियों के हृदय को बेधनेवाला है।
टिपी इस श्लोक के प्रथम दो चरणों में समानधर्म का अभाव है और खाद के दो चरणों में न तो उपमा-वाचक शब्द ही है और न समानधर्म ही अतः यहीं भी 'लप्सोएमा है।। ५२॥
मअभरिअमाणसस्स वि णिचं दोसाअरस्स मणिण च । तुह विरहे तीइ मुहं संकुइ सुहा कुमुअं च ॥ ५३ ।।
मदमरितमानसस्यापि नित्यं दोषाकरस्य शशिन इव ।।
तब विरहे तस्या मुखं संकुचितं सभग कुमुदं च ॥ हे सुभग, तब बिरहे तख्या मुर्ख संकुचितम् । यश-शशिनो विरहे कुमुदं संकोचं भानोति। कीवशस्य दोषाकरस्प । उपयोविशेषणमैतस् । यथा-मदमरितमानसस्यापि ।
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६३
चतुर्मः परिवः। चन्द्रपझे-भृगमरितमानसस्यापि । मानसमत्र मध्यं शेयम् । शशिन श्वेति गुम्योपमा । कुमुद संकुचितमिति क्रियोफ्मा ॥ ५ ॥
हे सौभाग्यशालिन् ! गर्व से भरे हुए और दोषों से युक्त होने पर भी तेरे विरह में वियोगिनी नायिका का मुख उसी भाँति संकुचित हो जाता है जिस प्रकार शक्षक-निशानाथ चन्द्रमा के विरह में कुमुदिनी मुरमा जाती है।
टिप्पा-यहाँ नायिका का मुख उपमेय, कुमुदिनी दपमान, इन उपमावाचक शम्य और संकुचित होना समानधर्म है। अतः यहाँ पूर्णोपमा हुई ॥ ५३ ।। भन्योन्योप मालकारमाह-- तंणमह वीथराअंजिणिन्दमुदलिअदिवअरकसाअम् । जस्स मणं व सरीरं मणं सरीरं य सुपसन्नम् || ५४ ॥
[तं नमत वीतराग जिनेन्द्र मुदलितवृढतरकषायम् ।
यस्य मन व शरीरं मनः शरीरमिव सुप्रसन्नम् 1 ] तं वीतराग जिनेन्द्र नमत । खाियम् : . म. इ... श्राप शरीरमिव मनः सुप्रसन्नम् ॥ ५४ ॥
वीतराग एवं षाम्बियों के निग्रह के द्वारा मनोगत दोषों को दूर करने वाले सन भगवान् जिनदेष को प्रणाम करो, जिनका मन शरीर की भीति और शरीर मन की माति प्रफुहित रहता है। ___ टिप्पणी- यहाँ मन और शरीर में भम्योम्प उपमेयोपमान सम्बन्ध होने के कारण 'अन्योन्योपमा' मलंकार है ।। ५४ ॥ क्रियाभेदानामन्योपमालङ्कारो यथा
ये देव भवतः पादौ भवत्पादाविधाश्रिताः।
तेलभन्तेऽद्भुतां भव्याः श्रियं त एवं शाश्वतीम् ।। ५५ ।। है देव, ये भन्या मवत्पादविव भवत्पादाविदाश्रिताः। यथा भवत्पादावालीयेले सथा मवत्पाश्चिताः। यथा हे राजन् , यया स्वं सेव्यसे नया सा मेविष्येऽदन् । तथात्रापि ये मवत्पादाविव भवतः पादावाश्रितास्ते भव्यास्त एवाङ्गमां श्रियं लभन्ते ॥ ५५॥
हे देव ! जो मापके चरणों के समान ही आपके चरणों के माश्रित है वे अपने ही समान अद्भुत ऐषर्थ घाली मिश्चल लेंचमी को प्राप्त करते हैं।
टिप्पणी-साहित्यदर्पण में अनन्वय का यह लक्षण बतलाया गया है'उपमानोपमेयत्वमेकस्यैव स्वनन्वय' अर्थात् जहाँ पर एक ही शब्द क्रम से उपमेय
और उपमान का काम करता है वहाँ 'अनम्वर' अलंकार समझना चाहिये। इस श्लोक में चरणों की उपमा से चरणों और माश्रितों की उपमा आश्रितों से दीगयी है भता यहाँ पर 'श्रनम्बय' अलंकार है॥ ५५
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वाग्भटालङ्कारः।
उपमेयप्रचुरोपमालंकारमाइ--- आलोकनं च वचनं च निगृहनं च यासां स्मरन्नमृतवत्सरसं कृशस्त्वम् । तासां किमङ्गपिशितानपुरीषपात्रं गात्रं विचिन्त्य सुद्धशांन निराकुलोऽसि॥
हे सखे, यासां लोणामालोकनं वचनं च निगूइनमालिकन चामृतवत्सरसं स्मरंस्त्वं शो जातः । हे सखे, अरु कोमलामन्त्रणे । तासा सुद्धशा पिशिसासपुरीषपात्रं माप्तरामेष्यस्थानं गात्रं देवं विचिन्त्य पि न निराकुलोसि न समभावशोऽसि ।। ५६ ॥
पि ! जिप्स सुनयना (सी) के वर्जन, बचन और आलिशान को तू अमृत के समान मधुर समझकर उसके स्मरण से नित्यप्रति क्षीण होता जा रहा है, उसके मांस, अस्थि और मल से निर्मित शरीर का चिन्तन करके तू व्याकुल क्यों नहीं हो उठता ! (अर्थात् उस सुन्दरी के मांस-मजामय शरीर को देख। र सरोकारतिय नहीं है )
टिप्पणी–यहाँ पर दर्शन, वचन और आलिङ्गन-ये तीन उपमेय हैं और उपमान है केवल अमृत । श्रतएव यह 'समुच्चय' नामक मलद्वार है ।। ५६ ।। उपमानप्रचुरोपमालटारमाइकलेच चन्द्रस्य कलङ्कमुक्ता मुक्तावलीयोरुगुणप्रपन्ना । जगत्रयस्याभिमतं ददाना जैनेश्वरी कल्पलतेव मूर्तिः ।। ५७ ।। जैनेश्वरी मूर्तिश्चन्द्रस्य कलेव कलमुत्ता मुक्कावलीबोरुगुणप्रपना गुणयुका कन्सलते। जगत्रयस्यामिमर्त ददागा ॥ १७ ॥
जिनेश्वर ऋपभदेव की मूर्ति चन्द्रकला के समान निष्कलंक, दीर्थ सूत्र से गुंथी हुई माला के समान गुणयुक्त और संसार की रक्षा के लिये वाकृित फल को देने वाली कल्पलता के समान वरदायिनी है।
शिणी-साहित्यदर्पण'कार ने मालोपमा का लक्षण इस प्रकार बताया है-'मालोपमा यदेकस्योपमान बहु पश्यते' अर्थात् मालोपमालङ्कार घहाँ होता है जहाँ एक ही उपमेय के अनेक उपमाम होते हैं। 'समुच्चय' और 'मालोपमा' में यह भेद है कि 'समुच्चय' में उपमान सो केवल एक होता है और उपमेय अनेक; किन्तु 'मालोपमा' में उपमेय एक होता है और उपमान अनेक । यहाँ ऋषभदेव की मूर्ति उपमेय है और चन्द्रमा की कला, माला और कल्पलता-तीक अपमान है। अतः इसमें 'मालोपमा अखकार है।। ५७ ।। अयोपमालकारदृषणान्याछ
विभिन्नलिङ्गवचनां नातिहीनाधिका च ताम् | निबन्नन्ति बुधाः कापि लिङ्गभेदं तु मेनिरे ॥५८ ॥ .
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सुर्थः परिमलेन्दः । विभिनलिका विभिन्नवचनां चोरमा न निवनन्ति । तथा असिहोनाधिकामिति । भतिहोनामत्यविका चोपमा न निवभन्नि । विशेषमाइ-बुधाः कापि जिङ्गभेट मेनिरे ।। ५८ ।। ___ काम्य-मास के आचार्य उपमेय और उपमान में लिया और वचन के भेद को महीं उत्पन्न होने देते तथा उपमेय और उपमान में एक दूसरे की अपेक्षा हीन अथवा अधिक प्रयोग भी नहीं करते। किन्तु कहीं-कहीं आचार्य लिङ्गभेव को दोष नहीं भी मानते ५८॥ उदाहरणमाह
हिममिव कीर्तिवला चन्द्रकलेवातिनिर्मला वाचः ।
ध्वाङ्खस्येव च दाक्ष्य नभ इत्र वक्षश्च ते विपुलम् ।। ५ ।। हे मुभग, - कातिहिममिव चचलत्या कातः खालित्वम् , त्रिममिति नपुंसकम् । अज उपमानोपमेय योनिममेदः । तव पाचश्चन्द्रयालेवातिनिर्मलाः । वाच प्रत्यश्च बदुवचनम् , चन्द्रकलेत्यत्रेकवचनम् । अतो वचनभेदः। तब दाश्य दक्षता वाइस्येव वर्तते । होनीपमैषा। जब वो नम इव विपुलम् । अधिकोपमेषः । अमी उपमादोषाः कविना चिमनीयाः ॥५१॥
हे राजन् ! भाप की कीर्ति हिम के समान शुभ है, पाणी चन्द्रकला की भांति निर्मल-निष्कपट है। आपकी चतुरता कौए के समान है भौर बजास्थछ ! बहतो साकाशकसमान अत्यन्त बिस्तीण है।
टिप्पणी--पहाँ पर उपमेयरूप 'कीति' पुलिंग है किन्तु उसका उपमान 'हिम नपुंसक है। इस प्रकार इसमें उपमेय और उपमान में लिभव है। 'चन्द्रकला
और 'वाचा' में प्रथम एकवचन है और दूसरा बहुवचन । उपमानरूप कौला उपमेयरूप रामा से हीन है; 'नम' पुलिग है किन्तु उसके साथ जो सपमेय है 'वा-वह नपुंसकलिङ्ग का शब्द है । अतएव उपर्युक श्लोक में प्रयुक्त वपमा लिङ्गवचनादि के भेद से दूषित हो गयी है ।। ५९ ॥
शुनीयं गृह वीव प्रत्यक्षा प्रतिभासते !
खद्योत इस सत्र प्रतापश्च विराजते ।। ६०॥ यं शुनी गृहदेपावत्यत्राधिकापमा । तव प्रतापः खयोत दवेत्यत्र शीनोपमा च सदोषा। हिममिव कातिवलयन किया हितोयमा लोषा। शुनीयं गृहदेवीवस्या होनाधिकोपमा सदोषा ।। ६०॥ ___ यह कुक्कुरी सापात् गृहदेवी-सी प्रतीत हो रही है और प्रताप जुगुन की मोति चारों ओर फैल रहा है। ___.-इस श्लोक के पूर्याद में उपमेयभूत कुक्कुरी से उपमानभूत गृहदेवी ह है और उत्तरार्द्ध में उपमेयरूप प्रताप से उपमामरूप सधोस हीन है ॥ ६॥
५ वा लं
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वाग्भटालङ्कारः ।
६६
अथ ग्रीनविशेषणेरुपमेयोपमामुपमानोपमामाद-
सफेनपिण्डः प्रौढोर्मिरब्धिः शार्ङ्गव शङ्खभृत् ।
श्रोत: करी वर्षत्वानि वारिद: ।। ६२ ।।
अब्धिः समुद्रः शाही विष्णुरिव वर्तते। शमृदुमयोविशेषणमेतगति । परं सफेनपिण्डः प्रौढोमिरिति विशेषणद्वयं समुद्रे लगति न तु विष्णो। अत उपमेयविशेषणानि सर्वा म्युपमाने न लगन्ति ततः सदोषमेतत् इत्थं न कार्यम् । श्रोतन्मदः करी गजो वर्षन्वारिद श्व वर्तत इत्यत्र विधुत्वानिति विशेषणमुपमेये करिगिन लगति, किं तु वारिदे उपमानरूपे लगतीत्यतः सदोषम् एवमपि न कार्यम् ।। ६१ ।।
फेनिल जल से युक्त और ऊँची-ऊँची बड़ी लहरों वाला सागर भ धारण करने वाले भगवान् विष्णु की भाँति है ( क्योंकि समुद्र में श होते ही हैं और भगवान् विष्णु भी शादि आयुधों को धारण करनेवाले हैं ); मदस्रात्र करने वाला हामी बिजली से युक्त मेघ के समान है ( क्योंकि हाथी भी श्यामवर्ण है और मेधाजलि भी श्याम हाथी मद की वर्षा करता है और मेघों से अलसृष्टि होती है ) ।
टिप्पणी-रोक के पूर्वार्द्ध में समुद्र उपमेय है और विष्णु भगवान् उपमान किन्तु उपमान की अपेक्षा उपमेय के लिये अधिक विशेषणों का प्रयोग किया गया है। उत्तरार्द्ध में हाथी उपमेय है और मेघ उपमानः किन्तु यहाँ उपमेय की अपेक्षा उपमान के किये अधिक विशेषणों का प्रयोग हुआ है ।। ६१ ।।
कापि निमे
मेनिरे कवय इत्याह
मुखं चन्दमिवालोक्य देवाह्लादकरं तव ।
कुमुदन्ति मुदाक्षीणि क्षीणमिध्यात्वसम्पदाम् || ६२ ॥
दे देव जिन, श्रीणमिध्यात्वसम्पदामीण मुदा तव मुखे चन्द्रमिवारूदकर मालीक्य कुमुदन्तीत्येवं निन्दापि ॥ ६२ ॥
हे राजन् ! चन्द्रमा के समान सुन्दर और आनन्ददायक आपके मुख को देखकर उन (खियों) के नेत्र आनन्द से कुमुदिनी की माँति प्रफुलित हो उठते हैं जिन (त्रियों) का मिथ्या सौन्दर्य ( आपके वियोग में ) क्षीण हो चला था । टिप्पणी- यहाँ पर उपमेयरूप नेत्र और उपमानरूप कुमुदिनी में किभेद है ॥ अथ समासमध्यस्थोपमेयोपमालङ्गभेदमा
निजजीवितेशकरजा प्रकृतक्षतपङ्कयः शुशुभिरे सुरते । कुपितस्मरहितवाणगणत्रणजर्जरा इव सरोजदृशः ॥ ६३ ॥
सरोजशः वियः सुरवे निजजीवितेशकरजामकृतक्षतपयः कुपितस्मरहितवाणग
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चतुर्थः परिच्छेदः। पदणजर्जरा व अशुभिरे । सरोजन इत्या सरोजशम्मो नपुंसको इश इति स्त्रीलिङ्ग एवं म योपाय ॥ ६ ॥
सरतकाल में प्रामेश के जादा झी पंलिलो रिचर्म की सुन्दरियों का शरीर क्रोधासुर कामदेव के द्वारा छोरे गये पाणों से घायों से बरित-सा प्रतीत हो रहा है।
टिप्पणी-प्राणेश के नखपत की पंकियों सीलिज है किन्तु समका उपमान कामदेव के बाण से जर्जरित शरीर युझिंग । तर यहाँ पर उपमेय और
पमान में लिङ्गभेद होने पर भी दोष नहीं माना जाता क्योंकि यह समस्त पद है ॥ १३॥ भय रूपकालङ्कार उच्यते
रूपकं यत्र साधादर्थयोरभिदा भवेत् ।
समस्तं वासमस्तं था खण्डं वाखण्डमेव वा ।। ६४ ॥ यन्त्र द्वयोरयोः साधात्सादृश्यादमिदा अभेदो भवति सदूपकास्टकारी मवति । तद्रूपक चतुर्क-समस्तं समस्यन्तं ( मानम् ) असमस्तमसमस्यन्त ( मानम् ) खण्डं वा । यद्पर्क
विशेषणेषु खण्डे जायते, तत्खण्डमेव । अखण्डमेव वस्तु रूपके अवतार्यते सरखण्डम् ॥६४॥ ।.. हाँ धर्म-साम्य के कारण उपमेय और उपमान में भेद ही न रह जाप
वहाँ पर 'रूप' अपकार होता है। (उपमेय और उपमान में भेद के मिट जाने से एक का आरोप दूसरे पर किया जाता है। इसीलिये इसे 'रूप' कहते हैं)। रूपक के चार भेद हैं-(.) समासयुक्त, (२) समासरहिस, (३) अपूर्ण मौर () पूर्ण । भपूर्ण को मिरल और पूर्ण को साहरूपक भी कहते हैं । ६३ । अध यथाक्रमनुदाहरणानि यानि । समस्यन्तं ( मान ) रूपकमाहकीर्णान्धकारालकशालमाना निबद्धतारास्थिमणिः कुतोऽपि । निशापिशाची व्यचरदधाना महान्युलूकध्वनिफेत्कृतानि ॥६५॥
निशापिशाची निशंव पिशाची निशापिशाचा महान्ति दलकननिरिकतानि दधाना कुतोऽपि व्यचरत् वितस्तार । उलकवनय एव फेकतानि उलूकध्वनिफेत्कृतानि । कोशी सा। काणे विक्षिसमन्धकार तदेवालकाः कुटिलकेशास्तैः शालमाना शोभमाना। तथानिवशास्तारा एवास्थिमणयो यया सा सथा। अत्र निशापिशाची सलूकध्वनय एव फेल्कतानि कीर्णान्धकारमेवालकास्तारा पवास्यिमणय इत्यर्थयोयोरभेदापक समासकरणासमरपन्त( मान )म् 1 तथा-निशा पिशाचीव असूकध्वनयः फेवतानावत्यादीवश्चदेनापि सावश्यमेव ।। ६५॥
सान अन्धकाररूप केराशि से सुशोभित, मात्ररूप भस्थियों की
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६.
