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वाग्भटास्य विहारं मदरसे प्रसाधनम् । अन्येचुर्वाग्भटामात्यं भर्मास्पतिकवासनः अपृच्छताइवाचारोपदेष्टा गुहं नृपः ।। अोमवाग्भटदेवोऽपि जीर्णोद्धारमकारयत् ।
शिखीन्दुरविवर्षे (११) ध्वजारोप म्यधापयत् ।' अर्थात् विक्रम संवत् १२१३ ( ११५७ ई.) में अमात्यप्रवर वाग्भट ने जैनविहार का जीर्णोद्धार किया और एक ध्वजस्तम्भ की स्थापना की।
वाग्मटालवार का प्रचलन वाग्भयालयार की कई एक प्राचीन कायें हैं जिनमें १५:सिद्ध
(१) जिनवर्धनसूरिप्रणीत टाँका । (२) सिंहदेवगणिप्रशीत टीका । (३) शेमहंसगशिप्रणीत टीका 1 (४) अनन्तभट्टसुत गणेशमगीन टीका।
(५) राजहंसोपाध्याय प्रणीत टीका । इन टीकाओं से वाग्भटालाकार के सममामयिक प्रचलन और पठन-पाठन का पर्याप्त परिचय मिलता है।
__ वाग्भटालङ्कार : विषय-परिचय वाग्भटालवार के रचयिता वाग्भट प्रथम का प्रन्ध छोटा होते हुये भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है । साहित्य शास्त्र के जिशासओं की साहित्यविषयक जिज्ञासा इस एक ही लघुकाय ग्रन्थ से पूरी हो सकती है-यह कहने में अत्युक्ति न होगी। ग्रन्थ के नाम करण से अन्धकार का अभिप्राय अलकारशास्त्र पर एक अन्य का प्रणयन करना प्रतीत होता है किन्तु अन्य को आयोपान्त पड़ जाने के उपरान्त शात होता है कि वाग्भट ने. अपने उद्देश्य से भी अधिक महत्वपूर्ण एवं काव्योपयोगी सामग्री को इस छोटे से ग्रन्थ में सन्निनिष्ट कर दिया है।
'वाग्मटालङ्कार' पाँच परिच्छेदों में विभक्त है। प्रथम तीन परिच्छेदों में काज्यसम्बन्धी आवश्यक बातों पर प्रकाश डाल चुकने के पश्चात् चतुर्थ परिच्छेद में अलङ्कारों का विवेचन किया गया है । तत्पश्चात् अन्तिम परिच्छेद में रसादि विषयों का निरूपण करके ग्रन्थ को समाप्त किया गया है। अन्ध में सन्निविष्ट सम्पूर्ण सामग्री पर एक विहंगम दृष्टिपात कर लेने से अन्य का सम्पूर्ण कलेवर हस्तामलकवत हो जायेगा। इससे अध्ययन