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वाग्भटालङ्कारः। स्तामी रोयितं शोमितम् । तथा कन्दराजितं कदः शोभितम् । तथाकन्दराजितगृषि कन्दरामिचिंता शोभा येन शिखरे तत् । पई पादद्वये आदियमक कथितम् ॥ ३७ ।
हाथियों के योग्य लता और ससकी पों से घिरी सिन्धु नदी से युक्त, कन्दमूलादि से शोभित सुन्दर-सुन्दर घरों की शोभा को भी परास्त कर देने वाली गुहाओं से पर्वत के समीप जाकर किवारसमूह गान किया करते हैं।
टिप्पणी-सिम्धुरोपित' और 'करपरासित' पचागत पदों की दूर-दूर बायप्ति होने से यहाँ पर 'अयुतावृत्तिमूलक पद्याईगतपयमक अलकार है॥ १७ ॥ पादद्वयमध्ययमके यथा---
यसन्सरोगोऽत्र जनो न कश्चित्परं सरोगो यदि राजहंसः । गीतं कलं को न करोति सिद्धः शेले कलकोज्मितकाननेऽस्मिन् ॥३॥
भत्र शैले ही कामावा मिलेको वन म जनो लोकः कश्चिम्न सरोगो न सच्याधिः । परं यदि सरोगः सरोवरगतो राजहंस इत्यर्थः । अत्र शैले कः सिद्ध किलर: कलं मनोशं गातं न करोति । अपि तु सोऽपि झरोतीत्यर्थः ॥ ३८॥
दिसादि दोषों से मुक्त वनवाले इस पर्वत पर कौम सिक पुरुष कलागान नहीं करता है! (सिजन यहाँ पर वेदादि का गान किया ही करते हैं) इस पर्वत पर निवास करनेवाला कोई भी व्यकि रुग्ण नहीं है (अर्थात् यह पर्वतप्रदेश स्वास्थ्यबईक है); किन्तु यहाँ पर रहने वाला राजहंस अवश्य ही सरोवर के समीप जाया करता है (इससे स्पष्ट है कि पर्वत पर सरोवर भी है)
टिप्पणी-इस श्लोक के प्रथम दो चरणों में मध्यगमपद 'सरोग' की आवृत्ति है और बाद के दो चरणों में कलङ्क' पद की। ये पद भावृत्त पदों से दूर हैं । मतः इसमें 'अयुतावृत्तिमूलक प्रत्यभागभिनपादमध्यगतपदयमक' अलवार है ॥ ३ ॥ पादद्वयान्स्ययमक यथाजहुर्वसन्ते सरसी न वारणा बभुः पिकानां मधुरा नवा रणाः । रसं न का मोहनकोविदार के विलोकयन्ती बकुलान्विदारकम् ।। ३६ ।।
धारणा गजेन्द्रा वसन्तमासे सरसी महासरोवरं न जहुनात्याक्षः। पिकानां मोकिलानां मवा मधुरा रणाः शस्दा बसन्ते बभुः । का च स्त्री गोरनकोविदा सरतपण्डिता बकुलान्मविशेषान्विलोकयन्ती के रस नार । अपितु सर्वमपि रसं प्राप्तव । कयं विदारक निःपुत्रं यथा भवति तथा । निष्पुत्रायाः संमोगक्षमावात् ॥ ३९ ॥
बसन्त ऋतु में हाथियों ने सरोवरों को नहीं छोड़ा, कोकिल-कूजन ने अधीन शोभा को. धारण किया, किस कामशास्त्र-प्रवीणा नायिका ने मौलश्री के सूत्रों को देखकर विरह-न्यथा का अनुभव नहीं किया अथवा किस कामातुरा नायिका ने अपने पति-प्रेम का भानन्द नहीं सूटा!