वाग्भटालारः। मणिमाला से मण्डित, उसलुओं की ध्वनिरूप फूत्कार करती हुई मह निशापिशाचिनी कहाँ से आ गयी।
टिप्पणी-यहाँ पर उपमेयभूत रात्रि का उपमामभूत पिशाची से साधर्थ है, जिसका सम्यकप से वर्णन किया गया है। साथ ही निशापिशाची एक समस्त पद भी है । अतः यह समस्त पूर्णरूपक का उदाहरण हथा ॥ ५५ ॥ असा पग्विभक्त्या यम । यथा --
संसार एष कूपः सलिलानि विपत्तिजन्मदुःखानि |
इह धर्म एवं रज्जुस्तस्मादुद्धरनि निर्ममान् ।। ६६ ।। एष संसार- कृपः । विपतिजन्मदुःस्वानि सलिलानि । धर्म एन रज्जुस्तस्मात्संसारक्षानिर्ममाप्राणिन उद्धरति । अत्र पृथक पृथक विमक्तिमायादसमस्तो रूपकालकारः ॥ ६ ॥
इस संसारकूप में विपत्ति, जन्म और दुःख ही जल है। धर्मरूप रस्सी इन विपत्ति, जन्म और पुःखरूप अल में दूबे हुए लोगों को निकालने वाली है।
हिप्पणी--यहाँ संसार, विपत्ति, जन्म, दुःस्व और धर्म-ये उपमेय हैं और कूप, जल तथा रस्सी उपमान। इनमें कोई भी पद समस्त न होने के कारण असमस्त पूर्णरूपक अलकार है ॥१९॥ प्रतत्समस्तासमस्समुमयमपि द्विधा खण्डमखण्डं च । तदेवाह--
अधरं मुखेन नयनेन रुचिं सुरभित्वमाब्जमिय नासिकया । नववर्णिनीवदनचन्द्रमसस्वरुणा रसेन युगपनिपपुः ।। ६७ ॥
तरुण। नवगिनीबदनचन्द्रमसो नचरमणीमुखचन्द्रस्य रसेन युगपन्मुखेनाधरं निपपुः । नयनेन रुनि निपपुः। नासिकया सरभित्वे निपपुः । उत्प्रेक्षते-अमिव । यथा नासिकया भाजं सुरमित्वं निपीयत इत्यर्थः 1 अत्र वदनचन्द्रमसौ मुखेनाधर्ष नयनेन चिमित्यादिखण्डकरणारखण्डरूपकमिदम् । आमिनेति। पचिनो सी कमळगया भवत्यैव ॥ ७॥
युवक जन एक साथ ही प्रेम से नवोढा कामिनियों के प्रमुख का अधरपाम मुख से करते है, कान्ति का मास्वाद नेत्रों से लेते हैं और कमल के समान उन कामिनियों की जो सुगन्धि है-उसका रस ये नासिका द्वारा प्रहण किया करते हैं। ___ टिप्पणी-यहाँ पर उपमेयरूप नयोहा के मुख और उपमानरूप पन्द्रमा के सभी धर्मों में साम्य म होने से निरारूपक है और 'नयकामिनीववनचन्द्रमसः' एक समस्त पद है। मतएव यह समस्तखण्डरूपक मलकार का उदाहरण है ॥१७॥
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चतुर्थः परिकछेदः ।
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अखण्डमाइ
ज्योत्स्नया धवलीकुर्घन्धी सकुलपर्वताम् । निशाविलासकमलमुदेति स्म निशाकरः ।। ६८॥
देति स्म । कोशः । मौका पाउनको बालासहितामुवा पृथ्वी अवलोकुर्वन् । तथा-निशाया विलासकमलम् । अखण्ड एव चन्द्रो निश्शाया विलासकमल स्यादतोऽखण्डं रूपकमेतत् ॥ ६८ ॥
रात्रि का विलासकमल चन्द्रमा समस्त पर्वकुलों से युक्त पृथ्वी को अपनी ज्योत्स्ना से शुभ्र करता हुआ उदित हुआ।
टिप्पणी-यहाँ पर निशाकर उपमेय है और निमाविलासकल उपमान । इन दोनों में लिभेद है, दोनों में सभी धर्मों को समान मही पर्णित किया गया है और उपमेय तथा उपमान में कोई समास भी नहीं है । अतः इस उदाहरण में असमस्तखण्यरूपक अधार है।। ६८ ॥ मथ रूपके सिनामेदं दर्शयति
हस्तामविन्यस्तकपोलदेशा मिथो मिलत्कङ्कणकुण्डलश्रीः । सिषेच नेत्रस्रवदश्रुवारा दो कन्दली काचिदवश्यनाथा ।। ६६ ।।
फारिश्श्यनाथा नायिका दो कन्दलीं मुजादण्डलतां नेत्रनवदनुवारा लोचननिर्गदछजलेन सिधेच । कोशी । इस्ता विन्यस्तः कपोलदेशी यया सा । तथा-मिथो मिलती करणकुण्डलयोः मोर्यस्याः सा । रूपकेऽत्र लिङ्गभेदो दो कन्दलोमिति दोरेति पुंलिङ्गशम्दः कन्दलीशम्दः सीलिमोऽवगन्तव्यः । समाप्ता रूपकालकाराः ।। ६२ ।।
हथेली पर अपने कपोलों को रखने से कण और कुण्डल को शोभा को एक करती हुई बेचारी चिन्सामना अस्वाधीनपतिका नायिका अपने नेत्रों से बहती हुई अश्रुधारा से भुगारूप कदलीदण्ड को सींचती रहती थी।
टिप्पणी-'हो' और 'कवली' में लिममेव होने पर भी दोनों समस्त पद है, किन्तु इनके समान धर्मों का सम्यक रूप से वर्णन नहीं किया गया है। अतः यह समस्तखण् रूपक का उदाहरण है ।। ६९ ॥ अथ प्रतिबस्तूपमालारमाह
अनुपात्ताविवादीनां वस्तुनः प्रतिवस्तुना । ___ यत्र प्रतीयते साम्यं प्रतिवस्तूपमा तु सा ॥ ७० ॥ दवादीनां शम्दानामनुपासी अकरने या वस्तुनः प्रतिवस्तुना साम्यं समता प्रतीयते सा प्रतिवस्तूपमा शेया ॥ ७० ॥
जिस RET में 'इव' इत्यादि उपमाषाचक वादों के न रहने पर भी प्रस्तुत और अप्रस्तुत में साम्प विखाया जाता है उसे 'प्रतिवस्तूपमा' कहते हैं ।। ५० ॥
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बाग्मटालङ्कारः। अध प्रतिवस्तूपमायां लिभेदं दर्शयति--
बहुवीरेऽप्यसावेको यदुवंशेऽगुतोऽभवत् ।
कि केतक्या दलानि स्युः सुरभीण्यखिलान्यपि ।। ७१ ।। बहुवीरेऽपि यदुवंशेऽसावेको नेमीश्वरोऽतोऽमवत् । केतक्यां निखिलान्यपि दलानि कि सरभीणि भवन्ति । अत्र केतक्यामिति लिङ्गभेरः ॥ ७॥
यात्रा में तो अनेक गोडा भोपदे, नमामि श्रीकृष्ण उन सब से अद्भुत ही है। क्यों न हो! क्या केतकी के सभी पसे सुगन्धित होते हैं (अर्थात मही होसे)।
टिप्पणी-यपि 'इव' प्रत्यादि उपमावाधक एक भी शब्द यहाँ पर मही है तथापि उपमेयभून यदुवंश और उपमानभूत केतकी में साधर्म्य को प्रतीति होती है। अतएव यह 'प्रतिवस्तूपमा अलङ्कार का सदाहरण बतलाया गया है।।७१॥ अथ भ्रान्तिमन्तमलबारमाह -
वस्तुन्यन्यत्र कुत्रापि तत्तुल्यस्यान्यवस्तुनः ।
निश्चयो यत्र जायेत भ्रान्तिमान्स स्मृतो यथा ।। ७२ ।। ___ यत्र तुल्यस्यान्य वस्तुनोऽन्यत्र कुत्रापि वस्तुनि निश्चयो जायते निश्चयः संमबति स मान्तिमानलकारः कथितोऽलाग्वेदिभिः ॥ ७२ ॥
जिस सलवार में एक ही वस्तु में उसके समान अन्य वस्तु का नम होता हो उसे 'भ्रान्ति' कहते हैं ।। ७२ ॥ उदारणमाह
हेमकमले ति अणे णअणे णीलुप्पलं ति पसयच्छि। कुसुमं ति तुझ हसिए णिघडइ भमराणं रिछोली ।। ७३ ।।
[इमकमालमिति वदने नयने नीलोत्पलमिति प्रस्ताक्षि।
__ कुसममिति तव इसिते निपतति भमराणां श्रेणिः ॥ ] हे प्रस्ताक्षि, भ्रमराणां श्रेणिस्तव वदने पद हेमकमलमिति भ्रान्त्या निपतति । तक नयने पद नीलोत्पलमिति भ्रान्त्या निपतति । तब हसिते इदं कुसममिति भारया निपतति । भन्न भ्रानिमदरूकारे अन्त्यक्रियादीपकं शेयम् । उक्ती भान्तिमदलकारः ॥ ७ ॥
हे विलागितेरे मुख में स्वर्णक्रमछ, मेन में नीलकमल और हास्म में पुष्प के श्रम से आसक्त होकर अमर सेरे उपर टूट पड़ते हैं। ___ टिप्पणी-मुख, मेत्र और हास्य में क्रमशः स्वर्णकमल, मीलकमल और पुष्प की प्राप्ति से यहाँ'माति बार है ॥ ७३ ।।
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चतुर्थः परिच्छेदः ।
अष्ठेिपालङ्कारस्य नसरस्तस्य लक्षणमाह--- रक्तर्यत्र प्रतीति
प्रतिषेधस्य जायते । आचक्षते मातेपालङ्कारं विबुधा यथा ॥ ७४ ॥
यत्रवेक्तिरथवा प्रतीतिः प्रतिषेवस्य जायते । विमुधास्तमाक्षेपाचारमाचक्षते बदन्ति । यथेत्युदाहरणे || ७४ ||
७१
जिस अलङ्कार में प्रतिषेध कथन अथवा प्रतिषेध-प्रतीति होती है, उसे विमान् लोग 'आक्षेप' कहते हैं ॥ ७४ ॥
इन्द्रेण किं यदि स कर्णनरेन्द्रसूनुरैरावतेन किमहो यदि तद्विपेन्द्रः । दम्भोलिनाप्यलमलं यदि तत्प्रतापः स्वर्गेऽप्ययं ननु मुधा यदि तत्पुरी सा । १७५||
यदि स कर्णगरेद्रसूनुजयसिंहदेवी राजाभूता इन्द्रेण किम्। यदि तस्य द्विपेनः पट्टगजेन्द्रो दृश्यते तदा रावतेन किम् । यदि तस्य प्रतापोऽलमत्यर्थ तपति दम्मोलिना बनेगा पूर्वताम् । यदि सा सरपुरी लेने तथा स्वर्गोऽप्ययं सुधा । एतदुदाहरणमुतिविधयम् । अनि नरेन्द्र त्यादि साक्षादप्रकाशन सर्वमप्यस्ति । प्रतीतावाद हरणं द्विधा - विधिपूर्वको निषेध निषेधपूर्वको विभिन ॥ ७५ ॥ जहाँ राजा कर्णसिंह का पुत्र ( जयसिंह ) उपस्थित हो वहाँ
से
क्या प्रयोजन ? ( इन्द्र के समान बलशाली जयसिंह तो स्वयं ही उपस्थित है ) । अरे ! जहाँ उन ( जयसिंह ) का हावी हो यहाँ ऐशवत का क्या काम 1 ( ऐरावत के समान ही दीर्घकाय तो राजा जयसिंह का हाथी भी है ) । उस ( राजा जयसिंह ) के प्रसार के सामने वज्र की क्या आवश्यकता ? (त्रु संहाररूप जो कार्य वज्र से हो सकता है वह कार्य तो राजा जयसिंह के प्रताप से ही सम्भव है )। उस (राजा जयसिंह) को नगरी के सामने स्वर्ग भी व्यर्थ ही है क्योंकि स्वर्ग से भी अधिक ऐश्वर्यवती उसकी नगरी है।
टिप्पणी- मइादि ( प्रतिषेध) से क्या प्रयोजन' इस प्रकार कहने से 'आप' अलङ्कार है । ७५ ॥
प्राविधिपूर्वक निषेधे उदाहरणं यथा-
यस्यास्ति नरककोडनिवासे रसिकं मनः । सोऽस्तु हिंसानृतस्तेयतत्परः सुतरां जनः ॥ ७६ ॥
यस्य जनस्य मनो नरकौड निवासे रसिक भवति । 'क्रोड उत्सङ्ग उच्यते । स जनः सुतरामत्यर्थं हिंसा नूतस्तेयवत्परोऽस्तु भवतात् । अत्र तावत्प्रतीतिः कथम् । अत्र यो नरके गन्ता स हिंसादिकं करोविति विधिमालोक्येतावता हिंसादि केनापि न कर्तव्यमिति
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वाग्भटाजकार:
तथा ।।
||
प्रतीयमानो निषेधोऽस्ति, परं साक्षात्पाश्चात्यवन्न इश्यमानोऽस्त्पर्थोऽत पषा विधिपूर्वकनिषारिमका प्रतीतिरवगन्तन्या ।। ७ ।
जिस व्यक्ति का मन नरक के समीप निवास करने में रमा हुआ है, वह म्पति निरन्तर हिंसा, असत्य और पोरी में लीन रहता है।
टिप्पणी--यहाँ मरक में निवास और हिंसा, असत्य और चोरी भावि प्रसियेशकपन से 'बाप' पलसर है।॥ ७ ॥ मम निषेधपूर्वकविधौ प्रतीतिरवगन्सब्या
इच्छन्ति जे ण कित्तिं कुणन्ति करुणं खणं पि जे नेव्व । ते धणजक्ख व्व गरा दिन्ति धणं मरणसमए वि ॥ ७७ ।।
[च्छन्ति थे न कीर्ति कुर्वन्ति करुणा षणमपि ये नैन ।
से धनया च नरा ददति धनं मरणसमयेऽपि ॥ ] ये कौति नेपछन्सि । बगमवि रवि कुतिः ।। कभरणसमधिनयक्षा शव धनं दतीस्यः । एतावता कीर्तिममिलवद्भिः करुणा च कुर्वद्भिर्थनमवसरे देयमित्यर्थः । भा निवेषपूर्वको विधिरबगन्सभ्यः । देयमिति प्रतीयमानोऽयश्वात्रोचापि प्रतीतिपटवे । एषा भवचूरिः स्वमल्पा करिपसास्ति । इत्तौ तु न किमपि वियते तथा ।। ७७ ॥
जो लोग यश की अभिलाषा नहीं करते और जो लेशमान भी करुणा नहीं करते समा जो यह की भाँति धन की रक्षा में लगे रहते हैं वे लोग मरण काल में तो अवश्य ही धन देखेंगे (अर्थात् कराल काट जन तोगों को धन से अलग काही देगा)।
एणी- यहाँ पर अनावश्यक धमसंषयरूप प्रतिषेध की प्रतीति स्पष्ट होने से 'भाशेप भडकार हुभा ॥७॥ संशयासकारमाध---
इदमेतदिदं घेति साम्याबुद्धिर्हि संशयः ।
हेतुभिर्निश्चयः सोऽपि निश्चयान्तः स्मृतो यथा ।। ७८ ।। साम्पासमानभावात् । एतदिदं त्येचे भुद्धिहि निश्चितं संशयालकार उच्यते। यदा तु संशयं मुकस्वा एमिनिश्चयो जातः सोऽपि निश्चयान्तः संशयावर उभ्यते । संशयनिश्चयालङ्कार इत्यर्थः ॥ ८॥
(किसी वस्तु में) धर्म साम्य के कारण 'अमुक (घा) यह कि यह है इस प्रकार जब संजय की उद्भावना होती है तो वहीं 'संशय' बलकार माना जाता है। वही (संशय)जब पर्याप्त कारणों से मिश्रित हो जाता है तो उसको 'नियम' मलंकार कहते हैं ॥ ७० ॥
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चतुर्थः परिच्छेयः ।
सदाचरणमाइ
किं केशपाशः प्रतिपक्षलक्ष्म्याः किं वा प्रतापानलधूम एषः । दृष्ट्वा भयपाणिगतं कृपाणमेवं कधीनां मतयः स्फुरन्ति ॥ ७॥ हे जयसिंहदेव राजन्, भवरपाणिगत पाहा - जय र १ : २६ संशयं विदधतीत्यर्थः । किमेष प्रतिपक्षलक्ष्म्याः कैशपाशो न तु खडगः । अथदा किमेष प्रतापानमः । केशपाशोपि : धूमोऽपि कृष्णाः समागोऽपि कृष्णः । श्रतः संशयालङ्कारः ॥७५||
राजन ! अपके हाय में कृपाण देखकर कवियों की बुद्धि इस प्रकार विवेचन करने लगती है कि क्या यह रिपनियों का केशपाश है अथवा आपकी प्रतापाग्नि का धुओं है।
टिप्पणी-इस लोक में कृपाण के लिये केशराशि और प्रतापाग्निधून के संदेह से 'संशय' अलवार है ॥ ७९ ॥ संशयनिश्वयालकाताबरणमाघ-- इन्द्रः स एष यदि किन सहनमन्त्रणां लक्ष्मीपतिर्यदि कथन चतुर्भजोऽसौ। आः स्यन्दनध्वजधृतोदधुरताम्रचूडः श्रीकर्णदेवनृपसूनुरनं रणाने ||८०॥
स एष यदि इन्द्र इति संशयः। तर्हि अक्षयां नेत्राणां सहस्त्रं नास्ति तदा न भवतीन्द्र इति निश्चयः । यदि लक्ष्मीपतिस्तदा कर्य नासौ चतुभुमः। आः शान्तम्--श्रयं रणाने कर्णदेवनृपसूनुपसिंहदेवः । कीदृशः। स्यन्दनस्य रथस्य धजे घृल अधुर उत्कटस्ताम्रयुद्ध: कुको येन स तथा । लमातः संशयालङ्कारः । संशयनिश्चयालङ्कारश्च ॥ ८ ॥ __ यदि ये इन्द्र मो इनको सहन नेन क्यों नहीं हैं (इन्द्र सो सहस्राश है) यदि ये भगवान् विष्णु है तो इनको चार भुजायें क्यों नहीं हैं (क्योंकि भगवान् विष्णु चतुर्भुज है)। ओह! ये तो श्रीकर्णदेष के पुत्र राजा जयसिंह हैं, क्योंकि इनके रथ पर फहराने घाली ओ बसा है उस पर कुक्कुट चित्रित है। __ टिप्पणी-यहाँ राजा जयसिंह को देख कर इन्द्र अथवा विष्णु भगवान् का सन्देह हो रहा था। किन्तु उनके रथ में लगी हुई बजा से निश्चित हो गया कि ये राजा जयसिंह ही हैं। अतः यह निमथ' भळंकार का उदाहरण है ॥20॥ अथ इष्टान्तालकारमाह
अन्वयख्यापनं यत्र क्रियया स्यत्तदर्थयोः ।
दृष्टान्तं तमिति प्राहुरलङ्कारं मनीषिणः ।।१।। यन्त्र नियया स्वतदर्भयोः स्वार्थयोरन्वयल्यापन क्रियते । मन्दयः परस्परं योग्यगुणसम्बमस्तस्य ख्यापनं कयनं विधीयते तं दृष्टान्त मलकार मिति मनीषिणो युधाः प्राहः ।। ८१॥
जिस अलंकार में प्रस्तुत और अप्रस्तुत का क्रियानाय वेवादि सम्बन्ध से भाषातथ्य वर्णन किया जाता है उसे आचार्थगण 'न्स' मलकार कहते हैं 100
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3.
