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धाग्भटालारस प्रकिका ससंकेतमालसार्थमपि न एम् यथा--
'अवलो श्ऊण सामलव अर्ण सयाम दारो जाओ।
रचितणय मण्डलीक्रय इस्थिपसूर्ण कुरंग ॥ भन रवितनयः कणस्तच्चष्ट्रवाच्यः ॥ १५॥
जह कोई पद प्रसंग विशेष में अनुचित होने पर भी प्रयुक्त हो वहाँ 'प्राग्य' दोष समझना चाहिये । यथा-देवताओं को पुष्पों से प्राच्छादित करके मैं उनके आणे घाम्य-इविष्-इल्यादि फेकला हूँ।
टिप्पणी-देवताओं के ऊपर पुष्प चलाये जाते हैं न कि उन्हें फूलों से उक दिया जाता है, जैसा कि यहाँ पर प्रयोग किया गया है श्रतएव इस श्लोक में 'ग्राम्य' दोष समझना चाहिये ॥ १५ ॥ संप्रत्यष्टी वाक्यदोषान्कमेणाह
पदात्मकत्वाद्वाक्यस्य तदोषाः सन्ति तत्र हि ।
अपदस्थास्तु ये वाक्ये दोषांस्तान्ब्रुमहेऽधुना ।। १६ ।। उक्ताः पदवशेषाः । यस्मिन्वाक्ये सदोषं पदं प्रयुज्यते तद्वाक्यमपि सदोषपदयोगात्सदोघमेवेत्या-तोषाः पदमतदोषाः अनर्थकादिकाः हि निश्चितं तत्र वाक्ये सन्ति । पाक्यस्य पदात्मकस्यास्पदपस्वात् । सदोषपदनिष्प थापथमपि सदोषम् । निषिः पदैर्वाक्यमपि निवौषम् । यश
___ राजेन्द्र भवतः कीर्तिश्चतुरो इन्ति यारिधीन् ।' इत्यत्र पन्तासि सदोषक्रिया समग्रदोष वाक्यं सदोषं जातम् । पलावता ये पददोषा भवन्ति ये अपदस्था वाक्यदोषाः, ये पदेन मस्ति किंतु वाक्ये सन्ति सानधुना बच्मः ॥ १६ ॥
पदों से ही वाक्य की रचना होती है, अत: पद में रहने वाले दोष वाक्य के भी दोष हो सकते हैं। मथापि जो दोष पद में म होकर वाक्य में ही होते हैं उन वाक्यदोषों का वर्णन आगे किया जाता है ॥१६॥
खण्डित व्यस्तसम्बद्धमसम्मितमपक्रम ।
छन्दोरोतियतिभ्रष्टं दुष्टं वाक्यमसक्रियम् ।। १७ ॥ एवंविधं वाक्यं दुष्टं सदोषम् । छन्दोभ्रष्टं रीतिभट यतिश्रयम् ॥ १७ ॥
खण्डित, व्यस्तसम्बन्ध, असम्मित, अपक्रम, छन्दोभ्रष्ट, रीतिभ्रष्ट, पतिभ्रष्ट, दुष्टवाक्यस्य और असस्क्रिया-थे नौ वाक्य दोप है ॥ १७ ॥ अधानुक्रमेण सर्वांनाह
वाक्यान्तरप्रवेशेन विच्छिन्न खरिडतं मतम् । । यथा पातु सदा स्वामी यमिन्द्रः स्तौति वो जिनः ॥ १८॥ .