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तृतीयः परिच्छेदः ।
व्यतिरेकमाइ – यत्रार्थस्य शेयता तत्र शेषः । यथा
चतुर भवत्सैन्ये प्रसर्पति दिशः क्रमात् । नरेन्द्र बहुलवाता दिषाच्या विरभूनिशा ॥ ६ ॥
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अत्र रात्रेर्हेतुः सूर्यलोपः सूर्यकोपस्य हेतू रजः रजसो हेतुः सैन्यमित्यादिदेोरभावार्थस्य शेयत्वम् । ध्वंसोधना ( बा ) । नतु एव गुणः ॥ ९ ॥
हे राजन्! आपकी चतुरंगिणी सेना के क्रमशः दिशाओं तक पहुँचते ही दिन में ही घने अकारवाली रात प्रकट हो गई।
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यहाँ पर रात्री के आगमन के हेतु का उल्लेख नहीं किया गया जिसके कारण अर्थ समझने में बाधा पहुँचती है। अतः यहाँ अर्थव्यक्ति गुण नहीं समझना चाहिए ॥ ९ ॥
झटित्यर्थापत्यं यत्प्रसत्तिः सोच्यते बुधैः ।
कल्पद्रुम इवाभाति वाच्छितार्थप्रदो जिनः ॥ १० ॥
यत् झदिति शीघ्रनपिकत्वं सा प्रसिरुच्यते । यथा कल्पद्रुमादिपदानामुश्चारणमात्रै मेवापकत्वात्प्रसतिरुच्यते । एष पत्रम गुणः ॥ १० ॥
जिस गुण के कारण शीघ्र — पड़ते ही अर्थावबोध हो जाता है उसे प्रसन्नता' अथक'' कहते हैं। यथा-अभिलषित वस्तु को प्रदान करने वाले जिन देवरु की भाँति सुशोभित होते हैं ।
टिप्पणी- यह कहने से कि जिनदेव कप की भाँति अभिलषित फल के देने वाले हैं उनकी दानशीलता तुरन्त स्पष्ट हो जाती है। अतः यह पर 'अव्यक्त' नामक गुण माना गया है ॥ १० ॥
स समाधिर्यदन्यस्य गुणोऽन्यत्र निवेश्यते । यथाश्रुभिररस्त्रीणां राज्ञः पल्लवितं यशः ॥ ११ ॥
यदभ्यस्य पदार्थस्य गुणोऽन्यपदार्थे निवेदयते स्थास्यते स समाधिगुणः । यवारिश्रीभाभी राशी यशः पचिननिस्यन गुण वृक्षसम्बन्धी स यशस्यारोपितः । पुष
समाधिः ॥ १.१ ॥
जहाँ पर एक वस्तु के गुण का आधान अन्य वस्तु के साथ किया जाता है, वहाँ 'समाधि' नामक गुम होता है। यथा- शत्रुओं की स्त्रियों के अश्रुओं से राजा का या पति हो गया हो गया ।
टिप्पणी- पल्लवित होना लाक्षादि का गुण है, न कि यश का किन्तु कवि ने पति होने की विशेषता को राजा के यश में नियोजित करके 'समाधि' गुण उत्पन्न कर दिया है | १३ ॥