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बाग्मटालङ्कारः। अध प्रतिवस्तूपमायां लिभेदं दर्शयति--
बहुवीरेऽप्यसावेको यदुवंशेऽगुतोऽभवत् ।
कि केतक्या दलानि स्युः सुरभीण्यखिलान्यपि ।। ७१ ।। बहुवीरेऽपि यदुवंशेऽसावेको नेमीश्वरोऽतोऽमवत् । केतक्यां निखिलान्यपि दलानि कि सरभीणि भवन्ति । अत्र केतक्यामिति लिङ्गभेरः ॥ ७॥
यात्रा में तो अनेक गोडा भोपदे, नमामि श्रीकृष्ण उन सब से अद्भुत ही है। क्यों न हो! क्या केतकी के सभी पसे सुगन्धित होते हैं (अर्थात मही होसे)।
टिप्पणी-यपि 'इव' प्रत्यादि उपमावाधक एक भी शब्द यहाँ पर मही है तथापि उपमेयभून यदुवंश और उपमानभूत केतकी में साधर्म्य को प्रतीति होती है। अतएव यह 'प्रतिवस्तूपमा अलङ्कार का सदाहरण बतलाया गया है।।७१॥ अथ भ्रान्तिमन्तमलबारमाह -
वस्तुन्यन्यत्र कुत्रापि तत्तुल्यस्यान्यवस्तुनः ।
निश्चयो यत्र जायेत भ्रान्तिमान्स स्मृतो यथा ।। ७२ ।। ___ यत्र तुल्यस्यान्य वस्तुनोऽन्यत्र कुत्रापि वस्तुनि निश्चयो जायते निश्चयः संमबति स मान्तिमानलकारः कथितोऽलाग्वेदिभिः ॥ ७२ ॥
जिस सलवार में एक ही वस्तु में उसके समान अन्य वस्तु का नम होता हो उसे 'भ्रान्ति' कहते हैं ।। ७२ ॥ उदारणमाह
हेमकमले ति अणे णअणे णीलुप्पलं ति पसयच्छि। कुसुमं ति तुझ हसिए णिघडइ भमराणं रिछोली ।। ७३ ।।
[इमकमालमिति वदने नयने नीलोत्पलमिति प्रस्ताक्षि।
__ कुसममिति तव इसिते निपतति भमराणां श्रेणिः ॥ ] हे प्रस्ताक्षि, भ्रमराणां श्रेणिस्तव वदने पद हेमकमलमिति भ्रान्त्या निपतति । तक नयने पद नीलोत्पलमिति भ्रान्त्या निपतति । तब हसिते इदं कुसममिति भारया निपतति । भन्न भ्रानिमदरूकारे अन्त्यक्रियादीपकं शेयम् । उक्ती भान्तिमदलकारः ॥ ७ ॥
हे विलागितेरे मुख में स्वर्णक्रमछ, मेन में नीलकमल और हास्म में पुष्प के श्रम से आसक्त होकर अमर सेरे उपर टूट पड़ते हैं। ___ टिप्पणी-मुख, मेत्र और हास्य में क्रमशः स्वर्णकमल, मीलकमल और पुष्प की प्राप्ति से यहाँ'माति बार है ॥ ७३ ।।