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वाग्भटालारा अब पृथक्-पृथक् क्रियातिरेक एव पदार्थ एक एवाथों नाभेदः । निशीत्येतस्कारक दीपकम् ॥ १० ॥
रात्रि में अन्धकार छाया हुभा है, खासगण भाकाश में झिलमिला रहे हैं, कुमुदिनी के पुष्प विकसित हो रहे हैं और छोपक शोभायमान हो रहे हैं।
टिप्पणी-राधि में अन्धकार छाया हुक्षा है' इत्यादि चारों वाक्यों का अर्थ 'निशि' शब्द से सम्बन्धित है। अतः यहाँ 'पीपक' नामक अलंकार है।।१०।। সরিয়াঙ্কামাছ
वस्तुनो बक्तुमुत्कर्षमसम्भाव्यं यदुच्यते ।
बदन्त्यतिशयाख्य तमलङ्कार बुधा यथा ।। १०१ ॥ पद्वस्तुन उत्कर्षे वक्तुमसम्माष्यमुच्यते सोऽतिशयाल द्वारः ॥ ११ ॥
वर्णनीय बस्तु के उत्कर्ष को प्रकट करने के लिये अहाँ किसी असम्भक मर्थ का वर्णन किया जाता है यहाँ पर अतिक्षय' बलकार समझना चाहिये ॥१०॥ उदाहरति--- त्वदारितारितरुणीश्वसितानिलेन सम्मनितोमिषु महोदधिषु क्षितीश । अन्त ठगिरिपरस्परशृङ्गसङ्गघोरारवैर्मुररिपोरपयाति निद्रा ।। १०२ ।।।
क्षितीश, त्वदारितारितमणीश्वसितानिसेन श्वासबायुना महोदधिषु समुप सम्मछिसोमित्पन्नकल्लोलेषु सत्सु मन्तमध्ये छठन्तो घोलन्तो वलन्तो गिरयस्तेषां परस्परं सासरस्तस्य घोरैरारबरारेनिंदा अपयाति । अत्र रिपुत्राणां श्वासानिलस्यातिशयमर्णनादतिशयालङ्कारः ।। १०२ ॥
हे राजन् ! आपके द्वारा मारे हुये शत्रुओं की पक्षियों के अन्तर से निकले हुए शोकोस्ष्ट्रास को वायु से मूड़ित लहरों से परिपूर्ण समुद्र के अन्तस्तल में लुढ़कते हुये पर्वतों के चिखरसमूह में परस्पर संघर्षण होमे से घोर शब्द दरपच होता है जिसके कारण समुद्र में शयन करने वाले मधुसूदन भगवान् विष्णु की निद्रा मा हो जाता है।
टिप्पणी-यहाँ पर राजा के द्वारा भाव-सहार करने से उन (राजाओं) की पस्नियों के शोकारहास से लहरों का मूच्छित हो जाना और सागर में पर्वता का लुपकना तथा उनकी अंगावलियों में परस्पर रंगद से ऐसा भीषण शब्द उत्पत्र होना जिससे भगवान् विष्णु को निद्रामा हो जाय, असम्भाग्य है। यह केवल शमा के शौर्य और पराकम को दिखाने के लिये ही वर्णन किया गया है। इससे यहाँ पर 'भतिशय नामक प्रकार है । १०२ ।।