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'भाइबस्न पौरुषगुणाअपसिंहदेवपृथ्वीपते मंगपसेच समानभाषाः ।
किस्कतः मतिमदाः समरं विहाय खनो विश्चन्सि बनमन्पमशकमानाः ॥' जिससे यह स्पष्ट है कि कवि को अपने आश्रयदाता चाचपय श्रीजयसिंहदेव पर अभिमान है और चालुक्यराज्य के ताम्रचूड-ध्वज के गौरव का ध्यान है।
प्रो० वूडर के अनुसार अनहिलवाइ के चालुक्यराजवंश की जो बंशावली हुँ उसमें श्रीजयसिंहदेव का राज्यकाल १०९३ से ११४३ ० तक निर्दिष्ट है। इस प्रकार वाग्भट का भी समय उपर्युक्त हो सिद्ध होता है।
'वाम्मटालङ्कार' के रचयिता वाग्भट का उपर्युक्त कार्यकाल अन्य प्रमाणों से भी सिस किया गया है। श्री प्रभाचन्द्रमुनिरनित 'प्रभावकचरित' में वाग्भट के संबन्ध में जो यह उछेड है
'अयास्ति साहको नाम प्रधान पारिकाप्रणी। गुरुपादान् प्रणम्याथ पाके विज्ञापनामसौ॥ धादिश्यतामतिमाभ्यं स्यं यत्र धर्न प्यये । ममुराहालये जैने इम्यस्य सफलो व्ययः॥ मादेशानन्तरं सेनाकार्यस श्रीजिनालयः । हेमाद्रिभवलस्तुको दीप्यरकुम्भमहामणिः ॥ श्रीमाता वर्धमानस्थाचीभरदिग्बमुतमम् । पसेजसा जितानम()कारसमणिपभार ॥ पासकावाके साएसप्तती विकमार्कतः। वत्सरार्णा म्यतिकान्ते श्रीमुनिश्चन्द्रसूरयः ।। भाराथमाविभिश्रेष्ट कृत्वा प्रायोपवेषानम् । शमपीयूषकझोलप्लुतास्ते ब्रिदिवं ययुः ॥ वत्सरे तत्र बकेन पूर्ण श्रीदेवमूरिभिः ।
भीवीरस्य प्रसिद्ध स पाहोकारयम्मुदा । उसका यही अभिप्राय है कि वाग्भट ५१२३ ई० (११७९ विक्रम संवत ) के हैं और उनका नाम थाइड' रह चुका है जिसका संस्कृत रूपान्तर 'वाग्भट है। वाग्भट एक धनी किंवा परम धार्मिक जैनोपासक हो चुके हैं और उन्होंने जिनालय-जैनमन्दिर की स्थापना में अपने धन का सल्यय किया था। प्रभावकचरित की ये पंक्तियाँ मी वाग्भट के उपयुक्त कार्यकाल की ही पुष्टि बरती है:
अणहियापुर प्राप मापः प्राजयोदयः । महोत्सवप्रवेशस्य गजारूठसुरेन्द्रवत् ।।