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चतुर्थः परिच्छेदः ।
अष्ठेिपालङ्कारस्य नसरस्तस्य लक्षणमाह--- रक्तर्यत्र प्रतीति
प्रतिषेधस्य जायते । आचक्षते मातेपालङ्कारं विबुधा यथा ॥ ७४ ॥
यत्रवेक्तिरथवा प्रतीतिः प्रतिषेवस्य जायते । विमुधास्तमाक्षेपाचारमाचक्षते बदन्ति । यथेत्युदाहरणे || ७४ ||
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जिस अलङ्कार में प्रतिषेध कथन अथवा प्रतिषेध-प्रतीति होती है, उसे विमान् लोग 'आक्षेप' कहते हैं ॥ ७४ ॥
इन्द्रेण किं यदि स कर्णनरेन्द्रसूनुरैरावतेन किमहो यदि तद्विपेन्द्रः । दम्भोलिनाप्यलमलं यदि तत्प्रतापः स्वर्गेऽप्ययं ननु मुधा यदि तत्पुरी सा । १७५||
यदि स कर्णगरेद्रसूनुजयसिंहदेवी राजाभूता इन्द्रेण किम्। यदि तस्य द्विपेनः पट्टगजेन्द्रो दृश्यते तदा रावतेन किम् । यदि तस्य प्रतापोऽलमत्यर्थ तपति दम्मोलिना बनेगा पूर्वताम् । यदि सा सरपुरी लेने तथा स्वर्गोऽप्ययं सुधा । एतदुदाहरणमुतिविधयम् । अनि नरेन्द्र त्यादि साक्षादप्रकाशन सर्वमप्यस्ति । प्रतीतावाद हरणं द्विधा - विधिपूर्वको निषेध निषेधपूर्वको विभिन ॥ ७५ ॥ जहाँ राजा कर्णसिंह का पुत्र ( जयसिंह ) उपस्थित हो वहाँ
से
क्या प्रयोजन ? ( इन्द्र के समान बलशाली जयसिंह तो स्वयं ही उपस्थित है ) । अरे ! जहाँ उन ( जयसिंह ) का हावी हो यहाँ ऐशवत का क्या काम 1 ( ऐरावत के समान ही दीर्घकाय तो राजा जयसिंह का हाथी भी है ) । उस ( राजा जयसिंह ) के प्रसार के सामने वज्र की क्या आवश्यकता ? (त्रु संहाररूप जो कार्य वज्र से हो सकता है वह कार्य तो राजा जयसिंह के प्रताप से ही सम्भव है )। उस (राजा जयसिंह) को नगरी के सामने स्वर्ग भी व्यर्थ ही है क्योंकि स्वर्ग से भी अधिक ऐश्वर्यवती उसकी नगरी है।
टिप्पणी- मइादि ( प्रतिषेध) से क्या प्रयोजन' इस प्रकार कहने से 'आप' अलङ्कार है । ७५ ॥
प्राविधिपूर्वक निषेधे उदाहरणं यथा-
यस्यास्ति नरककोडनिवासे रसिकं मनः । सोऽस्तु हिंसानृतस्तेयतत्परः सुतरां जनः ॥ ७६ ॥
यस्य जनस्य मनो नरकौड निवासे रसिक भवति । 'क्रोड उत्सङ्ग उच्यते । स जनः सुतरामत्यर्थं हिंसा नूतस्तेयवत्परोऽस्तु भवतात् । अत्र तावत्प्रतीतिः कथम् । अत्र यो नरके गन्ता स हिंसादिकं करोविति विधिमालोक्येतावता हिंसादि केनापि न कर्तव्यमिति