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वाग्भट का निवासस्थान 'अगदिलपट्टन' ( अनहिलघाट ) प्रतीत होता है । वाग्मट ने अपनी नंगरंभूमि का इस प्रकार स्मरम किया है
'अणदिनपाटकं पुरमथानिपतिः कर्णदेवनृपसूनुः। श्रीकलानामधेयः करी - नमामि हातीह ।'
(वाग्भालनार ४. १३१) अर्थात् जगतातल के प्रत्यक्ष दृश्यमान 'रमन्त्रय' में प्रथम रस है अणहिल्लपाटननामक नगररन, द्वितीय रस है चालुक्य श्रीजयसिंहदेवनामक रामरक्ष और तुतीय रश है श्रीकलशनामक गजरमा । ..
वाग्मट की उपर्युक्त तूक्ति 'समुच्चय अलमार की उदाहरण-सूक्ति है जिसमें 'अत्युत्कार वस्तुओं का एकत्र निबन्धन' प्रदर्शित किया गया है। 'अनहिलवाड' के प्रति वापभट का अंगाद स्नेह मिनासभूमि के प्रति कति की दशानाक्ति का ही परिचायक है। जैनधर्म के रसत्रय' के महान् आदर्श और अनहिल वाह, चालुक्य जयसिंहदेव और श्रीकलशगजराज के परस्पर उपमानोपमेयभाव का प्रदर्शन तब तक कोई स्वारस्य रखता नाही असीत होता जब तक वाग्भट और अनहिलवा का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध न मान लिया जाय ।।
वाम्मट और चालुक्य श्रीजयसिंहदेव का सम्बन्ध तो सिद्ध ही है क्योकि बाग्भटालार की कतिपय मुक्तियों औजयसिंहदेव की स्मृति और प्रशस्ति काही अभिप्राय रखती है। उदाहरण के लिये यह सूक्ति'इन्द्रेण किंदिल कर्णमरेन्द्रसद्धररावतेम किमही पवि सहिपेन्द्रः । एम्भोलिनाऽप्यसमा यदि तपतापर स्वर्गीयपं मनु मुषा यदि तत्पुरी सा॥'
(वाग्भालार ४.७५) ओ कर्णराज के पुत्र चालक्य श्रीजयसिंहदेव को इन्द्र का समानधर्मा बताती हुई वाग्भट के राजप्रेम की सूचना दे रही है। इसी प्रकार यह सूक्ति
'सगदात्मकीर्तिशुनं जमादामधामदोपरिधः ।
जयक्ति प्रतापपूषा जयसिंहः क्माधिनाथः - ( वाग्मटालङ्कार ४.४५) जिसमें चालुक्य श्रीजयसिंहदेवका नाग-संकीर्तन स्पष्ट है, वाग्भट और समसामयिक चालुक्यदरवार के पारस्परिक सम्बन्ध का स्पष्ट प्रमाण है।
वाग्भट ने चालुक्य श्रीजयसिंहदेव का और भी विशद वर्णन किया है'इन्द्रः स एष पवि किं न सहस्रमणो लचमीपतिर्यदिक म चतुर्भोऽसौ। श्राः स्यम्बनमारतोचरतानथूब श्रीकर्णदेवपसरपं रणाप्रे ।'
(वाग्भटालकार ४.८०)