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चतुर्थः परिच्छेदः।
मदाहरणम्
मित्रांसो नियाराः। अनलङ्कारसुभगाः पान्तु युष्माञ्जिनेश्वरः ।। ३७ || अन्न विदसा कार्य कारणं स्वध्ययनम् । कार्य कारणं बिनापि सहसगुणेनैव बातम् । एवं पादयेऽपि मावन्नीयम् । मुक्ती विभावनालङ्कारः ॥ ९७ ॥
घे भगवान् 'जिन' श्राप लोगों की रक्षा करें जो विशेष अध्ययन के बिना ही विद्वान् हैं, थिमा द्रष्य के ही ऐश्वर्यवान हैं और बिना अलंकारों के भो सुन्दर शरीर वाले हैं।
टिप्पणी- यहाँ पर अध्ययन, द्रव्य और मछकारी के बिना भी जिन भगवान् की विद्धता, ऐश्वर्य और मौन्दर्य उनके स्वाभाधिक गुणों के कारण ही बताये गये हैं । अत एव यह 'विभावना' अलंकार का उदाहरण हुछा ॥ ९ ॥ दीपकरणमाइ
आदिमध्यान्तवत्यैकपदार्थेनार्थसङ्गतिः ।
वाक्यस्य यत्र जायेत तदुक्तं दीपक यथा ।। ६ ।। यत्रादिमध्यान्तवाकपदान कियारूपेण वा वाक्यासमातिआयेत तरीपकमुक्तम् ॥१५॥ जिस स्थान पर सादि, मध्य अथवा अन्स में रहने वाली एक क्रिया से पाम्य का सम्बन्ध उत्पन्न होता है, वहाँ पर 'दीपक' ललकार माना जाता है ।। ५८॥ उदाहरणान्याछ--
जगुस्तव विवि स्वामिन्गन्धर्वाः पावनं यशः ।
किन्नराश्च कुलाद्रीणां कन्दरेषु मुहुर्मुदा ।। ६६ । हे स्वामिन् , दिभ्याकाशे गन्धर्वास्तव पावनं यशो जगुः। किन्नराः कुलाचलकन्दरेषु जगुः 1 मुदा हर्षेण मुहूर्वारंवारम् । अत्राप्येकपदार्थेन जगुरिति रूपेण वाक्यार्थसङ्गतिर्जाता ॥ १९॥
हे स्वामिन् ! गन्धर्वादि देवतालों में स्वर्गलोक में और किनारों मे कुलपर्वतों की गुहानों में बार-बार भाप के पावन यश का गान किया।
पिणा-यहाँ पूर्वार्द के आदि में प्रयुक्त 'जगुः क्रिया से सम्पूर्ण श्लोक का सम्बन्ध होने से 'दीपक' मलकार है॥ १९ ॥ एवं मध्यान्तयोरपि । सर्वत्र यथा
विराजन्त्रि तमिस्राणि द्योतन्ते दिवि तारकाः 1 विभान्ति कुमुदश्रेण्यः शोभन्ते निशि दीपकाः ॥ १०० ।।