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चतुर्थः परिकछेदः ।
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अखण्डमाइ
ज्योत्स्नया धवलीकुर्घन्धी सकुलपर्वताम् । निशाविलासकमलमुदेति स्म निशाकरः ।। ६८॥
देति स्म । कोशः । मौका पाउनको बालासहितामुवा पृथ्वी अवलोकुर्वन् । तथा-निशाया विलासकमलम् । अखण्ड एव चन्द्रो निश्शाया विलासकमल स्यादतोऽखण्डं रूपकमेतत् ॥ ६८ ॥
रात्रि का विलासकमल चन्द्रमा समस्त पर्वकुलों से युक्त पृथ्वी को अपनी ज्योत्स्ना से शुभ्र करता हुआ उदित हुआ।
टिप्पणी-यहाँ पर निशाकर उपमेय है और निमाविलासकल उपमान । इन दोनों में लिभेद है, दोनों में सभी धर्मों को समान मही पर्णित किया गया है और उपमेय तथा उपमान में कोई समास भी नहीं है । अतः इस उदाहरण में असमस्तखण्यरूपक अधार है।। ६८ ॥ मथ रूपके सिनामेदं दर्शयति
हस्तामविन्यस्तकपोलदेशा मिथो मिलत्कङ्कणकुण्डलश्रीः । सिषेच नेत्रस्रवदश्रुवारा दो कन्दली काचिदवश्यनाथा ।। ६६ ।।
फारिश्श्यनाथा नायिका दो कन्दलीं मुजादण्डलतां नेत्रनवदनुवारा लोचननिर्गदछजलेन सिधेच । कोशी । इस्ता विन्यस्तः कपोलदेशी यया सा । तथा-मिथो मिलती करणकुण्डलयोः मोर्यस्याः सा । रूपकेऽत्र लिङ्गभेदो दो कन्दलोमिति दोरेति पुंलिङ्गशम्दः कन्दलीशम्दः सीलिमोऽवगन्तव्यः । समाप्ता रूपकालकाराः ।। ६२ ।।
हथेली पर अपने कपोलों को रखने से कण और कुण्डल को शोभा को एक करती हुई बेचारी चिन्सामना अस्वाधीनपतिका नायिका अपने नेत्रों से बहती हुई अश्रुधारा से भुगारूप कदलीदण्ड को सींचती रहती थी।
टिप्पणी-'हो' और 'कवली' में लिममेव होने पर भी दोनों समस्त पद है, किन्तु इनके समान धर्मों का सम्यक रूप से वर्णन नहीं किया गया है। अतः यह समस्तखण् रूपक का उदाहरण है ।। ६९ ॥ अथ प्रतिबस्तूपमालारमाह
अनुपात्ताविवादीनां वस्तुनः प्रतिवस्तुना । ___ यत्र प्रतीयते साम्यं प्रतिवस्तूपमा तु सा ॥ ७० ॥ दवादीनां शम्दानामनुपासी अकरने या वस्तुनः प्रतिवस्तुना साम्यं समता प्रतीयते सा प्रतिवस्तूपमा शेया ॥ ७० ॥
जिस RET में 'इव' इत्यादि उपमाषाचक वादों के न रहने पर भी प्रस्तुत और अप्रस्तुत में साम्प विखाया जाता है उसे 'प्रतिवस्तूपमा' कहते हैं ।। ५० ॥