बामसिकारः।
सदाहरणमाह
पतिताना संसर्ग त्यजन्ति दूरेण निर्मला गुणिनः।
इति कथयञ्जरतीनां हारः परिहरति कुचयुगलम् ।।२।। झारो गुणी निर्मलश्च जरतीनां वृद्धक्षीणो कुच्युगसमिति कथयन्परिबरति। निर्मला गुणिनः पतिताना संसर्ग दुरण त्यजन्ति । यथा ये ये गुणिनो निर्मलाश्च ते ते पतिससंसर्ग ल्यजन्ति तथा हार स्त्येषोऽन्वयव्याप्त्या दृष्टान्तः । मन्वयख्यापनं च सादृश्यामिति च पर कयोः । स्वायतदर्थयोरित्यर्थः ॥ ८३ ॥
मिर्ममन गुणी व्यक्तियों को पमितजनों का संसर्ग दूर ही से छोड़ देना चाहिये इस प्रकार कहता हुआ वृद्धा स्त्री के वक्षस्थल पर पका हुआ द्वार उसके दोनों पतित (शिथिलता के कारण लटकते हुये) स्तनों को छोड़ देता है।
टिप्पणी - पतितजनों के साथ सजनों के संसर्ग को अशोभित बतलाने के लिये मुद्धा स्त्री के शिथिक इतनों पर लटकते हुए हार का शान्त दिया गया है। श्रतः यहाँ पर शरत अलधार माना गया है ॥ ८२ ॥ म्यतिरेकमाइ--
केनचिद्यत्र धर्मेण द्वयोः संसिद्धसाम्ययोः ।
भवत्येकतराधिक्यं व्यतिरेकः स उच्यते ।। ३ ।। अत्र द्वयोः संसिद्धसाम्ययोः संसिद्ध साम्यं समानता ययोस्ती तयोः संसिद्धसाम्ययोः केनचिदमण केनचिदगुणेनैकतराधिक्यं एकतरस्याधिकता भवति स न्यतिरेकालकारः ॥८॥
जिस अलद्वार में उपमेय और उपमान में से कोई एक भी किमी धर्मविशेष के कारण दूसरे से उत्कृष्टतर प्रस्तुत किया जाता है उसको 'व्यतिरेक' अशा कहते हैं ।।८।। उदाहरणमाइअस्त्वस्तु पौरुषगुणाजयसिंहदेवपृथ्वीपतेर्मुगपतेश्च समानभायः । किंत्वकतःप्रतिभटाः समरं विहाय सद्यो विशन्ति वनमन्यमशकमानामा __ जयसिंहदेवपृथ्वीपतेमगपत्तेश्च पौरुषगुणारसमानमावोऽस्त्वस्तु । एकतो जयसिंहदेवासमर त्यक्त्वा प्रतिभटा वैरिणः समो बनं विशन्ति । अन्यं सिंहमशकमानः। एतावता सिंहभयावपि राको मीरधिका तत एकतराधिक्यम् ॥ ४॥
राजा जयसिंह और सिंह के पराक्रम में समामता हो तो हुमा करे (इससे क्या ! राजा जयसिंह फिर भी सिंह से अधिक पराकमी है)पयोंकि एक (राजा अपसिंह)के भय के कारण वैरी योद्धागण सहसा समराङ्गण को दोबकर कम
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मधुतिमाह
चतुर्थः परिच्छेदः। की ओर भाग जाते हैं और दूसरे (सिंह) से निर्मीक होकर पन में ही निवास करते हैं।
टिप्पणी-महाँ पर उपमेयभूत राजा जयसिंह को उपमानभूत सिंह से अधिक पलशाली बताया गया है। इसीसे इसमें 'स्पतिरेक' मलद्वार है ॥४॥
- नैतदेतांदे ह्येतदित्यपलवपूर्वक
उच्यते यत्र सादृश्यादपद्धतिरियं यथा ॥८५ ।। यत्र सादृश्यात्समानभावानेतद्धि निश्चितमिश्मतादति अपनवपूर्वकम्पलपनपूर्वकमुच्यते। यमप हनिरवगन्तभ्या ॥ ८५।
जहाँ को वस्तुओं में साक्षम्य होने के कारण एक को छिपाकर कहा जाता है कि 'अमुक वस्तु यह (छिपी हुई बस्तु ) नहीं है' अपितु 'यह (जन्य वस्तु) है', वहाँ अपहति' नामक अलङ्कार माना जाता है। ८५॥ उदाहरणमा
नैतन्निशायां शितसूच्यभेद्यमन्धीकृतालोकनमन्धकारम् । निशागमप्रस्थितपञ्चवाणसेनासमुत्थापित एष रेणुः ।।८६ ।। अत्रान्धकारस्यापन विधाय रेणुस्थापना एषा अपहतिः ।। ८६ ॥
यह रात्रि में सीपण सुई से भी अभेध (अर्थात् सघन) और जिसमें कुछ भी दिखाई न दे सके वह अन्धकार नहीं है वरन् रात्रि के आगमन पर भेजी गई पत्रमाग कामदेव की सेना के चलने से उठी हुई धूलिराशि है।
टिप्पणी-यहाँ वारसविक वस्तु (अन्धकार) को छिपाकर उसको समान धर्मवादी कामदेव की सेना के प्रयाण से उठती हुई धूलराशि यताया गया है। अतः यह अपहुति अलङ्कार का उदाहरण हुआ ॥ ८ ॥ तुल्ययोगितालकारमाह
उपमेयं समीकर्तुमुपमानेन योज्यते ।
तुल्यैककालक्रियया यन सा तुल्ययोगिता ॥ ८७ ।। यव तुश्यककालकिययोपमानम सोपमेयं समीकर्तुं योज्यते सा तुस्ययोगिता भवति । तुन्या समाना एककालिकी क्रिया तुल्यककालकिया तया करणभूतया ॥ ८७ ॥
जिस अलङ्कार में एक ही काल में होने वाली क्रिया के द्वारा उपमान के साथ उपमेय का समभाष स्थापित किया जाता है उसको 'तुरुपयोगिता' कहते हैं ।।८७॥ उदाहरणमाह
तमसा लुप्यमानानां लोकऽस्मिन्साधुवम॑नाम। प्रकाशनाय प्रभुता भानोस्तव च दृश्यते ॥१८॥
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बाग्भटालाकार।
हे जिन, तमसा पापेन पक्षेऽन्वकारेण जन्यमानानां साधुवममा प्रकाशनाय प्रमुता मास्ति । अश्वा मानोरस्ति। अत्रोपमेयं जिनः । उपमानं मानुः। उपमेयमुपमानेन मुभीक दृश्यते । क्रिया इयोरपि तुरुया एककालिकी च । अब कर्मण्युक्त वर्तमानकालोऽस्ति ।। ८८ 11
इस संसार में अन्धकार किंचा मोह से भारछावित सन्मार्ग किंवा सदाचार को प्रकाशित करने के लिये भगवान् सूर्य और भापका प्रताप ही दिखाई देता है।
टिप्पणी- यहाँ प्रस्तुत (राजा) और अप्रस्तुत (सूर्य) एक समय में एक ही किया का अनुष्ठान कर रहे हैं अतः 'तुझ्ययोगिता' मलङ्कार है ॥ ८८ || उत्प्रवालझारमाह---
कल्पना काचिदौचित्याद्यत्रार्थस्य सतोऽन्यथा ।
योतितेवादिभिः शब्दरुत्प्रेक्षा सा स्मृता यथा ॥८॥ यत्र सतो विद्यमानस्मास्यौचित्यायोग्यत्वादन्या काचिदिवादिमिः शयोतिता कल्पना रचिता सा उत्प्रेक्षा स्मृता ॥ ८९ ॥
प्रस्तुत अर्थ के औचित्य से जिस अलङ्कार में 'इव' इत्यादि अध्ययों के द्वारा किसी अन्य अर्थ की कल्पना की जाती है उसे 'उत्प्रेक्षा' कइसे हैं ।। ८९ ॥ ययुदाहरपामाइ
नमस्तले किंचिदिव प्रविष्टाश्चकाशिरे चन्द्राचिप्ररोहाः । जगदलित्या हसतःप्रमोदाइन्ता इव ध्यान्तनिशाचरस्य ।। ६०!
चन्द्ररूचिपरोहाश्चन्द्रकिरणाकुर । नमस्तले किचिदिवासमात्रं यथा भवति प्रविष्टा रेजिरे नवोदयत्वात् । उदोशत-प्रमोदाजगदलिश्वा इसतो हास्यं कुर्वतो ध्वान्तनिशाचर- . स्यान्धकाररक्षसो दन्ता छ । वादिभिः शम्दैः। अबारिशम्दायथा मन्ये शर्व प्रायो नूनं इत्यादयो प्रायाः । यथा-'जाने शभुवं मन्ये मया खल्ल क्तव वा। नन्विवापीति तु प्राशा उत्प्रेक्षारूपक विदुर । ९०॥
आकाशमण्डल में छाये हुए चम्नकिरणार इस प्रकार प्रतीत हो रहे हैं मानो संसार को घेर कर मानन्द से हसते हुए निशाचरों के दास चमक रहे हों।
पणी-यहाँ चन्द्रकिरणारों की कसपना हंसते हुए मिशाबरों के दाँतों की चमक से की गई है। सतपक्ष यह 'उस्प्रेषा' अस्टकार है।। ९० ॥ अर्थान्तरन्यासालकारमाइ
उक्तसिद्धयर्थमन्यार्थन्यासो व्यातिपुरःसरः ।
कभ्यतेऽर्थान्तरन्यासः श्लिष्टोऽश्लिष्टश्च स द्विधा ।। ६५ ।। ___ यत्र उक्तसिद्धयर्थ व्यामिपुरस्सरीऽन्यान्यासो विधीयते सोऽर्थान्तरन्यासः कश्यते । स दिषा-शिष्टश्चालिष्टश्च । लेषसहितः । श्लेषरहितः ॥ ९ ॥
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चतुर्थः परिच्छेदः । किसी उक्ति को सिम करने के लिए जहाँ युधिपूर्वक किसी अन्य मई को प्रस्तुत किया जाता है यहाँ अर्थान्तरन्यास' नामक अलकार होता है। यह 'अर्थान्तरन्यास' अलङ्कार दो प्रकार का होता है-श्लिष्ट अर्थान्तरन्यास और अश्लिष्ट अर्थान्तरन्यास ॥११॥
शोणत्यमक्ष्णामसिताजभासां गिरां प्रचारसत्वपरप्रकारः । बभूय पानान्मधुनो बधूनामचिन्तनीयो हि सुरानुभावः ।। १२ ॥
वधूना भानो भवस्य पानाइसित जमासां नीलोत्पलभासा नक्ष्गां नेत्राणां शोगत्वं रकता बभूव । तु पुनगिरी प्रचारोऽपरप्रकारो बभूव । विपरीतो जात प्रत्यर्थः । अत्र मय. पानाक्षेत्राणा रचत्वमुकं तस्योक्तस्य सिद्धार्थ रामार्थं पुनर-नामः: मराठी हि निश्चितमचिन्तनीयः। सुरा देबी मदिरा वा । तथा केनापि पृष्टं मद्यपानाक्षेत्ररक्तत्वं कि जायेत । तथा अचिन्तनीयो दि सुरानुभाव इत्यर्थान्तरन्यासन रक्तत्वसिनिः । एष विष्ठार्थान्तरन्यासालकारः ॥ ५२ ॥ |
मधुर रस अथवा मदिरापान के उपरान्त सुन्दरियों के नीलकमल के समान कान्तियुक्त मेन रकवर्ण हो गये और वाणी का उच्चारण भी और ही प्रकार का हो गया। ठीक ही है, क्योंकि मद्यपान का प्रभाव तो दुर्भावनीय होता ही है अथवा देवताओं का प्रभाव अचिन्तनीय होता ही है।
टिप्पणी-नेत्रों की बालिमा और वाणी के स्खलन की उक्ति को पुष्ट करने के लिये मध अथवा देवताओं की दुर्भावना को प्रस्तुत किया गया है। साथ ही 'सुरानुभाव पक्ष लिष्ट होने के कारण यह 'शिलष्ट अर्थान्तरन्यास' अलङ्कार का उदाहरण है ॥ ९२॥ अशिष्टमाह
शुण्डादण्डैः कम्पिताः कुञ्जराणां पुष्पोत्सर्ग पादपाश्चास चक्रुः । स्तब्धाकाराः किं प्रयच्छन्ति किश्चित्क्रान्ता यावन्ने.द्धतीतशङ्कर।। पादपा १क्षा बराहादा है। कम्पिताः सन्तश्चारु पु.पोस: । स्तब्धाकारा उद्धतैनर पति शर निःशवं यथा भवति यावत्र कान्तास्तावकिचित्प्रयच्छन्ति किम् । भन्न प्राक्तनपदयोक्तस्याप्रेतनषद्वयेनान्यान्यासरूपेग मिद्धिः कधिमा ॥ ९ ॥
हाथियों की सढ से लिये हुए वृक्षों ने सुन्दर पुप्पो को छिटका दिया। लीफ ही है, क्योकि कृपण जन जब तक निभाव से बड़ों के द्वारा दबाये नहीं जाते सब तक भला क्या वे कुछ भी दे सकते हैं? (कुछ भी सो नहीं देते।
टिपणी-इस श्लोक के पूर्व में जो उक्ति की गई है उसी की पुष्टि के लिये उसराई में दूसरी उक्ति प्रस्तुत की गई है। इसके साथ ही यहाँ पर कोई भी पर हिष्ट नहीं है। बता यहाँ पर 'अश्लिष्ट मर्यान्तरम्यास' बलकार है ॥ १३ ॥
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वाग्भटालङ्कारः।
समासोचिमाह
उच्यते वक्तुमिष्टस्य प्रतीतिजनने क्षमम् ।
सधर्म यत्र यस्त्वन्यत्समासोक्तिरिथं यथा ॥ १४ ॥ वक्तुभिष्टस्य भणितुमारपस्यार्थस्य प्रतीसिजनने क्षम प्रती तेरुत्पावसमर्थ सदमै सशमन्यवस्तु योभ्यत, इयं समासोक्तिभवति ॥ ९४ ।।
विवक्षित अर्ध में प्रीति उत्पन्न करने के लिए जिस कार में उस (प्रीति उत्पन्न करने) के योग्य समान धर्मवाले किसी अन्य अर्थ की उक्ति की जाती है ससे समासोक्ति अलकार कहते हैं। यही सन्योक्ति AIR भी कहा जाता है ॥१४॥ उदाहरणमाइ
मधुकर मा कुरु शोकं विचर करीरदुमस्य कुसुमेषु ।
धनतुहिनपातदलिता कथं नु सा मालती मिलति ।। ६५ ।। हे मधुकर, शोक मा कुरु। करीर(मस्य कुसमेषु विचर प्रति बमिधेऽर्थः । अस्प प्रतीतिजनने मम सदृशमन्यबस्तु हदम् । नु पित। कथं सा मालती मिति । एतावता मालती नास्ति । करीरकुसभेषु शोकाभावेन भ्रमर ! विचर । मन योरपि सायं पुष्पस्वाद । विमेदत्वादन्यत्वम् । कीपशी भालती । धनतुहिनापातेन दलिता ज्वलिता । यदि सा मालती पनतुहिनपातदलिता जाता तदा किं मिलनि ॥ ५५ ॥
रेभमर ! शोक मत कर, तू करीरघृत के पुष्पों पर ही विचरण कर क्योंकि सघन सुषारपात के कारण नष्ट-भ्रष्ट पा मालती तुझे कैसे प्राप्त हो सकता है (अर्यात् नहीं प्राप्त हो सकती)।
टिप्पणी-यहाँ पर विवक्षित मालती के नए पुष्पों की प्रीति के लिये उसके समधर्मी करीलपुष्पों का कथन होने से 'समासोकि अलङ्कार है ।। १५ ।। विभावनालक्ष गमाह.
