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वाग्भटालङ्कारः।
समासोचिमाह
उच्यते वक्तुमिष्टस्य प्रतीतिजनने क्षमम् ।
सधर्म यत्र यस्त्वन्यत्समासोक्तिरिथं यथा ॥ १४ ॥ वक्तुभिष्टस्य भणितुमारपस्यार्थस्य प्रतीसिजनने क्षम प्रती तेरुत्पावसमर्थ सदमै सशमन्यवस्तु योभ्यत, इयं समासोक्तिभवति ॥ ९४ ।।
विवक्षित अर्ध में प्रीति उत्पन्न करने के लिए जिस कार में उस (प्रीति उत्पन्न करने) के योग्य समान धर्मवाले किसी अन्य अर्थ की उक्ति की जाती है ससे समासोक्ति अलकार कहते हैं। यही सन्योक्ति AIR भी कहा जाता है ॥१४॥ उदाहरणमाइ
मधुकर मा कुरु शोकं विचर करीरदुमस्य कुसुमेषु ।
धनतुहिनपातदलिता कथं नु सा मालती मिलति ।। ६५ ।। हे मधुकर, शोक मा कुरु। करीर(मस्य कुसमेषु विचर प्रति बमिधेऽर्थः । अस्प प्रतीतिजनने मम सदृशमन्यबस्तु हदम् । नु पित। कथं सा मालती मिति । एतावता मालती नास्ति । करीरकुसभेषु शोकाभावेन भ्रमर ! विचर । मन योरपि सायं पुष्पस्वाद । विमेदत्वादन्यत्वम् । कीपशी भालती । धनतुहिनापातेन दलिता ज्वलिता । यदि सा मालती पनतुहिनपातदलिता जाता तदा किं मिलनि ॥ ५५ ॥
रेभमर ! शोक मत कर, तू करीरघृत के पुष्पों पर ही विचरण कर क्योंकि सघन सुषारपात के कारण नष्ट-भ्रष्ट पा मालती तुझे कैसे प्राप्त हो सकता है (अर्यात् नहीं प्राप्त हो सकती)।
टिप्पणी-यहाँ पर विवक्षित मालती के नए पुष्पों की प्रीति के लिये उसके समधर्मी करीलपुष्पों का कथन होने से 'समासोकि अलङ्कार है ।। १५ ।। विभावनालक्ष गमाह.
विना कारणसद्भावं यत्र कार्यस्य दर्शनम् ।
नैसर्गिकगुणोत्कर्षभावनात्सा विभावना ।। ६६॥ यत्र कारणसद्भाव विना नैसगिकगुणोत्कर्ष भावनात्कार्यस्य दर्शनं दृश्यते सा विमाबना मता ॥ १६ ॥
जिस बालंकार में किसी कारणविशेष के बिना केवल स्वामाविक गुणों के उत्कर्ष से ही कार्य का होगा प्रकार होता है उसे विभावमा' कहते हैं ॥१६॥