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भूमिका
वाग्भटालद्वार के प्रणेतर..... .. श्रालवारिक वाग्भट प्रथम 'वाग्भटालझार' के रचयिता 'बाग्भट' को पाग्भट प्रथम फहना आवश्यक है क्योकि इसी नाम के एक और आलङ्कारिक हो चुके हैं जिन्होंने 'काव्यानुशासन' की रचना की है । 'कान्यानुशासन' के रचयिता वाग्मट द्वितीय ने स्वयं वाग्भवलकार के प्रणेता वाग्भट प्रथम का उल्लेख किया है
'इण्डियाममवाग्भटादिप्रणीता दश काव्यगुणाः । वयं माधुर्योजाप्रसादलक्षास्त्रीनेव गुणान् मन्यामहे ।' ( काव्यानुशासन, पृष्ठ ३१) अर्थात् दण्डी, वामन और दाग्भट ( प्रथम ) आदि अलकाराचार्यों ने तो काव्य के दस गुणों का निरूपण किया है किन्तु हम ( अर्थात् वाग्भट द्वितीय ) केवल माधुर्य, ओज और प्रसाद–इन्हीं नीन गुगों को काण्यगुण मानने को तैयार है।
अलङ्कारशासकारों में 'वाग्भट' नाम के ये दोनों आलङ्कारिया जैनमतानुयायी हो चुके हैं किन्तु परवी वाग्भट ( काव्यानुशासनकार ) के द्वारा अपने पूर्ववर्ती किंवा समाननामा वाग्भटालसार-प्रणेता वाग्मट का उल्लेख दोनों के परस्पर मिल होने किंवा भित्र-भिन्न अलवार-ग्रन्थों के प्रणवन करने का एक प्रामाणिक संकेत है जिसमें किसी प्रकार आ संदेह नहीं किया जा सकता।
आयुर्वेद के प्रकरणग्रन्थ 'अष्टाङ्गहृदय' के रचयिता भी 'वाग्भट' नाम में हो आचार्य हो चुके है किन्तु रन्हें वाग्भटालद्वार के प्रणेता 'वाग्भट प्रथम' से अभिम नहीं माना जा सकता क्योंकि दोनों की वंश-परम्परा भिन्नभिन्न है और दोनों का कार्य-काल भी एक नहीं।
वाग्भट प्रथम का जीवनवृत्त वाग्भगलवार के रचयिता वाम्भट प्रथम के सम्बन्ध में इतना तो निःसन्दिग्ध है कि थे जैनधर्म के अनुयायी थे । वाग्भटालकार का निम्न अारम्भ-मङ्गल जैनधर्म और जैनदर्शन के प्रति बाग्मट की आस्था और मनस्तृष्टि-"दोनों का संकेत करता प्रतीत होता है
'श्रिय दिशसु पो देवः श्रीमाभेयाचिन सदा। मोधमार्ग सतां मूते यदागमपड़ावली ॥