विना कारणसद्भावं यत्र कार्यस्य दर्शनम् ।
नैसर्गिकगुणोत्कर्षभावनात्सा विभावना ।। ६६॥ यत्र कारणसद्भाव विना नैसगिकगुणोत्कर्ष भावनात्कार्यस्य दर्शनं दृश्यते सा विमाबना मता ॥ १६ ॥
जिस बालंकार में किसी कारणविशेष के बिना केवल स्वामाविक गुणों के उत्कर्ष से ही कार्य का होगा प्रकार होता है उसे विभावमा' कहते हैं ॥१६॥
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चतुर्थः परिच्छेदः।
मदाहरणम्
मित्रांसो नियाराः। अनलङ्कारसुभगाः पान्तु युष्माञ्जिनेश्वरः ।। ३७ || अन्न विदसा कार्य कारणं स्वध्ययनम् । कार्य कारणं बिनापि सहसगुणेनैव बातम् । एवं पादयेऽपि मावन्नीयम् । मुक्ती विभावनालङ्कारः ॥ ९७ ॥
घे भगवान् 'जिन' श्राप लोगों की रक्षा करें जो विशेष अध्ययन के बिना ही विद्वान् हैं, थिमा द्रष्य के ही ऐश्वर्यवान हैं और बिना अलंकारों के भो सुन्दर शरीर वाले हैं।
टिप्पणी- यहाँ पर अध्ययन, द्रव्य और मछकारी के बिना भी जिन भगवान् की विद्धता, ऐश्वर्य और मौन्दर्य उनके स्वाभाधिक गुणों के कारण ही बताये गये हैं । अत एव यह 'विभावना' अलंकार का उदाहरण हुछा ॥ ९ ॥ दीपकरणमाइ
आदिमध्यान्तवत्यैकपदार्थेनार्थसङ्गतिः ।
वाक्यस्य यत्र जायेत तदुक्तं दीपक यथा ।। ६ ।। यत्रादिमध्यान्तवाकपदान कियारूपेण वा वाक्यासमातिआयेत तरीपकमुक्तम् ॥१५॥ जिस स्थान पर सादि, मध्य अथवा अन्स में रहने वाली एक क्रिया से पाम्य का सम्बन्ध उत्पन्न होता है, वहाँ पर 'दीपक' ललकार माना जाता है ।। ५८॥ उदाहरणान्याछ--
जगुस्तव विवि स्वामिन्गन्धर्वाः पावनं यशः ।
किन्नराश्च कुलाद्रीणां कन्दरेषु मुहुर्मुदा ।। ६६ । हे स्वामिन् , दिभ्याकाशे गन्धर्वास्तव पावनं यशो जगुः। किन्नराः कुलाचलकन्दरेषु जगुः 1 मुदा हर्षेण मुहूर्वारंवारम् । अत्राप्येकपदार्थेन जगुरिति रूपेण वाक्यार्थसङ्गतिर्जाता ॥ १९॥
हे स्वामिन् ! गन्धर्वादि देवतालों में स्वर्गलोक में और किनारों मे कुलपर्वतों की गुहानों में बार-बार भाप के पावन यश का गान किया।
पिणा-यहाँ पूर्वार्द के आदि में प्रयुक्त 'जगुः क्रिया से सम्पूर्ण श्लोक का सम्बन्ध होने से 'दीपक' मलकार है॥ १९ ॥ एवं मध्यान्तयोरपि । सर्वत्र यथा
विराजन्त्रि तमिस्राणि द्योतन्ते दिवि तारकाः 1 विभान्ति कुमुदश्रेण्यः शोभन्ते निशि दीपकाः ॥ १०० ।।
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वाग्भटालारा अब पृथक्-पृथक् क्रियातिरेक एव पदार्थ एक एवाथों नाभेदः । निशीत्येतस्कारक दीपकम् ॥ १० ॥
रात्रि में अन्धकार छाया हुभा है, खासगण भाकाश में झिलमिला रहे हैं, कुमुदिनी के पुष्प विकसित हो रहे हैं और छोपक शोभायमान हो रहे हैं।
टिप्पणी-राधि में अन्धकार छाया हुक्षा है' इत्यादि चारों वाक्यों का अर्थ 'निशि' शब्द से सम्बन्धित है। अतः यहाँ 'पीपक' नामक अलंकार है।।१०।। সরিয়াঙ্কামাছ
वस्तुनो बक्तुमुत्कर्षमसम्भाव्यं यदुच्यते ।
बदन्त्यतिशयाख्य तमलङ्कार बुधा यथा ।। १०१ ॥ पद्वस्तुन उत्कर्षे वक्तुमसम्माष्यमुच्यते सोऽतिशयाल द्वारः ॥ ११ ॥
वर्णनीय बस्तु के उत्कर्ष को प्रकट करने के लिये अहाँ किसी असम्भक मर्थ का वर्णन किया जाता है यहाँ पर अतिक्षय' बलकार समझना चाहिये ॥१०॥ उदाहरति--- त्वदारितारितरुणीश्वसितानिलेन सम्मनितोमिषु महोदधिषु क्षितीश । अन्त ठगिरिपरस्परशृङ्गसङ्गघोरारवैर्मुररिपोरपयाति निद्रा ।। १०२ ।।।
क्षितीश, त्वदारितारितमणीश्वसितानिसेन श्वासबायुना महोदधिषु समुप सम्मछिसोमित्पन्नकल्लोलेषु सत्सु मन्तमध्ये छठन्तो घोलन्तो वलन्तो गिरयस्तेषां परस्परं सासरस्तस्य घोरैरारबरारेनिंदा अपयाति । अत्र रिपुत्राणां श्वासानिलस्यातिशयमर्णनादतिशयालङ्कारः ।। १०२ ॥
हे राजन् ! आपके द्वारा मारे हुये शत्रुओं की पक्षियों के अन्तर से निकले हुए शोकोस्ष्ट्रास को वायु से मूड़ित लहरों से परिपूर्ण समुद्र के अन्तस्तल में लुढ़कते हुये पर्वतों के चिखरसमूह में परस्पर संघर्षण होमे से घोर शब्द दरपच होता है जिसके कारण समुद्र में शयन करने वाले मधुसूदन भगवान् विष्णु की निद्रा मा हो जाता है।
टिप्पणी-यहाँ पर राजा के द्वारा भाव-सहार करने से उन (राजाओं) की पस्नियों के शोकारहास से लहरों का मूच्छित हो जाना और सागर में पर्वता का लुपकना तथा उनकी अंगावलियों में परस्पर रंगद से ऐसा भीषण शब्द उत्पत्र होना जिससे भगवान् विष्णु को निद्रामा हो जाय, असम्भाग्य है। यह केवल शमा के शौर्य और पराकम को दिखाने के लिये ही वर्णन किया गया है। इससे यहाँ पर 'भतिशय नामक प्रकार है । १०२ ।।
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चतुर्थः परिच्छेदः ।
एकदण्डानि सप्त स्युर्यदिच्छणि पर्यंते 1
तदोपमीयते पार्श्वमूर्ध्नि समफणः फणी ।। १०३ ॥
यदि पर्वत शरीरी एकण्यानि सप्तगि भवन्ति । तवा सप्तफणः फणी पार्श्वमूर्ध्नि उपमीयते । अत्र फणिनोऽतिशय उक्तः । एको दण्डो येषु तान्येकदण्डानि ॥ १०१ ॥ यदि पर्वत पर सात हो जिनका दण्ड हो केवळ एक, तो उस ( छत्र ) से पार्श्वनाथ के मस्तक पर रहने वाले सात फर्णो से युक्त सर्प की उपमा दी जा सकती है। नहीं तो वह अनुपम है ।
निष्णाय पार्श्वनाथ के शोक्ष पर रहने वाले सर्प की अद्वितीयता को प्रदर्शित करने के लिये पर्वत पर एकदण्डयुक्त सात छत्रों का असम्भाव्य वर्णन होने से 'अतिशय' अलङ्कार है ॥ १०३ ॥
हेत्वलङ्कारमाइ—
यदियोऽतिशयालङ्कार माह
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५१
यत्रोत्पादयतः किञ्चिदर्थं कर्तुः प्रकाश्यते । तद्योग्यतायुक्तिरसौ हेतुरुक्तो बुधैर्यथा ॥ १०४ ॥
कर्तुः पुरुषस्य किचिदर्थमुत्पश्यतो यत्र सयोग्यतायुक्तिस्तस्यार्थस्य योग्यतायुक्तिः प्रकाश्यते स बेतुरलङ्कारः ॥ १०४ ॥
जिल अलङ्कार में किसी अर्थ को उत्पष्ट करने वाले कर्ता की योग्यता की युक्ति का प्रकाश किया जाता है उसका 'हेतु' कहते हैं ॥ १०४ ॥
उदाहरति
जुव्वणसमउम्ममा तत्ता विरहेण कुणइ पाहस्स 1 कण्ठब्भन्तरथो लिरमधुरसरं वालिआ गोअं ।। १०५ ।।
[ यौनसमयोन्मत्ता तप्ता विरहेण करोति नाथस्य ।
कण्ठाभ्यन्तरघोखितमधुरस्वरं बालिका गीतम् ॥ ]
बालिका यौवनमयोन्मत्ता सती नाथस्य भर्तुविरहेण तप्ता सती कण्ठाभ्यन्तरघोलन्मधुरस्वरं गीतं करोति । कण्ठाभ्यन्तर एव धोलते गीतं लब्जया चदिने प्रकटयतीत्यर्थः । अत्र कर्तुः कचिदर्थमुत्पादयत इति कर्तुरूपाया बालिकाया गीतमिति उत्पादितोऽर्थस्तस्य योग्यता युक्तिः नाथस्य विर: यौवनसमयोन्मत्ता च गीतस्य हेतुः कारणमेतदिति गाथार्थः || १०५ ||
यौवनावस्था से उन्मत और प्रिय के विज्ञानल से झुलसी हुई बालिका ऐसा गीत गा रही है जिसका मधुर स्वर उस ( वालिका ) के कण्ठ में ही रस धोळकर रह जाता है (दूसरों को नहीं सुनाई पड़ता है ) ।
६ घा० सं०
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..बाभटालाकार। टिप्पणी-कारूप नवयौवना बाला के गान में युक्ति और मिरह के कारण गीत फूट पड़ने से यहाँ पर 'वैतु' कार माना गया है ।। १०५॥
विससोअरो मिअङ्को काअन्तआसाइ आगओ पक्षणो । जाइपलासो सिहरी पहिए मारन्ति ते दाणि ।। १०६ ।। [विषसोदरो मृगाः कृतान्तदिश मागतः पवनः ।
जातिपलाश: शिखरी पथिकान्मारयन्त्येत इदानीम् ॥] मृगाको विषसोदरः । चन्द्रविषयोरेकनोल्पनत्वात् । कृतान्तदिश आगतः पवनः । शिखरो राक्षो जातिपलाशा, पते प्रयोऽपि पथिकानिदानी मारयन्ति । अत्र मरणस्य हेतुरमी । एको विषसोदरः, स्न्यो यमाशानिवासी । अपरम्नु पलाशः पक्षे वृक्षः ॥ 36 ||
विष का सहोदर चन्द्रमा (क्योंकि दोनों की उपसि समुद्रमन्यम के समय समुद्र से हुई थी), यम की दिवा (दक्षिण)से बाती हुई वायु और नवीस पत्रों से लदा हुआ (अथवा जो मांस का अभिलाषी है) वृक्ष-ये तीनों पक्षिकों का संहार करते हैं। ___टिप्पणी-विष का साहोहर होने के कारण चन्द्रमा में मार डालने की चमता, दक्षिण दिशा से मायके भाग वा शासका सागरी से लदे होने के कारण पुष के द्वारा मारा जाना हेसुयुक्त है। अतएव यहाँ पर 'हेतु' । मलकार है। १०३॥ पर्यायोक्तिलक्षणमा-
अत्तत्परतया यत्र जल्प(ल्प्य)मानेन वस्तुना !
विवक्षितं प्रतीयेत पर्यायोक्तिरियं यथा ॥ १०७ ।। पर्यायेणान्यवचनेन वचनमुक्तिः पर्यायोतिः। अन्न विवक्षित बमिट अतस्परतया न विवक्षितपरतया जल्प(शाय)मानेन वस्तुनार्थेन प्रतीयेत श्य पर्यायोक्तिः ॥ १० ॥
जा विवरित अर्थ के प्रतिपादक कादों के न रहने पर भी विवचित अर्थ का बोध हो जाता है यहाँ पायोति अधार माना जाता है। १०७ ॥ पर्यायोनिमुदाहरतित्वासैन्यवाहनियहस्य महाइवेषु द्वेषः प्रभो रिपुपुरन्ध्रिजनस्यांचासीत् । एकः खुरहुलरेणुतति चकार तां सखहार पुनरगुजालैयदन्यः ॥१०॥
प्रभो, रणेषु स्वत्सैन्यवाहनिबदस्य रिपुपुरन्धिअनस्य च देष प्रासीत् । एको वाइसमूहः सुरेभरेणुवति चकार । मन्यो योषाननो यत्पुनरसजस्ता रेणतानि संजहार । मा विवक्षितोऽयों पः। अस्य जरुप(य)मानेनान रेणुना महजलेन च प्रतीतिर्न विववित्तपरतया यत्तो मक्ता रिपयो मारिता स्पेतन प्रतीवेत सा अतस्परा ॥ १०८ ॥
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चतुर्थः परिच्छेदः । हे प्रभो ! भोर संग्राम में सापकी सेना के अश्वतमूह और वैरिपनियों में देष-सा हो गया है क्योंकि एक (असमूह) अपमे पाव-प्रहार से अत्यधिक धूलि को छिटका देता है किन्तु रिपलियाँ उसे अपने अश्रुषों से धो सकती हैं। ___ टिप्पणी- यहाँ पर संहारूप विवक्षित अर्थ की प्रतीति उनकी स्त्रियों के अश्रुपात वर्णन में हो जाती है! जीशिये पर 'पर्यायोति अलार का उदाहरण हुला 1100 समाधिन लक्षयति
कारणान्तरसम्पत्तिर्दैवादारम्भ एव हि।
यन्त्र कार्यस्य जायेत तनायेत समाहितम् ।। १०६ ।। यत्र कार्यस्यारम्भ एव दैवात्कारणान्सरसम्पत्तिर्जायेत सरसमाधितं जायत ।। १०९ ॥
जिस अहहार में एक कार्य के प्रारम्भ होतेही भाग्यवशाय (उस कार्य में सहायता करने वाला) अन्य कारण भी घटित हो जाता हो वसे 'समाहित कहते हैं॥ ९॥ उदाहरसि
मनस्विनी पंचमवेश्म गन्तुमुत्कण्ठिता याषदभूनिशायाम् ।
ताबवाम्भोधरधीरनामोधितः सौधशिखी पुकूज ।। ११० ।। _ पावन्मनस्मिमी निशाको वभवेश्म गन्तुमुस्कण्ठिताभूत, सावनवाम्मोधरधारनादपनोथितः सौपशिखी गृहकीडामयूरनुकूज केक पकार । कान्तगृहे गमनकार्यारम्भः पुनतत्प्रेरकः शिखिशमः कारणान्तरसम्पसिः ॥ ११ ॥
मालिनी नायिका रात्रि में जिस समय प्रियतम के घर जाने को उत्सुक हुई, उसी समय मषमेष गर्जन से सामन्दित होकर मासाद में रहने चाळे मोर भी
टिप्पणी-माणिनी नापिका सही माम त्यागकर पति के समीप खाने को वाकण्ठित हुई थी कि इसमे में वर्षाकाल की सूचना देनेवाले मेघ भी धन-गर्जन कर उठे जिससे उसकी माममा करा देने वाली कामातुरता और भी बढ़ गयी । यहाँ मान-भारूप कार्य में देवयोग से इपे अनाम और मोरों की काकली के सहायक हो जाने से समाहित असार | 100 परिवृति कक्षमति
परिवर्सनमर्थेन सहशासाहशेन वा ।।
जायतेऽर्थस्य यत्रासौ परिवृत्तिर्मता यथा ।। १११ ॥ मनास्य सदशेनासपन वा मन परिवर्तमं परिवती बाब असी परिवृत्तिमता । यथेत्युदाहरणे ॥ १११॥
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वाग्भटालङ्कारः।
जिस अल कार में सरश अथवा असा अर्थ के कारण विवक्षित भ में परिवर्तन हो जाता है, उसे 'परिवृत्ति' कहते हैं ॥ १ ॥
अन्तर्गतव्यालफणामणीनां प्रभाभिरुद्भासितभूषु भर्तः । स्फुरत्प्रदीपानि गृहाणि मुक्त्वा गुहासु शेते त्वदरातिवर्गः॥ ११२॥ .
हे भतः, त्वदरासिवर्गस्तब वैरिसमूहः स्फुरत्नदीपानि गृहणि मुरत्वा गुद्दासु शेते। कोदशी गुहामु । अन्तर्गतव्यालफणामगीना मध्यस्थसफ्फणामणीना प्रभामिरुद्भासितभूमिषु दीप्तभूमि ॥ ११२॥
हे राजन् ! सीपकों से जगमगाते हुए घरों को छोषकर आपके शत्रुगण सर्प के फणों में रहनेवाले मणियों की काम्ति से प्रकाशमान पृथ्वी की फादराओं में पायन करने को भाग जाते हैं।
टिप्पा-दीपो से प्रकाशित घरों को उनके समान सर्प मावि की कान्तियुक कन्वराला में परिवर्तन कर देने से यही साहश्यरूप 'परिवति' लार है॥ अत्रासदृशार्थनाथस्य पराक्तंमाइ--
दत्त्वा प्रहारं रिपुपाथियानां जमाह यः संयति जीवितव्यम् । शृङ्गारभङ्गीं च तदङ्गनानामादाय दुःखानि ददौ सदैव ।। ११३ ।। प्रहारं घरवा जीवितव्य अग्राह' । अत्र दयः प्रहारः, गृहीतं च जीवितव्यम् गृहीत। शृङ्गारमनी, इस च तासा दुःखम् , हत्यसदर्शनार्थनार्थस्य परावर्ती जनितः॥ १६६ ॥
उस (राजा) ने संग्राम में विपक्षी रामानों को प्रहार देकर उनके प्राणों को ले लिया और उन (विपती राजाओं) की रानियों की ऋकारसना को छीन कर सदैव उन्हें दुःख ही दुःख दिया।
टिप्पणी-प्रहार देकर उसके बदले उसके असमान प्रापों को ले लेने और कार-मज्जा को छीन कर उसके स्थान में उससे भिन्न दुखों को देने के वर्णन से यहाँ प्रसारयरूप 'परिसूति अलकार माना गया है॥१३॥ यथासल्यं सक्षयति
यत्रोक्तानां पदार्थानामर्थाः सम्बन्धिनः पुनः ।
क्रमेण तेन बध्यन्ते तयथासङ्घ यमुच्यते ।। ११४ ।। यत्रोक्तानां पदार्थानां सम्बाम्धनोऽथा पुनस्तेन क्रमेण वध्यन्तै योज्यन्ते तर यथासंख्यमुच्यते ॥ ११४॥ :
जिस मलबार में कहे इए पदार्थों से सम्बन्धित अर्थों का फिर उसी क्रमपद जनसे वर्णन होता है उसको 'यथासंभय' कहते हैं ॥ ११५ ।।
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चतुर्थः परिच्छेदः। उदाहरतिमृदुभुजलतिकाभ्यां शोणिमानं दधत्या धरणकमलभासा चारुणा चाननेन । विसकिसलयपनान्यात्तलक्ष्मीणि मन्ये विरहविपदि वैरासन्यते तापमले ॥
अहमेवं मन्ये---सूभुजलसिफाभ्या शोणिमान दधल्या रसस्व विभत्या चरणकमलभाना चारुणा चाननेन यथाक्रम विसकिसलयपद्यानि आत्तलक्ष्मीणि कृतानि । अत पन नगनि वैरादों तापं विरणविपदि तन्वते । विरहिणीबर्णनमैतत् । पप यथासंख्यालङ्कारः ॥११५||
(नायिका की) कोमल भुजलताओं, लालिमायुक्त धरणों की आभा और सुन्दर मुख ने क्रमशः बिसतन्त, कमलपत्र और पार्टी की सुपरसा को छोन लिया है। इसीलिये वैरभाव उत्पन्न हो जाने के कारण विरह-विपत्ति में ये (शिससन्तु, कमलपत्र और पुष्पादि) अवसर पाकर नायिका के शरीर को सपाने लाते हैं।
टिप्पणी-यही भुजलता, लालिमामय घाण और मुख से सम्बन्ध रखने वाले विक्षतन्तु, कमलपत्र और कमलपुष्प का एक ही क्रम से वर्णम होने के कारण 'यथासंग्य प्रकार है ॥ ११५॥ सहोक्ति लक्षयति
वस्तुनो यत्र सम्बन्धमनौचित्येन केनचित् ।
असम्भाव्यं पदेद्वक्ता तमाहुर्विषमं यथा ॥ ११६ ॥ यत्र केनपिइनौचित्येनानवसरतया वस्तुनः पदार्थस्य सम्बन्धमसम्भाष्य वक्ता बदेव , कवयस्तं विषमालङ्कारमानुः । यथोटाहरणार्थः ।। १६६ ॥
जिस अलाहार में वक्ता दो घस्तुओं के असम्भव सम्बन्ध का किसी अनुचित उनसे वर्णन करता है उसे 'विषम' कहते हैं । ११६॥
केदं तब वपुर्वत्से कदलीग कोमलम् ।
कायं राजीमति क्लेशदायी व्रतपरिप्रहः ।। ११७ ।। हे वत्से, राजीमति, कदलोगर्भकोमल सब वपुः कायं च क्लेशदायी नसपरिचहः । अन सुकोमलस्य तय वपुषो दोक्षानुचिता । दीक्षासंबन्धः । तथासंभाव्यं कथं वदसि ग्रहीच्यामि दोझामिति । विषमालंकारोऽयम् ॥ ११५ ॥
राजीमति पुनि! कहीं तो कदली के अन्तरतम की भाँति कोमल तुम्हारा पारीर और कहाँ यह केशदक उपघालादि चर्ती का भाचरण करना!
