________________
'
:
चतुर्थः परिच्छेदः ।
एकदण्डानि सप्त स्युर्यदिच्छणि पर्यंते 1
तदोपमीयते पार्श्वमूर्ध्नि समफणः फणी ।। १०३ ॥
यदि पर्वत शरीरी एकण्यानि सप्तगि भवन्ति । तवा सप्तफणः फणी पार्श्वमूर्ध्नि उपमीयते । अत्र फणिनोऽतिशय उक्तः । एको दण्डो येषु तान्येकदण्डानि ॥ १०१ ॥ यदि पर्वत पर सात हो जिनका दण्ड हो केवळ एक, तो उस ( छत्र ) से पार्श्वनाथ के मस्तक पर रहने वाले सात फर्णो से युक्त सर्प की उपमा दी जा सकती है। नहीं तो वह अनुपम है ।
निष्णाय पार्श्वनाथ के शोक्ष पर रहने वाले सर्प की अद्वितीयता को प्रदर्शित करने के लिये पर्वत पर एकदण्डयुक्त सात छत्रों का असम्भाव्य वर्णन होने से 'अतिशय' अलङ्कार है ॥ १०३ ॥
हेत्वलङ्कारमाइ—
यदियोऽतिशयालङ्कार माह
——
५१
यत्रोत्पादयतः किञ्चिदर्थं कर्तुः प्रकाश्यते । तद्योग्यतायुक्तिरसौ हेतुरुक्तो बुधैर्यथा ॥ १०४ ॥
कर्तुः पुरुषस्य किचिदर्थमुत्पश्यतो यत्र सयोग्यतायुक्तिस्तस्यार्थस्य योग्यतायुक्तिः प्रकाश्यते स बेतुरलङ्कारः ॥ १०४ ॥
जिल अलङ्कार में किसी अर्थ को उत्पष्ट करने वाले कर्ता की योग्यता की युक्ति का प्रकाश किया जाता है उसका 'हेतु' कहते हैं ॥ १०४ ॥
उदाहरति
जुव्वणसमउम्ममा तत्ता विरहेण कुणइ पाहस्स 1 कण्ठब्भन्तरथो लिरमधुरसरं वालिआ गोअं ।। १०५ ।।
[ यौनसमयोन्मत्ता तप्ता विरहेण करोति नाथस्य ।
कण्ठाभ्यन्तरघोखितमधुरस्वरं बालिका गीतम् ॥ ]
बालिका यौवनमयोन्मत्ता सती नाथस्य भर्तुविरहेण तप्ता सती कण्ठाभ्यन्तरघोलन्मधुरस्वरं गीतं करोति । कण्ठाभ्यन्तर एव धोलते गीतं लब्जया चदिने प्रकटयतीत्यर्थः । अत्र कर्तुः कचिदर्थमुत्पादयत इति कर्तुरूपाया बालिकाया गीतमिति उत्पादितोऽर्थस्तस्य योग्यता युक्तिः नाथस्य विर: यौवनसमयोन्मत्ता च गीतस्य हेतुः कारणमेतदिति गाथार्थः || १०५ ||
यौवनावस्था से उन्मत और प्रिय के विज्ञानल से झुलसी हुई बालिका ऐसा गीत गा रही है जिसका मधुर स्वर उस ( वालिका ) के कण्ठ में ही रस धोळकर रह जाता है (दूसरों को नहीं सुनाई पड़ता है ) ।
६ घा० सं०