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वाभवाला शरः। लहोक्ति काति
सहोक्तिः सा भवेच्य कार्यकारणयोः सह ।
समुत्पत्तिकथा हेतोर्यक्तुं तज्जन्मशक्तताम् ।। ११८ ।। यत्र हेतोः कारणस्य तजन्मशक्कता कार्यात्पत्तिशकता वक्तुं कार्यकारणयोः सह समुः त्पन्तिकथा समकासमुत्पादनवार्ता मवति सा सहोक्तिभवेत् ।। ११८ ॥
जिस अलकार में किसी कारण से उत्पन्न कार्य में उस (कारण)की प्रक्ति को दिखलाने के लिये कार्य और कारण का एक साथ ही वर्णन किया Tar है उसे 'सहोकि कहसे है।। 11८॥ उदारति
आदत्ते सह यशसा नमयति साधं मदेन समामे ।
सह विद्विषां श्रियासौ कोदण्डं कर्षति श्रीमान् ।। ११६ ।। असौ श्रीमान्वीरः कोरण्डं धनुर्विंद्विपा मदेन सइ नमयति । विहिषां श्रिया लम्या शोभया वा सह कोदण्डं कर्षति । अत्र यश आदत्त इति कार्यम् । कोदण्डनक्षणं तु यशो ग्रहणकारणम् । कारणस्य कोदण्डस्य तजन्मनि कार्योत्पत्ती यशोग्रहणरूपाया शतिनास्ति . पवं सर्वत्र योजना स्वमत्या कर्तव्येति ।। ११९ ॥
यह श्रीसम्पप रामा संग्राम में विद्वेषियों के यश (हीम)के साथ ही धनुष को धारण करता है, उन (शभुओं)के अभिमान (को चूर करने) के साथ ही उस (धनुष) को झुकाता है और उन (शत्रुक्षों) के धन (को अपहरण करने) के साथ ही उस (धनुष)को भी खींचता है।
टिप्पणी-थहाँ थमुष धारण करना इत्यादि कारण से उत्पन्न यज्ञादि के अपहरण में (अनुषधारणादि) हेतु के सामध्यं को दिखलाने से 'सहोक्ति अलार है॥ १९ ॥ मथ विरोषलक्षणमा--
आपाते हि बिरुद्धत्वं यत्र वाक्ये न तत्त्वतः ।
शब्दार्थकृतमाभाति स विरोधः स्मृतो यथा॥ १२० ।। यत्र वाक्ये आपाते आरम्मै शब्दार्थकृत बिरुद्धत्वं आभाति पर तत्वतो नाभाति स विरोधः स्मृतः ॥ १२० ॥
जिस वाक्य के कहने अथवा सुनने से तत्काल ही शव अथवा अर्थ में विशेष प्रतीत हो; किन्तु वास्तव में (शब्य अथवा अर्थ में ) किसी प्रकार का भी विरोध न हो वहाँ विरोशलार समझना चाहिये ।। १२० ॥
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