एणी-बहाँ कोमल शरीर के साथ सम्भाव्य कठोर व्रतपालन का अनुचित सम्बर करने से विषमालधार है।। १७॥
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वाभवाला शरः। लहोक्ति काति
सहोक्तिः सा भवेच्य कार्यकारणयोः सह ।
समुत्पत्तिकथा हेतोर्यक्तुं तज्जन्मशक्तताम् ।। ११८ ।। यत्र हेतोः कारणस्य तजन्मशक्कता कार्यात्पत्तिशकता वक्तुं कार्यकारणयोः सह समुः त्पन्तिकथा समकासमुत्पादनवार्ता मवति सा सहोक्तिभवेत् ।। ११८ ॥
जिस अलकार में किसी कारण से उत्पन्न कार्य में उस (कारण)की प्रक्ति को दिखलाने के लिये कार्य और कारण का एक साथ ही वर्णन किया Tar है उसे 'सहोकि कहसे है।। 11८॥ उदारति
आदत्ते सह यशसा नमयति साधं मदेन समामे ।
सह विद्विषां श्रियासौ कोदण्डं कर्षति श्रीमान् ।। ११६ ।। असौ श्रीमान्वीरः कोरण्डं धनुर्विंद्विपा मदेन सइ नमयति । विहिषां श्रिया लम्या शोभया वा सह कोदण्डं कर्षति । अत्र यश आदत्त इति कार्यम् । कोदण्डनक्षणं तु यशो ग्रहणकारणम् । कारणस्य कोदण्डस्य तजन्मनि कार्योत्पत्ती यशोग्रहणरूपाया शतिनास्ति . पवं सर्वत्र योजना स्वमत्या कर्तव्येति ।। ११९ ॥
यह श्रीसम्पप रामा संग्राम में विद्वेषियों के यश (हीम)के साथ ही धनुष को धारण करता है, उन (शभुओं)के अभिमान (को चूर करने) के साथ ही उस (धनुष) को झुकाता है और उन (शत्रुक्षों) के धन (को अपहरण करने) के साथ ही उस (धनुष)को भी खींचता है।
टिप्पणी-थहाँ थमुष धारण करना इत्यादि कारण से उत्पन्न यज्ञादि के अपहरण में (अनुषधारणादि) हेतु के सामध्यं को दिखलाने से 'सहोक्ति अलार है॥ १९ ॥ मथ विरोषलक्षणमा--
आपाते हि बिरुद्धत्वं यत्र वाक्ये न तत्त्वतः ।
शब्दार्थकृतमाभाति स विरोधः स्मृतो यथा॥ १२० ।। यत्र वाक्ये आपाते आरम्मै शब्दार्थकृत बिरुद्धत्वं आभाति पर तत्वतो नाभाति स विरोधः स्मृतः ॥ १२० ॥
जिस वाक्य के कहने अथवा सुनने से तत्काल ही शव अथवा अर्थ में विशेष प्रतीत हो; किन्तु वास्तव में (शब्य अथवा अर्थ में ) किसी प्रकार का भी विरोध न हो वहाँ विरोशलार समझना चाहिये ।। १२० ॥
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चतुर्थः परिच्छेदः ।
उदाहरणमाह
दुर्वारवाण निवदेन सुवर्मणापि लोकोत्तरान्वयभुवापि श्व धीवरेण । प्रत्यर्थिषु प्रतिरणं स्खलितेषु तेन संज्ञामवाप्य युयुधे पुनरेव जिष्णुः ॥१२१॥
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६७
कोप जिष्णुर्जयनशीलस्तेन केनचित्पुरुषेण प्रत्यर्थिषु वैरिधु प्रतिरर्ण स्खलितेषु रणं यं प्रति स्खलितेषु संज्ञामवाध्य पुनरेव युयुषे युद्धं चकार । कीदृशेन तेन । सुवर्मेणापि दुबरमाणनिबन । चारवाणः कवच उच्यते व सुकर्म यस्य स सुवर्मा। दुधे बारवाणनिवधः कवचसमूहो यस्य स रवाणनिवहः । यः सुधर्मा सदुर्वा - रवाणनिवहः कथं भवति इति विरोध दर्शयित्वा न तत्त्वत इत्याह- दुर्गारानिवदेन दुर्गारो बाणवि यस्य स तेन एतेन तत्र । लोकोत्तरान्त्रयमुदापि धीवरेण यो लोकोत्तरान्वयभूः स कथं धीवरः । दीवरों मतिप्रधान इत्यर्थः । एष शब्दकृतोऽपि विरोधालंकारः ।। १२५ ।।
उस विजयाभिलाषी ने प्रत्येक संग्राम में शत्रुओं के गिर जाने पर चेतनता को प्राप्त करके अभेय कवच से युक्त और श्रेष्ठ कुछ में उत्पन्न उत्तम बुद्धि वाले सुत्रों के साथ पुनः युद्ध किया ।
टिप्पणी- यहाँ 'दुरषाणनिचग' 'सुवर्मणा' का विशेषण है और 'छोकोतरास्वयभुषा' 'धीरे' का। इन प्रावदों को सुनने से विरोध प्रतीत होता है क्योंकि जो दूषित कवच से युक्त है वह सुवर्मा ( उत्तम कवच वाला ) कैसे हो सकता है ? और जो अच्छे कुल में उत्पन्न हुआ है वह छोवर ( कहार ) कैसे हो सकता है ? किन्तु इन शब्दों के अर्थ पर ध्यान देने से विरोध का परिहार हो जाता है क्योंकि 'दुराणनिषन' का अर्थ इ अभेद्य कवच न कि दूषित कवच और 'वीच' शब्द का अर्थ उत्तम बुद्धिवाला है, कहार नहीं । विरोध शब्दों के सुनने से ही प्रतीत होता है, बाद में किसी प्रकार का भी विशेष नहीं है। अतः यह जति विशेष का उदाहरण है ।। १२१ ।।
यथार्थ विरोधमा
येनाक्रान्तं सिंहासनमरिभूधिरांसि विनतानि ।
क्षित युधि शरपङ्किः कीर्तिर्यता दिगन्तेषु ।। १२२ ।। नराशा आकान्तं सिंहासनम् । विनतान्यरिभूपालशिरांसि । अहो विरोधः काकान्समन्यत् विगतमन्यत् । तथा क्षिप्ता युधि शरपक्तिः, दिगन्तेषु कीर्तियांता समाप्ती द्विधापि विरोधाङ्कारः ॥ १२२ ॥
जिस राजा के सिंहासन पर पैर रखते ही वैरिराजाओं के मस्तक ( पराभव से) झुक गये और उसने युद्ध में बाणों को फेंका नहीं कि उसकी कीर्ति चारों ओर फैल गई।
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वाग्भटालङ्कारः।
टिप्पणी-सिंहासन पर पैर रखने से शत्र राजाकों के भी अकाने और बाणों के फेंकने के साथ यश के पंछने में प्रकट रूप ले तो विरोध प्रतीत होता है, किन्तु भर्थ पर विचार करने से विशेष का परिहार हो जाता है, क्योंकि इससे राज! का पराक्रम और उसकी कीति का ज्ञान होता है ।। १२२ ॥ अभावसरलक्षणमाइ
यत्राथोन्तरमुत्कृष्टं सम्भवत्युपलक्षणम् ।
प्रस्तुतार्थस्य स प्रोक्तो बुधैरवसरो यथा ।। १२३ ।। यत्र प्रस्तुतार्थस्योत्कृष्टमान्तरमुपलक्षणं चिडं संभवति बुधैः सोऽवसरालंकारः प्रोक्तः ॥
जहाँ किसी अर्थ से उस्कृष्टता कोई दूसरा अर्थ हटान्तरूप से प्रस्तुत किया जाता है वहाँ काम्य-शास्त्र-मनीपी 'अवसर' नाम अलङ्कार मानते हैं ।। १२३ ।। अाक्सरोदाहरणमा
स एष निश्चयानन्दः स्वच्छन्दनमविक्रमः ।
येन नक्तञ्चरः सोऽपि युद्धे अर्बरको जितः ।। १२४ ।। स एष निश्चयानन्दो येन सोमि बरको राक्षसो युद्धे जितः ॥ १२४ ॥
यह वही राना है जिसने अखण्ड आनन्द से युक्त और अस्यन्त पराक्रमशील वर जाति के निशाचर पर भी विजय प्राप्त कर ली है।
टिप्पणी-वर्बर जाति के निशाचर का अखण्ड भानन्द और स्वच्छन्द पराम... राजा की विजय में मोर मा उत्कर्ष उत्पन्न कर देता है। अतः यह अवसर अलार का उदाहरण हुभा ॥ १२ ॥ अथ सारलक्षणमाह..
यत्र निर्धारितासारासारं सारं ततस्ततः ।
निर्धार्यते यथाशक्ति तत्सारमिति कथ्यते ॥ १२५ ।। यत्र निधारितालाराप्ततस्ततः सारं सारं निर्धार्यते । यथाशक्ति यथाशक्त्या स सारालंकारः ॥ १२५ ॥
जिस काध्य में प्रतिपादित तथ्य से अन्य सारयुक्त तथ्य का यथाशक्ति निरूपण किया जाता है उसमें 'सार' नामक भलकार बतलाया जाता है ।। १२५ ॥ सारमुदाइरति__ संसारे मानुष्यं सारं मानुष्यके च कोलीन्यम् ।
कौलीन्ये धर्मित्यं धर्मित्वे चापि सदयत्वम् ।। १२६ ॥ इस संसार में यदि कुछ भी सार वस्तु है तो वह है मनुष्याब, और मनुष्यत्व का सार है कुलीनता (सुकुलोत्पत्ति), धर्म में भास्था ही कुलीमसा का सार है और धार्मिकता का एकमात्र तत्व है यालुसा।
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चतुर्थः परिच्छेदः। टिप्पणी-इस लोक में एक प्रतिपादित तथ्य से उसरोवर परतु का सार निरूपित किये जाने के कारण 'सार' भलाहार है || RA अथ श्लेषलक्षणमाद--
पदैस्तै रेव भिन्नैर्षा वाक्यं वक्त्येकमेव हि ।
अनेकमर्थ यग्रासौ श्लेष.. इत्युच्यते. यथा ॥ १२७ ।। यत्रैकमेव कार्य तैरेव पदै मिन्नयों पदैरनेकमर्थ वक्ति असो केपालकार उच्यते ॥१.२७॥
जहाँ उन्हीं पर्व से अथवा भिम पदों से एक ही बाम्प अनेक अर्थों को प्रत करता है वहाँ 'भष' अलद्वार होता है ॥ १२७॥
आनन्दमुलासयतः समन्तात्करैरसन्तापकरैः प्रजानाम् । यस्योदये क्षोभमवाप्य राज्ञो जमाह वेला किल सिन्धुनाथः ॥१२॥
यस्य राक्षो नृपस्योदये क्षोभमवाप्य फिलेति श्रूयते। सिन्धुनाथाः सिन्धुदेशाधिपो बेलामलिच्छेदादिका जमाह । तदाशा गृहीतवानित्यर्थः । कोशस्य | असन्तापकरैः करे: प्रजानां समन्तादानन्दमुलासयतो वर्धयतः । अथ श्रेषः-यस्य रामचन्द्रस्योदय क्षोभमवाप्य सिन्धुनावः समुद्रो वेला मर्यादा जग्राह । शीतकरैः करः किरणलोकानां समन्तात् वर्षनुत्पायतः । यप श्लेषालकारः ॥ १२८ ॥
सुखकारी करों (टैक्लों) के द्वारा प्रमाजमों को सुखों करने वाले उस राजा के अम्युश्य होने पर सिम्धुराज हार मानकर अपनी मर्यादा के भीतर रहने लगा अथवा शीतलता प्रदान करने वाली किरणों के द्वारा समस्त संसार को थानन्दित करने वाले चन्द्रमा के उवित होने पर सागर सुध होकर अपने किनारों तक पहुँच गया।
टिप्पणी-यहाँ सिन्धुनाथः इत्यादि पद ही दो अर्थों का बोध कराते हैं, अतः इस श्लोक में तरपदश्शेष मलकार । १२८॥
कुर्वन्कुवलयोझासं रभ्याम्भोजश्रियं हरन् ।
रेजे राजापि तश्चित्रं निशान्ते कान्तिमत्तया ॥ १५६ ।। चित्र यो राजा चन्द्रो निशान्ते प्रमाते कान्तिमत्तया कान्तिमत्त्वेन रराज । कुवळयोलासं भूवलयोलाम वन् रम्यां शोभना भोजश्रियं भोजराजलक्ष्मी हरन् गृहन् । एषः मित्रपदैः शेषालङ्कारः॥ ५२९ ॥ ___ यह राजा (कु) पृथ्वी के (रसप)मणाल को उलसित करता हुआ रामा भोज की रमणीक कान्ति का अपहरण करके घर के अम्पर भी अपनी प्रभा के कारण शोभित हुमा मह ाक्षर्य है, अथवा चन्द्रमा कुमुदसमूह को मलित करता हुमा कमलों की शोभा को छीन कर सखि के अन्तिम प्रहर में भी अपनी बामा के कारण शोभित हशा यह भावयं है ।
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वाम्भवालवारः। टिप्पणी- यहाँ पर 'कुनलयोनास आदि पदों का खषद करने से मिल-भित्र अर्थों का बोध होता है। अतः इसमें भिपशेष है ॥ १२९ ।। समुपयालकारमा,
एकत्र यत्र वस्तूनामनेकेषां निवन्धनम्।
अत्युत्कृष्टापकृष्टानां तं वदन्ति समुचयम् ।। १३८ ।। यत्र कविर अनेकेषामत्युत्कृष्टानामत्युत्तमानां अस्यपकृष्टानामतिमध्यमाना या वस्तूनां पदार्थानामेका निबन्धनं गुम्फनं ग्रन्थनं योजनमित्कार्थाः । तं समुच्चयं वदन्ति ॥ १३ ॥
जिस अछकार में अस्थन्त सरल अथवा निकट स्रों का एक साथ ही वर्णन किया जाता है उसको 'समुच्चय' कहते हैं ।। १३० ॥ अत्युलष्टसमुच्चयोदाबरणमाइ
अणहिल्लपाटकं पुरमवनिपतिः कर्णदेवनृपसूनुः ।
श्रीकलशनामधेयः करी च रत्नानि जगतीह ।। १३१॥ ___ सर्वोत्तममणदिलपाटवं पुरम् । तस्मिन्नननिपतिः कर्णदेवनृपसूनुः श्रीजयसिंहदेवः। सोऽभि सर्वोत्तमो भूपालेषु । तस्य श्रीकलशनामधेपः करी गजः । एतानीइ जगत्ति त्रीणि रमानि I ___ भणहिलपारह नामक नगर, कर्णदेव राजा का पुन (राजा मयसिंह) और श्रीकलश नामक हाथी--ये सीनो वस्तुएँ इस संसार में रसस्वरूप है।
टिप्पणी- इसमें महिलपाटल मगर, राजा अयसिंह और श्रीकलश हाथी-- इन दोनों उस्कृष्ट पातुओं का एकात्र प्रतिपादन करने से 'समुच्चम' अलार हुभा ॥ भत्यपकष्टालकारमाह
ग्रामे वासो नायको निर्विवेकः कौटियानामेकपात्रं कलत्रम् | नित्यं रोग: पारवश्यं च पुंसामेतत्सर्व जीयतामेव मृत्युः ।।१३२।। सुगमम् । भावना स्वयमेव विचारणीया । पोऽस्यपकृष्टसमुच्चयालङ्कारः ॥ ५३२ ।।
गाँव में रहना, मूर्ख पति, कुटिका श्री, लदेव रोगी रहना और परवाता-ये सभी वस्तुएँ मनुष्यों के जोते जी ही मृत्यु के समान हैं।
टिप्पणो-यहाँ गाँव में रहना आदि निक वस्तुओं का एक ही साय वर्णन किया गया है। अतएव यहाँसमुख्य अलङ्कार है॥ १३२ ।। अथाप्रस्तुतप्रशंसामा --
प्रशंसा क्रियते यत्राप्रस्तुतस्यापि वस्तुनः।
अप्रस्तुतप्रशंसां तामाहुः कृतधियो यथा ।। १३३ ।। यत्राप्रस्तुतस्यापि वस्तुनः प्रशंसा क्रियते कृतधियस्सामप्रस्तुतप्रशंसामाहुः ।। १३३ ॥
जिल काव्य में वर्णनीय वस्तु से भिन्न अन्य वस्तु की प्रशंसा की जाती है उसमें 'अप्रस्तुतप्रशसा' नामक अछार समलना चाहिये ॥ १३ ॥
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i
¦
चतुर्थः परिष।
स्वैरं विहरति स्वैरं शेते स्वैरं च जल्पति । भिक्षुरेकः सुखी लोके राजचोरभयोज्झितः ।। १३४ ॥
कोऽपि दुःखो चिन्ताः सन यति संतोष सारं पृचैवमुवाच । मात्र तेन दुःखिना भिक्षुप्रशंसा तत्प्रारब्धा । कोऽपि नास्ति परं दुःखदग्ध एवं विचारयामास इति अप्रस्तुतप्रशंसा या 1 स्वेच्छा से विचरण करने वाला, स्वेच्छा से सोने वाला और स्वेच्छा से ही बोलने वाला एक खारी (खारी ) राजा और चोर आदि भय से मुक्त है ।
