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मध्यापन में सुविधा हो सकेगी। इस उद्देश्य से निम्न पंक्तियों में पृथक् पृथक परिच्छेद में किन-किन विषयों का निरूपण किया गया है—यह दिग्हाया जा रहा है।
प्रथम परिच्छेद मङ्गलाचरण से प्रारम्भ होता है । मङ्गलाचरण की प्रथा भारतीय शास्त्र में अत्यन्स प्राचीन है। आचार्यों ने तीन प्रकार के मामाचरण बतलाये है-आशीनाम नमरितामामा और निगमक ' माले पहले कहा जा चुका है, आचार्य वाग्भर जैनमतावलम्बी थे। अतः उन्होने 'नामेयजिन' की स्तुति करते हुए नमरिकलात्मक मङ्गलाचरण किया है । जैन वाग्भट के लिये भगवान् जिन ही सर्वशक्तिमान् हैं, उनकी शास्त्रनिीत सिद्धान्त-परम्परा सजगों के लिये गोक्षमार्ग का निर्देश करनेवाली है, अतः उनको स्तुति से ही श्री की प्राप्ति भी सम्भव है। मङ्गलोक के उपरान्त अन्धकार को अपनी अभीष्ट-सिद्धि अलकारशास्त्र का अध्ययन करना है। आखिर बत्यारों की कोई स्वतन्त्र सत्ता मी है या केवल अहङ्कार-निरूपण से ही ग्रन्थकार को सन्तोष हो जाय ? वह तो काव्य का अङ्ग है। अङ्ग को समझने के लिये अङ्गी का विचार कर लेना आवश्यक होता है और विषय-प्रतिपादन में साहायक मी। अतः मालाचरण के अनन्सर अलङ्कार का अङ्गीभूत काव्य का पल बताया गया है। फल के शान के निमा किसी वस्तु में रुचि भी तो नहीं उत्पक की जा सकती। अस्तु ! __आवार्य धाग्भट के अनुसार सत्कान्य की सष्टि कीर्ति-प्राशि के लिये है। यहाँ यह ट्रष्टव्य है कि आचार्य मम्मट ने काव्य का फल कीर्तत-प्राप्ति को तो स्वीकार ही किया है, साथ ही धनोपार्जन, व्यवहारशान, अकल्याण-निवारण, परमानन्द की प्राप्ति और प्यारी स्त्री की मनभावनी सम्मिति का लाभ भी उन्होंने काज्य का प्रयोजन माना है। देखिये
काम्यं यशसेऽर्थकसे व्यवहारनिदे शिवतरसतये ।
सपः परनिसिये काम्तासस्मिततयोपदेशयुजे ॥ ( का. प्र. १. २) वास्तव में मम्मट-निर्दिष्ट' यश से मिझ अन्य प्रयोजन भी यशःसाध्य के लिये साधनमान. ही कई जा सकते है। अत: वाग्भट का कान्य-फल-निर्देश परम्परा-विरुद्ध नहीं छाड़ा जा सकता । . - काय-फल-निरूपण के अनन्तर कान्योत्पति की सामग्री पर विचार किया गया है। कविता का कारण के प्रतिभा; और व्युत्पत्ति है बस काव्य का आभूषण-शीभाभायक अङ्ग । अम्पास से अबिलम्ब याव्यरचना की शक्ति प्राप्त होता है। पुनः प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास का रूप-निरूपण किया गया है। वाग्भट के मत से कविता में अभ्यास बहाने के लिये सबसे प्रथम बन्धचारुत्व से युक्त निरर्थक परसमूह के सङ्कटन द्वारा भी यथाशक्ति समस्त छन्दों पर अपना अधिकार करना चाहिये । काव्य में बन्धचाल्व किस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है यह जान लेना भी असमस न होगा। संयुक्त वर्ण के पूर्व