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वाग्भटालङ्कारः।
उपमेयप्रचुरोपमालंकारमाइ--- आलोकनं च वचनं च निगृहनं च यासां स्मरन्नमृतवत्सरसं कृशस्त्वम् । तासां किमङ्गपिशितानपुरीषपात्रं गात्रं विचिन्त्य सुद्धशांन निराकुलोऽसि॥
हे सखे, यासां लोणामालोकनं वचनं च निगूइनमालिकन चामृतवत्सरसं स्मरंस्त्वं शो जातः । हे सखे, अरु कोमलामन्त्रणे । तासा सुद्धशा पिशिसासपुरीषपात्रं माप्तरामेष्यस्थानं गात्रं देवं विचिन्त्य पि न निराकुलोसि न समभावशोऽसि ।। ५६ ॥
पि ! जिप्स सुनयना (सी) के वर्जन, बचन और आलिशान को तू अमृत के समान मधुर समझकर उसके स्मरण से नित्यप्रति क्षीण होता जा रहा है, उसके मांस, अस्थि और मल से निर्मित शरीर का चिन्तन करके तू व्याकुल क्यों नहीं हो उठता ! (अर्थात् उस सुन्दरी के मांस-मजामय शरीर को देख। र सरोकारतिय नहीं है )
टिप्पणी–यहाँ पर दर्शन, वचन और आलिङ्गन-ये तीन उपमेय हैं और उपमान है केवल अमृत । श्रतएव यह 'समुच्चय' नामक मलद्वार है ।। ५६ ।। उपमानप्रचुरोपमालटारमाइकलेच चन्द्रस्य कलङ्कमुक्ता मुक्तावलीयोरुगुणप्रपन्ना । जगत्रयस्याभिमतं ददाना जैनेश्वरी कल्पलतेव मूर्तिः ।। ५७ ।। जैनेश्वरी मूर्तिश्चन्द्रस्य कलेव कलमुत्ता मुक्कावलीबोरुगुणप्रपना गुणयुका कन्सलते। जगत्रयस्यामिमर्त ददागा ॥ १७ ॥
जिनेश्वर ऋपभदेव की मूर्ति चन्द्रकला के समान निष्कलंक, दीर्थ सूत्र से गुंथी हुई माला के समान गुणयुक्त और संसार की रक्षा के लिये वाकृित फल को देने वाली कल्पलता के समान वरदायिनी है।
शिणी-साहित्यदर्पण'कार ने मालोपमा का लक्षण इस प्रकार बताया है-'मालोपमा यदेकस्योपमान बहु पश्यते' अर्थात् मालोपमालङ्कार घहाँ होता है जहाँ एक ही उपमेय के अनेक उपमाम होते हैं। 'समुच्चय' और 'मालोपमा' में यह भेद है कि 'समुच्चय' में उपमान सो केवल एक होता है और उपमेय अनेक; किन्तु 'मालोपमा' में उपमेय एक होता है और उपमान अनेक । यहाँ ऋषभदेव की मूर्ति उपमेय है और चन्द्रमा की कला, माला और कल्पलता-तीक अपमान है। अतः इसमें 'मालोपमा अखकार है।। ५७ ।। अयोपमालकारदृषणान्याछ
विभिन्नलिङ्गवचनां नातिहीनाधिका च ताम् | निबन्नन्ति बुधाः कापि लिङ्गभेदं तु मेनिरे ॥५८ ॥ .