टिप्पणी- यहाँ अप्रस्तुत सांसारिक प्राणी की असत्प्रशंसा ( निन्दा ) की गयी है क्योंकि वह राजखौरादिभय से पीड़ित रहता है; वह न तो स्वतंत्रतापूर्वक विचरण कर सकता है, न सो सकता है और न बोल हो सकता है । अतः इसमें 'प्रस्तुतप्रशंसा' नामक अकार माना गया है ।। १३४ ॥
अयैकवली लक्षगमाव
अप्रस्तुतप्रशंसोदाहरणमा
JL
पूर्वपूर्वार्थयैशिष्टयनिष्ठानामुत्तरोत्तरम्
I
अर्थानां या विरचना बुधैरेकावली मता ।। १३५ ।।
पकवयुदाहरणमाद
पूर्वपूर्वार्थ शिष्टपनिष्ठानां पाश्चात्त्यार्थविशिष्टतायां तत्पराणामर्थाना या रचना उत्तरोत्तरं सा एकावली मता कथिता ॥ १३५ ॥
पूर्व में आयी हुई वस्तुओं से उत्कृष्ट वस्तुओं की उत्तरांतर वर्णना को षिजन 'एकावली' अकार कहते हैं ॥ १३५ ॥
-
देशः समृद्ध नगरी नगराणि च सप्त भूमिनिलयानि |
निलया: सलीलललना ललनाश्चात्यन्तकमनीयाः || १३६ ॥
१
देश समृहनगर इत्यादावरणम् ।। १३६ ।।
देश वही उत्तम है जिसमें समृद्ध नगर ह, नगर से ही समृद्ध हैं जिनमें अनेक सतत प्रासाद हो, प्रासाद वे ही उत्तम हैं जिनमें नाना प्रकार की लीलाकलाप में प्रवीणा सुन्दरियाँ रहती हों और सुन्दरियाँ भी वहीं रमणीया होती हैं को अत्यन्त लावण्यमयी हो ।
टिप्पणी- यहाँ पूर्व पूर्व में प्रतिपादित देशादि से उत्तरोत्तर श्रेष्ठ नगरादि का वर्णन होने से 'एकावली' अखङ्कार है | १३६ ||
अधानुमानलक्षणमाह
प्रत्यक्षालितो यत्र कालत्रितयवर्तिनः । लिनिनो भवति ज्ञानमनुमानं तदुच्यते ।। १३७ ।।
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वाग्मटालद्वारः। यत्र प्रत्यक्षाशितः कालत्रितयवतिनो लिङ्गिनी ज्ञानं भवति तदनुमानमुच्यते । पथाधूमो लिलिली चाभिः । लिङ्गस्य धूमस्य दर्शनाशिकी अभिरनुमीयते । अनया रौस्या सर्वत्र ज्ञातव्यम् । एतवनुमानं भवति ॥ १३७ ।।
जिस अलवार में प्रत्यक्ष चित अथवा कारण से भूत, वर्तमान और भविष्य, इन सीनों कालों में होने वाली माश्य वस्तु का बोध होता है उसे 'अनुमान कहते हैं ॥ १३ ॥ अनुमानोदाहरणमाह
नूनं नधस्तदाभूयन्नभिषेकाम्भसा पिभोः ।
अन्यथा कथमेजा जनः ताना हाति।। १३८ ।। - नूनं विमोजिनस्याभिषेकाम्मसा नमस्तदाभूवन् अन्यथा एतासु नदी जनः खानेन कथं शुद्धयति । नदीलानेन शुद्धिरेतशि लिङ्गी च विभोरमिषेकाम्भसा तदाभूवमिति । एषोऽतीतानुमानालङ्कारः ॥ १३८ ॥
निश्चय ही ये नरिौँ महाराज (ऋषभदेव )को 'अभिसिवित करने वाले जह से बनी हुयी हैं, अन्यथा इनमें स्नान करने से मनुष्यों की शुद्धि कैसे हो सकती थी।
टिप्पणी-प्रत्यक्ष शुद्धिरूप हेतु से अमिलिञ्चन-जल से नदियों के निर्माणरूप भूतकालिक अरश्य बस्तु का बोध होने के कारण यहाँ अनुमाम' सलंकार है।
जम्भभित्ककुभि ज्योतिर्यथा शुभ्रं बिजम्भते ।
उदेष्यति तथा मन्ये खलः सखि निशाकरः ।। १३६ ।। जम्ममिदिन्द्रस्तस्य भकुछ दिक पूर्वा तस्या ज्योतिस्तेजो या शुभ श्वेतं विजम्भते । अहमेवं मन्ये । हे सम्नि, खलः सन्तापकारी निशाकर उद्देष्यतीत्येतविरहिण्या सख्युग्ने उक्तम् । श्ष मविष्यानुमानालकारः॥ १६९ ।।
(कोई विरहिनी नायिका अपनी सहेली से कहती है) सखि! बिस समय इन्द्र की दिशा ( पूर्वविशा) में उज्जवल ज्योति प्रकाशित होती है, उस समय मैं ऐसा समझती हूँ कि दुष्ट चन्द्रमा का उदय होगा।
टिप्पणी-पूर्वदिशा में ज्योत्स्ना के प्रकाश से भविष्य में चन्द्रोदय का शेष होने के कारण यहाँ पर 'भनुमान भष्ठयार है ॥ १३९॥
मुखप्रभाबाधितकान्तिरस्या दोषाकरः किट्टरतां विभर्ति | तल्लोचनश्रीहतिसापराधान्यजानि नो चेत्किमयं क्षणोति ।। १४०॥ दोषाकरश्चन्द्रोऽस्या नापिकायाः किसरता बिमति कमैकरतो याति । कोशः । मुखप्रभावाधितकान्तिः । जो चेदि नैनन् । अयं चन्द्रस्तलोचनश्रीहतिसापराधानि तासा लोच
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चतुर्थः परिछेदः ।
६३
नशोभाहरणेन सापराधानि कमलानि कि क्षणोति सङ्कोचयति । अन्योऽपि सेवको निजाधिएतेरपराधकारिणमन्यं शृती सत्यां न सहत इत्यर्थः । एष वर्तमानानुमानालङ्कारो शारयः ॥ १४०||
इस (नायिका) की मुख-कान्ति से पराजित होकर चन्द्रमा ने इस (नायिका) की दासता को स्वीकार कर लिया है। यदि ऐसा न होता तो यह चन्द्रमा गायिका के नेत्रों की आभा को चुरा लेने वाले अपराधो कमलों को क्यों दण्ड देता (सुरक्षा देता ) ! (स्वामी के प्रति किये गये अपराध का प्रतीकार तो केवल उसका सेवक. ही करता है, अन्य व्यकि नहीं । )
टिप्पण – यहाँ *मों को सुरक्षा देने के कारण वर्तमान में होने वाली चन्द्रमा की दासता का बोध होने से 'अनुमान' अक्कार है | १४० ॥
अथ परिसंख्यामाद-
यत्र साधारणं किञ्चिदेकत्र प्रतिपाद्यत । अन्यत्र तन्निवृत्त्यै सा परिसयोच्यते यथा ॥
१४१ ॥
यत्र कवि
किचित्साधारणं वस्तु एकत्र तत्रिवृत्त्यै प्रतिपश्यते । यद्वस्तु एकत्र एकस्मिन्स्थाने भवति अन्यत्र तनिवृतिर्भवति सा परिसंख्या समुच्यते ॥ १४१
जिस अलवार में किसी साधारण वस्तु का एक स्थान के अतिरिक्त अन्य 1. स्थानों में निषेध करने के लिये उसी ( एक स्थान ) में हां वर्णन किया जाता है उसको बुद्धिमान् छा 'परिसंख्या' कहते हैं ।। १४१ ॥
परिसख्या मुंशीत-
यत्र वायुः परं चौरः पौरसौरभसम्पदाम् । युवानश्च कृतक्रोधादेव बिभ्युर्वधूजनात् ।। १४२ ।।
यत्र पुरे वायुः परं केवल पौरसौरभसम्पदां चौरः । अन्यत्र चौरिका नास्ति । यत्रं युवानः कृतरोषाद्वघूमनाद्विभ्युः । नान्यत्र भयं कस्यापीस्वर्थः ॥ १४२ ॥
जिस नगर में महलों में रहने वाली कामिनियों ) की सुगन्धि को अपहरण फरने वाला एकमात्र वायु ही चोर है ( और कोई भी मक्ति चोरी नहीं करता ) उस नगर के निवासी केवल कोधित हुई रमणियों से ही भयभीत होकर ( और राज, चोराद से निर्भीक होकर ) रहते हैं
टिप्पणी- यहाँ पर चौरकर्म को सभी स्थानों से हटाकर वायु में और भय को यात्रादि से दूर करके केवळ रमणियों में बतलाने से 'परिसंक्या' अलङ्कार है ॥ १४२ अथ प्रश्नोत्तरालङ्कार सङ्करोदाहरणं चाइ----
प्र यत्रोत्तरं व्यक्तं गूढं वाप्यथवोभयम् ।
प्रश्नोत्तरं तथोक्तानां संसर्गः सङ्करं विदुः ।। १४३ ।।
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वाग्मधामकारः।
___ यत्र प्रये उत्तरं ध्यान गुह वापि । अथवा भर्य व्यकगूदात्मकन् । एतर प्रभोधरं ज्ञेयम् । यत्र यभोक्तानां शपदार्शनामसहाराणापुकानामेकत्र एकण्याविसंसों मणनं स मसिकारः॥ १४३॥
जिस अलकार में किसी प्रश्न का उभार व्यक्त रूप से, समय रूप से यश सयकाम्यक्त रूप से रहता है, उसे 'प्रश्नोत्तर' कहते हैं। और जहाँ उपयुक्त अलकारों का सम्मिश्रण होता है वहाँ 'संकर' नामक अलार समझना चाहिये ।। १५३ ॥ प्रश्नोत्तरीदाहरणमाए
अस्मिन्नपारसंसारसागरे मञ्जतां सताम् ।
किं समालम्बनं साधो रागद्वेषपरिक्षयः ॥ १४४ ॥ हे साधी, अस्मित्रपारसंसारसागरे निमन्जता समालम्बनं किमिति प्रश्ने व्यक्तमुत्तरम् - रागद्वेषपरिक्षयः । एष व्यक्तप्रश्नोत्तरालम्कारः ॥ १४४ ॥
हे महारान् ! हम पार संसार-सागर में बने माझे सजनों को कौन-सा श्राध्य है रमादेषावि का नाश ही उनके लिए एकमात्र सक्काम है। __ टिप्पणी- यहाँ पर एक ही लोक में प्रभ और उसका उसर स्पष्ट है। अतः यह म्यक उसर वाला 'प्रश्नोत्तर' बार है १११ ॥
क वसन्ति श्रियो नित्यं भूभृतां वद कोविद ।
असापतिशयः कोऽपि यदुक्तमपि नोझते ॥ १४५ ।। हे कोविद, यद भूभृतां राजा श्रियो नित्यं क वसन्ति । असौ अविशयः कोऽपि यत् वक्तमपि न जायते । मसौ.सहगे-त्युत्तरम् । एष गूदमश्नोतरालकारः ॥ १४ ॥
हे विकून् ! पतामो छो राजा की छमी सदैव कहाँ रहती है। यह (मसौ) प्रभाबका कठिन है जो शमा मिलने पर भी समान में नहीं पाता।
टिप्पणी-यहाँ भली' का है 'पह' और 'तलवार में' (ससि सम्ब से ससमी विमकि कंगने पर 'सौ' रूप बनता)। उपर देने माने पति का सारपर्य है कि राजाभी की लपी तलवार में रहती है। किन्तु 'असी' सम्व का 'यह' अर्थ निकलने से उत्तर सन्दिग्ध ही रहता है। अतः यह गूगप्रश्नयुक "प्रभोत्तर' बलहार है। ११५॥
किमै माध्यमाख्याति पक्षिणं कः कुतो यशः ।
गरुडः कीदृशो नित्यं शनषारिपिराजितः ।। १४६ ।। ऐभ साम्यं किम्, दानवारि मदमलम् । पक्षिण समास्याति, पिछी । वशः कुतो भवति, भाजितः संग्रामात । गतो निस्म कीपूरमति, कानबारिविराजितो वानवारिसदेयस्तेन विराजित मोमितः । मन्त्र-प्रागारमारवाकरमसूदल्यातपोतराजकारः।।१४६॥
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चतुर्थः परिकलेदः । हाथी की कौन-सी वस्तु प्रशंसनीय है ! मदअल; पशिशर का बोधक कौन शब्द है । 'विशाम्य; यश किससे प्राप्त होता है ! 'युद्ध से'; और गरुण सदेव केला रहता है के और मि से कोरिज
टिप्पणी—यहाँ र उपर्युक्त चारों प्रों में किसी का उत्सर स्पष्ट है और किसी का अस्पष्ट । जैसे 'गह कैसा रहता है। इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट है कि वह (गरुड)शनषों के वैरी विष्णु से शोभित रहता है। किन्तु शेष तीनों प्रक्षों का उत्तर गूट है । अतः यह ग्यताध्यक्त प्रश्नोत्तर अलकार का उदाहरण है ।। ३ ।।
छानी ग्रन्थकार इदमलकारकर्तृत्त्वख्याफ्नाय वाग्भटामिपस्य महाकवेमंदामात्यस्य तमाम गायकथा निदर्शयति---
धम्भण्डसुत्तिसम्पुखमुक्तिअमणिणो पहासमूह व्य । सिरिवाहड त्ति तणओ आसि अहो तस्स सोमस्स ॥१४७ ।।
[प्रमाणहशुक्तिसम्पुटमौक्तिकमणेः प्रमासमूह एव ।
मोबाइड इसि तनय पासीद्धस्तस्य सोमस्य ॥ ] तस्याप्यत्र गाथायामनिर्दिष्टस्य श्रीवाग्मठः श्रीवास्न प्रति वनय पासीत् । कीदृशः । सूरोऽपि सुधः। विरोधालारोन समवगन्तव्यः। उप्रेक्षते-प्रमायुक्तिसम्पुटमौक्तिकमणेः प्रभासमा पत्र तया ॥ १४७ ।।
प्रहारस्प सीपी से उत्पन्न मुकामणि के समान उन सोम (सोमदेव अधका चन्द्रमा)को कान्तिपुल के समान श्रीवाग्भट भामक बुद्धिमान् (अथवा शुधनाह) पुत्र उत्पन हुआ। ___ टिप्पणी-प्राणसीपी में रूपक, सोम में श्लेष, श्रीवाग्मद का वर्णन होने से माति और कान्तिपुझके समान इस कथन से सस्प्रेचालकार है। असः रूपक, एलेष, जाति और उमेशा-हन अधकारों के सम्मिश्रण से यहाँ पर 'संकर' नामक भकाहार है।११७ ॥
बारलोकेषु येलहारा यथानामानः कथितास्ते सर्वे घ्याख्याताः। अन्येषु ग्रन्थेचन्ये भावोऽलङ्कारसः भूयन्ते, तेऽन्न नोक्ता इस्याइ
अचमत्कारिता वा स्यादुक्कान्ताव एव च ।
अलक्रियाणामन्यासामनिबन्थे निबन्धनम् ॥ १४ ॥ अभ्यासामलझियाणामनिवन्धने ममणने निधनं कारणम् । अचमत्कारिता स्यात् । उक्वेन्योऽन्येषां मध्ये न कोऽपि तापचमत्कारः। चमत्कार विना कथनप्रयास पच स्याध फळ किमपि मनमा छकान्तमांब शव । मनुका कान्तरन्तमंन्तस्यर्थः ॥ १४८ ॥
समाधि-भावि) समारो की याहाँ पर रिपेनाने का कारण
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E
वाग्भटालङ्कारः ।
यह
है कि या तो उन ( असंगति आदि) में चमत्कार ही नहीं होता अथवा के पूर्वप्रतिपादित कारों में समाविष्ट हो जाते हैं ॥ १४८ ॥ अथ रीतिद्वारमा
हे एव रीती गौडीया वैदर्भी चेति सान्तरे ।
एका भूयः समासा स्यादसमस्तपदापरा ।। १४६ ।। अवती भवतः । गौडीया वेदमाँ चेति । यतस्ते द्वे सान्तरे अन्तरसहिते पृथकतद्दर्शगति - एका लैटीय' उसमामा स्वास द्वितीया वैदमी असमस्तपदा अल्पसमासा भवेत् ।। १४९ ३।
गौड़ी और बंदों-ये ही दो ऐतियाँ हैं। बहुला होती है और दूसरी ( वैदर्भी ) रीति न्यून अथवा नहीं ही होती ॥ १४९ ॥
में
are गौडीयोदाहरणमाह
इनमें एक ( गौडी रीति ) समाससमस्त पदों की संख्या अस्पन्त
दर्पोत्पाटिततुङ्ग पर्वतशत प्रायप्रपाताहति
क्रूराक्रन्ददतुच्छकच्छपकुलङ्कारमोरीकृतः ।
विश्व वर्वरषध्यमानफ्यसः शिप्रापगायाः स्फुर
नाक्रामत्ययमक्रमेण बहुल: कल्लोलकोलाहलः ।। १५० ॥
