________________
सुर्थः परिमलेन्दः । विभिनलिका विभिन्नवचनां चोरमा न निवनन्ति । तथा असिहोनाधिकामिति । भतिहोनामत्यविका चोपमा न निवभन्नि । विशेषमाइ-बुधाः कापि जिङ्गभेट मेनिरे ।। ५८ ।। ___ काम्य-मास के आचार्य उपमेय और उपमान में लिया और वचन के भेद को महीं उत्पन्न होने देते तथा उपमेय और उपमान में एक दूसरे की अपेक्षा हीन अथवा अधिक प्रयोग भी नहीं करते। किन्तु कहीं-कहीं आचार्य लिङ्गभेव को दोष नहीं भी मानते ५८॥ उदाहरणमाह
हिममिव कीर्तिवला चन्द्रकलेवातिनिर्मला वाचः ।
ध्वाङ्खस्येव च दाक्ष्य नभ इत्र वक्षश्च ते विपुलम् ।। ५ ।। हे मुभग, - कातिहिममिव चचलत्या कातः खालित्वम् , त्रिममिति नपुंसकम् । अज उपमानोपमेय योनिममेदः । तव पाचश्चन्द्रयालेवातिनिर्मलाः । वाच प्रत्यश्च बदुवचनम् , चन्द्रकलेत्यत्रेकवचनम् । अतो वचनभेदः। तब दाश्य दक्षता वाइस्येव वर्तते । होनीपमैषा। जब वो नम इव विपुलम् । अधिकोपमेषः । अमी उपमादोषाः कविना चिमनीयाः ॥५१॥
हे राजन् ! भाप की कीर्ति हिम के समान शुभ है, पाणी चन्द्रकला की भांति निर्मल-निष्कपट है। आपकी चतुरता कौए के समान है भौर बजास्थछ ! बहतो साकाशकसमान अत्यन्त बिस्तीण है।
टिप्पणी--पहाँ पर उपमेयरूप 'कीति' पुलिंग है किन्तु उसका उपमान 'हिम नपुंसक है। इस प्रकार इसमें उपमेय और उपमान में लिभव है। 'चन्द्रकला
और 'वाचा' में प्रथम एकवचन है और दूसरा बहुवचन । उपमानरूप कौला उपमेयरूप रामा से हीन है; 'नम' पुलिग है किन्तु उसके साथ जो सपमेय है 'वा-वह नपुंसकलिङ्ग का शब्द है । अतएव उपर्युक श्लोक में प्रयुक्त वपमा लिङ्गवचनादि के भेद से दूषित हो गयी है ।। ५९ ॥
शुनीयं गृह वीव प्रत्यक्षा प्रतिभासते !
खद्योत इस सत्र प्रतापश्च विराजते ।। ६०॥ यं शुनी गृहदेपावत्यत्राधिकापमा । तव प्रतापः खयोत दवेत्यत्र शीनोपमा च सदोषा। हिममिव कातिवलयन किया हितोयमा लोषा। शुनीयं गृहदेवीवस्या होनाधिकोपमा सदोषा ।। ६०॥ ___ यह कुक्कुरी सापात् गृहदेवी-सी प्रतीत हो रही है और प्रताप जुगुन की मोति चारों ओर फैल रहा है। ___.-इस श्लोक के पूर्याद में उपमेयभूत कुक्कुरी से उपमानभूत गृहदेवी ह है और उत्तरार्द्ध में उपमेयरूप प्रताप से उपमामरूप सधोस हीन है ॥ ६॥
५ वा लं