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पञ्चमः परिच्छेदः। विपक्षम्मकारमाह
पूर्वानुरागमानात्मप्रशासकरुणात्मकः ।
विप्रलम्भश्चतुर्श स्यात्पूर्वपूर्वो ह्ययं गुरुः ।। १७ ।। पूर्वानुरागात्मको विप्रलम्मो मानास्मको विप्रकम्मः प्रबासात्मको विप्रलम्भः करुणामको विप्रलम्म इति विप्रलम्मश्वतु । अयं विप्रलम्भः पूर्वः पूर्वो शुरुः। मानारपूर्वानुरागों गुरु. रियर्थः ।। १७ ॥
विपलम्म ऋकार चार प्रकार का होता है-पूर्वानुरागात्मक, मानारमक, प्रवासात्मक और करुणात्मक । इममें क्रमशः पूर्व प्रकार का वियोग उत्तरोत्तर से श्रेष्ठ समझा जाता है। जैसे करुणास्मक की अपेक्षा प्रवासात्मक, प्रवासात्मक की अपेक्षा मानात्मक और मानात्मक की अपेक्षा पूर्वानुरागारमक विप्रलाम उसम माना जाता है ॥ १७ ॥ अथ कमेणतेषा लक्षणान्याह
स्त्रीपुंसयोन्यालोकादेवोल्लसितरागयोः ।
ज्ञेयः पूर्वानुरागोऽयमपूर्णस्पृहयोर्दशा ।। १८ ॥ गारगोनबालोलान नवनियोः परापूयोर्दशावस्था । मर्य पूर्वानुरागविप्रलम्मः शृङ्गारः ॥ १८ ॥
प्रथम दर्शन (अयवा श्रवण) मात्र से ही जिन स्त्री-पुरुषों में परस्पर अनुराग उपस हो गया हो, किन्तु जिनकी समागमाभिलाषा अभी पूरी न हुई हो उन स्त्री-पुरुषों की दशा को पूर्वानुराग कहते हैं ॥ १८॥ . .
मानोऽन्यषनितासङ्गादीया विकृतिरुच्यते ।
प्रवासः परदेशस्थे प्रिये विरहसम्भवः ॥१६ तथा पश्युरन्यवनिवासमारपस्न्या या यावितिरीम्मेया विकारो मवति स मानात्मको विप्रकम्मकारः। तथा परदेश भर्तरि पत्न्या विरहर्समवः प्रवासात्मको विप्रलम्मा कारः।। १९ ॥
प्रिय के अन्य स्त्री में प्रासक होने के कारण ईध्यविश नायिका के हृदय में जो विकार उत्पन्न हो जाता है उसी को मान कहते हैं। और मिय के परदेश में होने पर जो वियोग उत्पन होता है उसको प्रवास कहते हैं ॥ १९ ॥
स्यादेकतरपञ्चत्वे दम्पत्योरनुरक्तयोः ।
शृङ्गारः करुणाख्योऽयं वृत्तवर्णन एव सः ।।२०॥ अनुकुलयोर्दम्पत्योर्मायापल्योरेकतरपञ्चस्वे दयोरेफ़सर विनाशे करुणात्मको विप्रलम्ममकारः। स वृसवर्णन एन भवति । अन्ये हास्याबवावयो रसा वृत्ते श्लोक वा सम्पूर्यन्त ।