भयं शिमापगायाः शिप्रानथा बहुल: कछोलकोलाहलो विश्वमक्रमेणाक्रामति । कीदृशः । वाटतं तुङ्गपर्वतशत याचापातस्य भाइत्या माइननेन क्रूरं यथा भवति तथाक्रन्दन्ते यानि तुछकच्छप कुलानि तेषां केकारशब्देोरीकृतः । कीदृश्या नद्याः । वर्वरवध्यमानपयसः । वर्वरी राक्षसः कोऽपि, अभ्यो वा कोऽपि महान् येन बध्यमानं पयो बस्यास्तस्याः । एषा बहुसमासा गौडीया रीतिः ।। २५० ।।
3
बबर नामक राक्षस के द्वारा रोके हुए जल वाली सिप्रा नदी का, अभिमान से तखाये हुए ऊँचे-ऊँचे सैंकड़ों पर्वतों के प्रस्तरों के गिरने से ताड़ित होकर अत्यन्त कठोर नाव करता हुआ, बड़े-बड़े आकार वाले कटुओं के समूह की ध्वनि से घोर स्व करने वाला, चारों ओर फैला हुआ अत्यन्त विस्तृत लहरों का यह शब्द सहसा विश्व भर में फैल रहा है।
दमण- इस श्लोक में दीर्घ समासयुक्त पक्षों के होने के कारण गौडी रीति है ।। १५० ।।
अथ वेदमुदाहरा
विप्राः प्रकृत्यैव भवन्ति लोला लोकोक्तिरेषा न सृषा कदाचित् ।
यशुध्यमानां मधुपैर्द्विजेश: लिव्यत्ययं कैरविण करायैः ।। १४१ ।।
1
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}
चतुर्थः परिच्छेदः ।
६५
यद्यस्मात्कारणाद्द्विजेशी विश्वन्दो वा मधुपैभवपैमरेश्व चुम्ध्यमानां कैरविण कुसु दिनी करालैः विध्यति । श्लेषालङ्कारः । एषा द्वितीया वैदर्भी रीतिः ॥ १५१ ॥
ब्राह्मण लोग स्वभाव से ही चंचल होते हैं - यह लोकोकि तनिक भी मिध्या नहीं है। क्योंकि देखो ! यह चन्द्रमा (अथवा ब्राह्मणों में श्रे व्यक्ति ) भ्रमरों ( अथवा मदिरापान करने वालों) के द्वारा सुम्बितकुमुदिनी ('भैरव' जाति की किसी सुन्दरी ) का किरणों ( अथवा हाथ ) से स्पर्श ( अथवा आलिम ) कर रहा है ।
टिप्पणी- इस श्लोक में या तो समस्त पद है ही नहीं अथवा अत्यन्त अप समास है। यह एतिकार है ॥१५५॥
उपसंहारमाद
अर्थेन येनाति चमत्करोति प्रायः कवित्वं कृतिनां मनःसु । अलक्रियात्वेन स एव तस्मिन्नभ्यूह्यतां हन्त दिशानयैव ॥ १५२ ॥ कृतिनां मनःसु येनार्थेन कवित्वमतिचमत्करोति अविचमत्कार मुत्पादयति । हन्त इति विचारे । स वास्तस्मिन्कवित्वेऽनयैव पूर्वोक्तदिशा क्रियात्वेनालङ्कारत्वेनाभ्यातां विचार्यताम् । समाप्ता रीतयः ।। १५२ ॥
इति वाग्भट कारटी कार्या चतुर्थः परिच्छेदः ।
दैलखन
काव्य-कला-मशों के मन में जिस अर्थ के कारण काव्य प्रायः अत्यन्त वष्कार को उत्पन करता है, उस ( काव्य ) में उस ( अर्थ ) को ही मेरे द्वारा बति रीति से अलङ्काररूप में समझना चाहिये ॥ १५१ ॥
परिच्छेद समाप्त
७ वा० नं०
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पञ्चमः परिच्छेदः 'कटरीतिरसोपेतम्' इति (रीतयो च्याख्याताः । अधुना ) रसानाह--
साधुपाकेऽप्यनास्वाद्यं भोज्यं निलेषणं यथा।
तथैव नीरसं काव्यमिसि बूमो रसानिह ।। १॥ यथा साधुपाकेऽपि भोज्यं निलंवणं लवणरहितभनास्वार्थ मवति तथा कान्यमपि नारर्स रसरहितमनास्वाभं भवति । इत्येतस्मात्कारणाव सान्नूमः ॥ १॥
निस प्रकार उसम से उत्तम रीति से पकाया हुआ भोजम भी नमक के बिना स्वादहीन रहता है, उसी प्रकार रसहीन काश्य भो अनास्वाध होता है। इसीलिये यहाँ पर रसों का वर्णन किया जा रहा है । ॥
विभाधैरनुभावैश्च सात्त्विकैर्व्यभिचारिभिः ।
आरोप्यमाण उत्कर्ष स्थायी भावो रसः स्मृतः ॥२॥ विभाव, भानुभाग, बभिमानभाव और मात्रिक मावों से परिपोष को प्रास करवाये गये स्थायीभाव को रस कहते हैं।
टिप्पणी-वियोषरूप से रसों की भावना कराने वाले सी, वसन्त और सघानादि को विभाव कहते हैं। 'साहित्यदर्पण'कार ने निभायों को इस प्रकार बतलाया है
'रस्थाणवोधको लोके बिभावः काग्यनाट्चयोः । मालम्बनोद्दीपनाख्यौ तस्य मेदावुभौ स्मृतौ । मालम्बनं नायकादिस्तमालम्ब्य रसोखमात् । उद्दीपन विभावारते समुदीपयन्ति ये ॥
भालम्बनस्थ चेष्टाधा ऐशकालाव्यस्तथा ॥ निमझे हारा सबमरूप से हृदय में उत्पन्न होने वाले रस का अनुभव किया जाता है उन्हें अनुभाव कहते हैं, जैसा कि साहित्यदर्पण में कहा गया है----
'उबुद्ध कारणः स्वः स्वैहिर्भावं प्रकाशयन् ।
लोके या कार्यरूपः सोऽनुभावः काभ्यनाट्ययोः॥" रजोगुण और तमोगुण से रहित सतोगुण से युफ स्तम्भ और स्वेदादि विकार साविक भाव कहलाते हैं। इसीलिये साहित्यवर्पण में कहा गया है
"विकाराः समयसम्भूताः साविज्ञाः परिकीर्तिताः । स्तम्मस्थेदोऽयं रोमान स्वरभङ्गोऽय वेपथुः ॥ वैवर्षमचपळय इत्यष्टौ सारिखकाः स्मृताः ॥'
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पञ्चमः परिच्छेदः ।
यभिचारी भाव उन्हें कहते हैं जो आदि पण्डितराज विश्वनाथ ने भी कहा है
去黾
से आग
'ये तुपकर्तुमायान्ति स्थायिनं रसमुत्तमम् । उपकृत्य च गच्छन्ति ते मता व्यभिचारिणः ॥' व्यभिचारी भावों को पुष्ट करने वाले भावों को संचारीभाव कहते हैं'रतिलभ शोकक्ष क्रोधोत्साही भयं तथा । जुगुप्सा विस्मयश्वरथमष्टौ प्रोकाः क्षमोऽपि च ॥ २ ॥ शृङ्गारवीरकरुणहास्याद्भुतभयानकाः ।
रौद्रबीभत्स शान्ताश्च नवैते निश्चिता बुधैः ॥ ३॥
एसेनब रसाः शृङ्गारादषः । नवानां रसानामेकैकः स्थायीभावः पृथक् पृथक् । श्रङ्गार, वीर, करुण, हास्य, अद्भुत, भयानक, वौद्र, बीभत्स और शाम्त ये नव रस आचार्यों के द्वारा बतलाये गये हैं ॥ ३ ॥
ते चामी
रतिर्हासश्च शोकञ्च क्रोधोत्साहभयं तथा ।
जुगुप्सा विस्मयशमाः स्थायिभावाः प्रकीर्तिताः ॥ ४ ॥
अभी क्रमेण नत्र स्थायिनो भावाः शृङ्गारहास्यक रौद्रवीरभयानक वीभत्साद्भुतशान्ताः क्रमेण नव रसा शेयाः । विशेषैग मावयन्युत्पादयन्ति रसमिति विभावाः स्त्रोवसन्तीथानादयः उत्पत्तिकारणानि । एभ्यः शृङ्गारोत्यत्तिरित्यर्थः । विमाषो रसकारणम् । तथा-अनुभूयते लक्ष्यते रस एभिरित्यनुभावाः कम्पस्वेदमुखविकारनेोखा सादयः । रसोत्पछी सत्यां पश्चाश्चे भावा जायन्ते तेऽनुभावा ज्ञेयाः । तथा साविक भावाः स्तम्भस्वेदरोमाञ्चाख्या अष्टौ समवगन्तव्याः । तथा व्यभिचारिणः सहचारिणो मात्रा धृतिस्मृतिमत्यादयः । भित्रिभावैरनुभाः सात्त्रियं भिचारिभिरुत्कर्षमा रोप्यमाणः स्थायीभावो रसः स्यात् । स्थायीभावः शृङ्गारादिरसरूपेण भवति । पूर्वोक्ताः स्थायिनो माना रत्यादयो विभावादिभिर्व्यक्तीकृताः सन्तो रसाः श्रारादयो नवापि भवन्तीत्यर्थः ॥ ४ ॥
( पूर्ववर्णित नव रसों के ) रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय और शम - क्रमशः वयेन स्थायिभाव गिनाये गये हैं ॥ ४ ॥
शृङ्गारस्वरूपमाह—
जायापत्योमिथो रत्यां वृत्तिः शृङ्गार उच्यते 1 संयोगो विप्रयोगश्चेत्येष त द्विविधो मतः ॥ ५. ॥
तु
जायापत्योः कलभर्ती रयां प्रीत्य मियो वृद्धिः परस्परवर्णनं भार उच्यते । एव शृङ्गारो विविधो मतः । कथम् । संयोगो विप्रयोगम। संयुक्तयो दम्पत्योः सम्मो (मोगात्मकः कारः वियुक्तस्तु विश्वम्भात्मकः पारः ॥ ५ ॥
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१००
वाग्भटालङ्कारः ।
श्री और पुरुष के परस्पर प्रेम को शृङ्गार कहते हैं। यह श्रङ्गार दो प्रकार का होता है- संयोगकार और विप्रलम्भकार ॥ ५ ॥
तौ तयोर्भवतो वाच्यौ बुधैर्युतवियुक्तयोः । प्रकाशश्च पुनरेष द्विधा मतः ॥ ६॥
प्र
तो संयोगविप्रलम्मौ तयोर्जायापत्योः क्रमाधुक्तः वियुतयोर्युधैर्वाच्यौ भवतः । पुनरेष शृङ्ग ररसो द्विधा मतः । प्रध्युनश्च प्रकाशन । विशेषमयतो शापयिष्यामः ॥ ६ ॥ अलङ्कारास्त्री उन (स्त्री और पुरुष ) के मिलन को संयोगशृङ्गार और उन ( स्त्री-पुरुष ) के वियोग को विप्रलम्भश्वकार कहते हैं। पुनः कार के दो भेद और किये गये है-प्रकट और अप्रकट || ६ ||
अथ शृङ्गाररसनायकमाह
-
रूपसौभाग्यसम्पन्नः कुलीनः कुशलो वा ।
अनुद्धतः सूनृतगी: ख्यातो नेतात्र सद्गुणः ॥ ७ ॥
अत्र शृङ्गारे नेता नायकः कथितः । कीदृशः । रूपसौभाग्ययुक्तः । रूपशब्देन लावण्यम् । कुलीनः सुकुलोद्भवः । कुशलः सकलकलाकोविदः । युवा चौदने वर्तमानः । अनुद्धतः सौम्याकृतिक्रियः । सूनुतः सत्यदा । सः ! ७ ॥
यहाँ (
रस में) नायक है वह रूप और सौभाग्य से सम्पन्न, साकुलोटस, ( कक्षाओं में ) दण, सौम्य स्वभाववाला, सत्य एवं मधुर वाणी बोलनेवाला, सद्गुणी और युवक होता है ॥ ७ ॥
अयं च विबुधैरुक्तोऽनुकूलो दक्षिणः शठः ।
'वृष्टश्वेति चतुर्धा स्यानायिका स्याश्रतुर्विधा ॥ ८ ॥
अयं च नायको विबुधैश्रतुषउक्तः । अनुकूको दक्षिणः शठी धृष्टश्वेति । अस्य नायकस्थ नायिका चतुविधा स्वात् ॥ ८ ॥
विद्वानों ने उस नायक के चार भेद इस प्रकार किये हैं- अनुकूल, दक्षिण, शक और घृष्ट। इसी प्रकार से नायिकाओं के भी चार भेद हैं (जिनका उल्लेख आगे किया जायगा ) ॥ ८ ॥
-
अयानुकूलादीनां लक्षणान्याद - अनुकूललक्षणं माया
नीली रागोऽनुकूलः स्यादनन्यरमणीरतः । दक्षिणश्चान्यचित्तोऽपि थः स्यादविकृतः स्त्रियाम् ॥ & ॥
नीरागोऽनुकूलो भवति । यथा-नीकी गुली तस्या राम्रो नीसरति । सोऽनुकूलो नायकः परं सोऽन्यरमगीरतो न स्यात् । अन्यस्य वित्तं यस्य सोऽन्यचित्तः स दक्षिणो भवति । कोष्टक् । स्त्रियामविकृतः सपत्न्य विकार मारणस्यान कुट्टनादिकं न दर्शयतीत्यर्थः ॥ ९ ॥
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पचमः परिच्छेदः ।
. १०१
'अनुकूल' नायक बद्द है जो किसी अन्य स्त्री में आसक न हो वरन् जिसका अपनी स्त्री में अनुराग 'नील' के सम्मान पक्षा हो । जो नायक अन्य स्त्री में आसक होने पर भी अपनी स्त्री के प्रति प्रेम में विकार नहीं उत्पन्न होने देता उसे 'दक्षिण' नायक कहते हैं ॥। ९ ॥
21166
प्रियं वत्यप्रियं तस्याः कुर्वन्यो विकृतः शठः ।
धृष्टो ज्ञातापराधोऽपि न विलम्ोऽवमानितः ।। १० ।।
तथा यो विकृतो विकार मापन्नस्तस्याः स्वपल्या अप्रियं कुर्वन् प्रियं वक्ति सठनायकः । यो तापि विलक्षो न भवति स धृष्टनायकः ॥ २० ॥
ओ परोश में सो अपनी स्त्री का अहित करता हो किन्तु उसके सामने पड़ते ही ( उसे दिखाने के विकार उत्पक्ष न होने शंकर मीठी मीठी (बनावटी) बातें करता है उसे 'शट' नायक कहते हैं। और 'ट' नायक वह है जो ( परस्त्रीगममरूप ) अपराध प्रकट हो जाने से अपनी स्त्री के द्वारा अपमानित होने पर भी सृजित नहीं होता ॥ १० ॥
अथ सामान्येन चतुविधा स्त्रियमभिषते - यथा काररसस्य नामको युवा पुमान्प्राकथितस्तस्य नायकस्य पुरुषरूपस्य नायिकापि चतुर्विधा भवति । सामाद
अनूढा च स्वकीया च परकीया पणाङ्गना ।
त्रिणिः स्वकीया स्यादन्याः केवलकामिनः ।। ११ ।।
त्रियश्चतुर्विधाः । अनूदा स्वकीया परकीया पथ्याना च । श्रवर्गिणो धर्मार्थकामयुतस्य स्वकीया परिणीता स्वात् । भन्या समूहाचास्तिस्रः कामिनी भवन्ति ॥ ११ ॥
नायिका चार प्रकार की कही गई है--अनूखा, स्वकीया, परकीया और पराङ्गना । इसमें जो स्वकीया नायिका है वह उस नायक की होती है जो धर्म, अर्थ और काम की इच्छा रखता है; और जो केवल कामी नायक होते हैं उनके हि अम्ब (अनूढा, परकीया और पराङ्गना ) नायिका हैं ॥ ११ ॥
आसां खक्षणमाह
अनुरकानुरक्तेन स्वयं या स्वीकृता भवेत् । सानूदेति यथा राज्ञो दुष्यन्तस्य शकुन्तला ॥। १२ ।
अनुरक्तेन नरेणानुरक्ता सती या स्वीकृता भवति सानूढोच्यते । यथा- दुष्यन्तस्य रामः शकुन्तला नायिका ॥ १२ ॥
शो ( अविवाहिता) अनुरका नापिका किसी आसक नायक के द्वारा (बिना गुरुजनों की आशा के ) स्वयं ही स्वीकार कर की जाय, उसे 'अनुता' नायिका कहते हैं । जिस प्रकार राजा दुष्यन्त की नायिका वाकुन्तका श्री ॥ १२ ॥
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१०२
वाग्मदालङ्कारः। देवतागुरुसाक्ष्येण स्वीकृतास्वीयनायिका ।
अमावस्यतिगम्भीरप्रकृतिः सचरित्रभृत् ।। १३ ।। देवतागुरुसाक्ष्येण स्वीकृता स्वीयनायिका स्वकीया समवगन्तया । सा क्षमावती अति- । गम्भीर प्रकृतिः सचरित्रभुत्प्रधानचरित्रवती ॥ १३ ॥
जो समाशील, अरमन्त गम्भीर प्रकृतियाली, सचरित्रता से युक्त श्री देवता और गुरुजनों को सामान कर स्वीकार की जाती है, उसे 'स्वकीया नापिकार कहते हैं ।। १३॥
परकीयाप्यनूढेव वाच्यभेदोऽस्ति चानयोः। ..
