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द्वितीय: परिच्छेदः ।
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पदि किसी वाक्य के लक्षण निर्दिष्ट लत्तणों के विरुद्ध हो तो उसमें 'पोट' नामक दोष समझना चाहिये। थावे परवर महानिधि जिनपति सदा विजयी हो ।
टिप्पणी- इस श्लोकाऊं में 'स जयति जिनपतिः' अनुष्टुप् छन्द का पाद हैकिन्तु इसमें छन्दःशास्त्रनिर्दिष्ट अनुष्टुप् छन्द का लक्षण नहीं है, क्योंकि अनुष्टुप् का लक्षण इस प्रकार से दिया गया है - 'श्लोके पष्ठं गुरुर्ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम्' इत्यादि । इस नियम के अनुसार उपर्युक्त उदाहरण में जो पष्ठ वर्ण 'न' है उसे गुरु हो साहियान जैसा कि यह पर है। अतः यहाँ 'छन्दोभ्रष्ट' दोष माना गया है ॥ २३ ॥
रीतिभ्रष्टमनिर्वाहो यत्र रीतेर्भवेद्यथा ।
जिनो जयति स श्रीमानिन्द्राद्यमरवन्दितः ॥ २४ ॥ || २४ ॥
एवं बाली रीतिः समासा
जिस वाक्यछन् में किसी रीतिविशेष का यथेष्ट निर्वाह नहीं हो पाता, उसमें रीतिभ्रष्ट नामक दोष उत्पन्न हो जाता है। यथा-इन्द्रादि देवताओं के द्वारा यवनीय श्रीसम्पन उन जिन भगवान् की सदा जय हो ।
टिप्पणी- इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में असमस्त पद होने से वैदर्भी रीति है, किन्तु उत्तरार्द्ध में 'इवाद्यमरवन्दितः' समस्त पद के प्रयोग से गोडी रीति है t एक ही पथ में दो रीतियों का प्रयोग होने से इसमें 'रीतिभ्रष्ट' नामक दोष है ||१४|| पदान्तविरतिप्रोक्तं यतिभ्रष्टमिदं यथा ।
नमस्तस्मै जिनस्वामिने सदा नेमयेऽर्द्धते ।। २५ ।।
या पदान्तरित्या पदमध्ये विरतिर्येतिस्तवा प्रोक्तं तद्यतिभ्रष्टुं कथ्यते । पदान्ते सर्वत्र विरतिः कार्या न तु पदमध्ये यत् परमध्यविरतिप्रोक्तं सत् यतिभ्रष्टमुच्यते । यतिविरता प्रकार्थौ । 'नमस्तस्मै जिंनस्वामित्वर्णपूर्णश्वाश्पदान्तर्गतिः कृता । 'ने' प्रत्यक्षरं चतुर्थपादे पतितम् । नैवं भवेत् । भवेच्च कापि सन्ध्यादिविशेषमात्रात् ॥ २५ ॥
जिस वाक्य में पद के बीच में ही पतिभङ्ग हो जाय उसमें यतिभ्रष्ट दोष समझना चाहिये । यथा-उन जगत् के स्वामी अर्हत नेमिनाथ भगवान् को हम लोग सदेव नमस्कार करते हैं ।
टिप्पणी- इस वाक्य को पढ़ने से 'जगरस्थामि' के पश्चात् प्रतिभङ्ग हो जाता है और 'जगत्स्वामिने' पद का 'ने' अंश दूसरे पाद के साथ जोड़ना पड़ता है - इसलिये पद के मध्य में ही (न कि पदान्त में ) यतिभत होने के कारण 'यतिभ्रष्ट' दोष स्पष्ट है ॥ २५ ॥