स्वयमप्यतिकामैका सख्येवैका प्रियं घदेत् ।। १४ ।। परकीमापि स्त्री अनूढेब वाच्या । परमनयोः परकीयानूदयोवाच्यभेदोऽस्ति न तापविशेषः कोऽपि । तथापि विशेषमाइ-पका परकीया मतिकामाला सता स्वयमपि कि नोट, एका निलीया न्यनता सदा स्वयं न बहेत् । तर कामाकुला सती सस्यैव सखीहारेणैव प्रियं वदेत् ।। १४ ।।
'परकीया' मी 'अमूहा' के समान ही होती है। उन दोनों में केवल कहने भर का भेव है। किन्तु एक (परकीया) अत्यन्त कामातुर होकर स्वयं ही निक वचों से अपने ( सुरति-अभिलाषारूप) माशय को प्रकट करती है और दूसरी (अनूला ) अपने आशय को सखी के द्वारा हा व्याक करतो है ॥ १५ ॥
सामान्यवनिता वेश्या भवत्कपटपण्तिा ।
न हि कश्चिप्रियस्तस्या दातारं नायकं विना ।। १५ ।। अथ सामान्यानता कपटपण्डिता बेड्या पण्याङ्गना भवेत् । तस्या दासारं विना नायक न हि कश्चिप्रियो मवति । यो दासा स एव नायकस्तासा नान्यः प्रिय इति ॥ १५॥
छल-कपट में चतुर वेश्या 'परामना' कहलाती है। धन देने वाले नायक के श्वसिरिक उस नायिका को और कोई भी व्यक्ति प्रिय नहीं होता ॥५॥ अध पृङ्गारस्थ काशप्रच्छन्नमैदृदयमाइ
सर्वप्रकाशमेवैषा याति नायकमुद्धता।
. याच्या प्रच्छन्न एवान्यश्लीणां प्रियसमागमः ।। १६॥ एषा पण्याङ्गनीरता सता सर्वप्रकटमेव नायकं पति पाति । प्रकाशो रसः। अन्यत्रीण प्रियसमागमः प्रश्छन्न एव मवति । एष प्रच्छनः शृङ्गाररसः। समाप्तः संभोगकारः ||१६||
यह (वेश्या) कामातुर होकर सबके सामने ही अपने मायक के पास चर्म जाती है। किन्तु अन्य (बमूढा, स्वकीया और परकीपा) नापिकाओं का अपने प्रिपसम के पास समागम गुप्त ही पणित किया जाता है ।। १६ ॥
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पञ्चमः परिच्छेदः। विपक्षम्मकारमाह
पूर्वानुरागमानात्मप्रशासकरुणात्मकः ।
विप्रलम्भश्चतुर्श स्यात्पूर्वपूर्वो ह्ययं गुरुः ।। १७ ।। पूर्वानुरागात्मको विप्रलम्मो मानास्मको विप्रकम्मः प्रबासात्मको विप्रलम्भः करुणामको विप्रलम्म इति विप्रलम्मश्वतु । अयं विप्रलम्भः पूर्वः पूर्वो शुरुः। मानारपूर्वानुरागों गुरु. रियर्थः ।। १७ ॥
विपलम्म ऋकार चार प्रकार का होता है-पूर्वानुरागात्मक, मानारमक, प्रवासात्मक और करुणात्मक । इममें क्रमशः पूर्व प्रकार का वियोग उत्तरोत्तर से श्रेष्ठ समझा जाता है। जैसे करुणास्मक की अपेक्षा प्रवासात्मक, प्रवासात्मक की अपेक्षा मानात्मक और मानात्मक की अपेक्षा पूर्वानुरागारमक विप्रलाम उसम माना जाता है ॥ १७ ॥ अथ कमेणतेषा लक्षणान्याह
स्त्रीपुंसयोन्यालोकादेवोल्लसितरागयोः ।
ज्ञेयः पूर्वानुरागोऽयमपूर्णस्पृहयोर्दशा ।। १८ ॥ गारगोनबालोलान नवनियोः परापूयोर्दशावस्था । मर्य पूर्वानुरागविप्रलम्मः शृङ्गारः ॥ १८ ॥
प्रथम दर्शन (अयवा श्रवण) मात्र से ही जिन स्त्री-पुरुषों में परस्पर अनुराग उपस हो गया हो, किन्तु जिनकी समागमाभिलाषा अभी पूरी न हुई हो उन स्त्री-पुरुषों की दशा को पूर्वानुराग कहते हैं ॥ १८॥ . .
मानोऽन्यषनितासङ्गादीया विकृतिरुच्यते ।
प्रवासः परदेशस्थे प्रिये विरहसम्भवः ॥१६ तथा पश्युरन्यवनिवासमारपस्न्या या यावितिरीम्मेया विकारो मवति स मानात्मको विप्रकम्मकारः। तथा परदेश भर्तरि पत्न्या विरहर्समवः प्रवासात्मको विप्रलम्मा कारः।। १९ ॥
प्रिय के अन्य स्त्री में प्रासक होने के कारण ईध्यविश नायिका के हृदय में जो विकार उत्पन्न हो जाता है उसी को मान कहते हैं। और मिय के परदेश में होने पर जो वियोग उत्पन होता है उसको प्रवास कहते हैं ॥ १९ ॥
स्यादेकतरपञ्चत्वे दम्पत्योरनुरक्तयोः ।
शृङ्गारः करुणाख्योऽयं वृत्तवर्णन एव सः ।।२०॥ अनुकुलयोर्दम्पत्योर्मायापल्योरेकतरपञ्चस्वे दयोरेफ़सर विनाशे करुणात्मको विप्रलम्ममकारः। स वृसवर्णन एन भवति । अन्ये हास्याबवावयो रसा वृत्ते श्लोक वा सम्पूर्यन्त ।
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वाभिटाला। अयं तु प्रकारकरणाख्यो त्चवर्णने सम्पूर्ण प्रबन्ध भवति । यथा रसिविखाप कुमारसम्भरे ।। __परस्पर अनुरक्त स्त्री-पुरुष में किसी एक-सी अथवा पुरुष के देहावसाम हो जाने पर करुण नार उत्पन होता है। (करम शार) सवर्णन में ही होता है (जैसे कि 'कादम्बरी' में पुण्डरीक और महाश्वेता का दूधान्त ) ॥२०॥
शृगाररसं सत्सम्बन्धि चान्यदपि सर्वमुक्त्वा वीरावीरसानानत्र वीरमाह
उत्साहात्मा भवेद्वीरखिधा धर्माजिदानतः ।
नायकोऽत्र भवेत्सर्वैः ममाव्यैरविगतो गुणैः ॥ २१ ॥ दौरो रस उस्साशस्मा मदति। सत्रिधा-धर्माजिदानवः धर्मवीरः संग्रामवीरों दानवीर इति । अत्र वीररसे सर्वैः श्लाघनीयगुणैरधिगतो नायको भवति ॥ २१ ॥
वीर रस का स्थायीभाव 'उत्साह है; यह (वीर रस) तीन प्रकार का होता है-धर्मवीर, युद्धवीर और दामवीर । यहाँ (वीर रस का) मायक सभी प्रशंसनीय गुणों से सम्पक रहता है ॥९॥ करुणमा
शोकोत्थः करुणो शेयस्तत्र भूपातरोदने । . वैवर्ण्यमोहनिर्वेदप्रलापाशूणि कीतयेत् ॥ २२॥
करुणो नाम रस शोकोस्था शोकात्मको छातभ्यः । तत्र रसे भूपातरोदने वैवर्ण्यमोक निवप्रलापाणि कीर्तयेत् । भूपाती भूमौ मुठन तथा रोदनम् , पैवयं विवर्णमावः, मोहो मौख्यम् , निवेदो विषादः, मलाः प्राष्टं सपनम् , मणि अपातः । करुणरस एले भवन्ति भावार । भतोड रसे प्रवे भावा वर्धन्ते || २२ ।।
सोक से प्रत्यक्ष (अथवा शोक स्थायीभाष पाळे) रस को करुण कहते हैं। इस (कक्ष्य पक्ष) में पृथ्वी पर (पलाद खाकर) गिरना, कम, (मुख का) पीलापन, मूळ, वैराग्य, प्रलाप और अभुषों का वर्णन किया जाता है ॥ २२ ॥ वास्थमाइ
हासमूलः समाख्यातो हास्यनामा रसो बुधैः ।
चेष्टाङ्गवेषकृत्याद्वाच्यो हास्यस्य चोद्भवः ॥२३॥ हास्यनामा रसो उहाँसमूलः समाख्यातः । तस्य हास्यरसल्य सम्भव उत्पत्तिश्चेष्टरअमेषवैकल्यादति ॥ २३॥
'हास्य' का स्थायीभाव है सी; यह (हास्य रस) प्रामः पेटा, RF और बेरजनित विकार से उत्पन होता है ॥ २६
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पञ्चमः परिच्छेदः ।
अथोचममध्यमाधमभेदेन हास्यरसस्वरूपमाह -
कपोलाक्षिकतोला समोष्ठे तिम्रन्स उत्तमः | मध्यमानां विदीर्णास्यः सोऽवराणां सशब्दकः ॥ २४ ॥
कपोला क्षितौलासमोष्ट तिनो मात्रा भवति स सत्तमः । मध्यमानां विदीप्रसूताननो भवति । स च हास्यरसोऽवराणां नीचानां सशदको महाशब्दसहितो भवति ॥ २४ ॥
हास्य के तीन भेद बतलाये गये हैं-सजमों की इसी ऐसी होती है कि उनके कपोल और नेत्र तो प्रफुलित हो उठते हैं किन्तु उनके ओठ नहीं सुने पाते ( इसे मन्दस्मित कहते है ) । मध्यम श्रेणी के व्यक्तियों की इसी में उनका मुख खुल जाता है (जिससे दाँत दिखाई देने लगते हैं ); किन्तु नीच जनों का हास्य युक्त होता है (जिसे अट्टहास कहते हैं ) ॥ १४ ॥
श्रद्धतमाद
विस्मयात्माद्भुतो ज्ञेयः स चासम्भाव्यवस्तुनः । दर्शनाच्छ्रवणाद्वापि प्राणिनामुपजायते ॥ २५ ॥
अद्भुत रसो विस्मयस्पाचिभावात्मकः । स च प्राणिनामसम्भाव्य वस्तुनी दर्शनाच्छ्रचणाद्वा समुपजायते । एतेनास्य द्विधोत्पतिरभिहिता ॥ २५ ॥
१०५
अद्भुत रस का स्थायीभाव आचर्य है। वह ( अद्भुत ) रस प्राणियों (के हृदय ) में सब होता है जब वे किसी असम्भव वस्तु को देखते अथवा
सुनते हैं ॥ २५ ॥
अस्व रसस्य निमाबादीन्दर्शयति-
तत्र नेत्रविकासः स्यात्पुलकः स्वेद एव च । निःस्पन्दनेत्रता साधुसाधुत्रामाद्वदा च गीः ॥ २६ ॥
तत्राद्भुतरसे जाते त्रयोविकासः स्यात् । रोमादरमेदौ भवतः । निःस्पन्द नेत्रत्ता सवति । नेत्राणि निःस्पन्दानि भवन्ति । साधुसाधुवाग्भवति 1 गीगंइदा च स्यात् ॥ २६ ॥
यहाँ ( अद्भुत रसमें) नेत्र विकसित हो जाते हैं, शरीर पुलकित हो उठता है, पीका भा जाता है, नेत्रों की स्फुरणा बन्द हो जाती है, ( देखने वाले के ) सुख से 'साधु साधु' का शब्द निकल पड़ता है और वाणी गद्गद हो जाती है ।
भयानकमाइ -
भयानको
भवेद्भीतिप्रकृति घौरवस्तुनः । स च प्रायेण वनितानीघालेषु शस्यते ॥। २७ ॥
ज
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वाजतागीर
भयानको रसो घोरवस्तुदर्शनाद्भवेत् । भीतिप्रकृतिमयस्वभावः। स मयानको रसः प्रायोग स्त्रीषु नीचेषु बाळेषु प्रशस्यते। मपरसो म्यावण्यमानी नूनमेसेष्वैव शोमते नान्यत्रास्य दीतिः ॥ २७ ॥
भयानक का स्थायीभाव भय है। वह (भय) किसी भयङ्कर वस्त को देखने से उत्पन्न होसा है। भयानक रस का वर्णन प्रायः बी, नीच जन और बालकों के सम्बन्ध में ही किया जाता है ॥ २० ॥ इदानीमस्य विभावादीन्दर्शयति
दिगालोकास्यशोषाङ्गकम्पगद्गदसम्भ्रमाः ।
वासवर्ण्यमोहाश्च वर्ण्यन्ते विचुबैरिह ।। २८ ।। अस्माद्भयानकादेले पदार्था उत्पन्न । अतोऽत्र रसे एते व्यावयन्ते । एते के । दिगालोको दिग्दर्शनम्, मुखशोषः, शरीरकम्पा, गद्दा वाणी, संभ्रमः, तथा प्रासः, षण्य विवर्णभावः, मोहो मूहता। सर्वन मुश्चति भयेन । हामी वय॑न्ते बुधैर्मावाः ॥ २८ ॥
विद्वानों ने भयानक रस के अनुभावों का वर्णन इस प्रकार से किया है-चारी मोर देखना, मुंह का सूखना, (हाय-पाँध आदि) का कॉपमा, वाणी का स्खलन, सम्भ्रान्ति, भय, शरीर पीला पड़ जाना और भूपा ॥ २८ ॥ . रौद्ररसमाह
क्रोधात्मको भवद्रोद्रः क्रोधश्चारिपराभवात । भीमवृत्तिवेदुभः सामर्शस्तन नायकः ।। २६ ।। स्वांसाघातस्वशंसात्रोत्क्षेप कुदयस्तथा ।
अत्रारातिजनाक्षेपोवृद्धेलनं चोपवर्ण्यते ॥ ३० ।। रौद्ररसः कोयात्मको भवति । कोपवारिपराजपाद्भवति । अरिक्तपराजयात्रोषः। यदा योऽरिणा पराजायते तदा तस्य क्रोषो जायत इत्यर्थः । तथा रौद्रे भीमतिकमा सामर्षों नरो नायको भवेत् ॥ २०-३० ॥
रौन रस का स्थायोमाव कोष है जो श द्वारा तिरस्कृत होने पर सरपण होता है। इस (रोदरस) का मायक भीषण स्वभाव वाला, उम्र और क्रोधी माना गया है ।। २९॥
रौद्र रस के अनुभाव है-अपने कन्धों को पीटमा, आरमश्लाघा, अनादि का कमा, कटि का टेवा हो जाना, शत्रुओं की निन्दा और मर्यादा का उपबंधन करमा ।। ३०॥
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PalmĘ --
पचमः परिच्छेदः ।
श्रीमत्सः स्याजुगुप्सातः सोऽधश्रवणेक्षणात् । निष्ठीवनास्यभङ्गादि स्यादत्र महतां न च ॥ ३१ ॥
श्रीमत्सोरसी जुगुप्साभावप्रभवः स्यात् । विमाबादीनस्थोद्दिशति । स चाश्रवणाद विरूपपदार्थाकर्णनात् विरूपषस्तुनो दर्शना । निष्ठीवन कुत्सितास्यभङ्गादि स्यात् तद्भावसम्पन्नः स्यात् । परं महतामुत्तमानां निष्ठीवनादयो मात्रा न प्रयोक्तभ्यः ॥ ११ ॥
'शान्तमाद
का स्थायीभाव जुगुप्सा है। वह अग्राह्म ( अथवा ग्लानि उत्पन्न करने वाली वस्तु ) के देखने-सुनने से उत्पन्न होता है। थूकना और मुखादि को विकृत करना आदि इसके अनुभाव हैं; किन्तु इन ( थूकना आदि ) अनुभावों का वर्णन उत्तम जनों के सम्बन्ध में नहीं किया जाता ॥ ३१ ॥
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सम्यग्ज्ञानसमुत्थानः शान्तो निःस्पृहनायकः । रागद्वेषपरित्यागात्सम्यग्ज्ञानस्य
चोद्भवः ।। ३२ ।।
शान्तो रसः सम्यग्वानसमुत्यानो भवति । अस्य शान्तरसस्य निःपड़ी नायको भवति । शान्तरसवान्निःस्पृही भवति । स शान्तरसो रागद्वेषपरित्यागात्सम्यग्ज्ञानस्य सम्भव उत्पत्तिकारणम् ।। ३२ ।।
शम अथवा तश्व-ज्ञान से शान्तरस की उत्पति होती है। शाम्सरस का नायक (पुपवनादि की ) इच्छाओं से रहित होता है। यथार्थ ज्ञान की उत्पत्ति रागद्वेषादि के परित्याग से हो होती है ॥ ३२ ॥
दोषैरुज्झितमाश्रितं
गुणगणैश्चेतश्रमस्कारिणं
नानाल कृतिभिः परीतमभितो रीत्या स्फुरन्त्या सताम् | तैस्तैस्तन्मयतां गतं नवरसैराकल्पकालं कवि
स्वष्टारो घटयन्तु काव्यपुरुषं सारस्वताध्यायिनः ।। ३३ ।।
सारस्वताध्यायिनः कविस्तार आकल्पकार्क कल्पकालं यावत् काव्यपुरुषं घटयन्तु चरयन्तु । कीदृक् । विशेषणानि सुगमानि ॥ २३ ॥
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________________ वाग्भटालार! लाटी हास्यरसे प्रयोगनिपुणे रतिः प्रबन्धे कृता पालाकी करुणा भयानकरसे शान्ते रसे मागभी / गोडी वीररसे च रौद्रजरसे वस्सोमदेशैरवा . बीमसासुतयोविंदर्मविषया कारभूते रसे / / द्वित्रिपदा पाशाली लाटीया पडता वा यावद / शवाः समासवन्तो भवति यथाशक्ति गौडीया // प्रथमपदा पत्सोमी त्रिपदसमा चापि मागषी मवति / उभगोरपि वैदी मुर्मुर्भाषणं कुरुते / / समासेष श्रीवाग्भटालकारटीका। वामय के अभ्यता कपि, प्रजापति (मानर्थयादि) छोपी से रहिस। (ौदार्यादि) गुणों से युक, (उपमादि) भनेक अलमारी से मम में चमत्कार को उत्पन्न करने वाले, (वैवी आदि)रीतियों से शोभित, ( शृद्धारादि)मवरस के कारण तम्मयता को प्राप्त कराने वाले कास्यपुरुष की विकास करम करते रहे // 26 // पचम परिसले समात 21166 समाप्तश्चायं मन्यः