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वाग्भटालङ्कारः। अथ शेषौजोगुणायमेकश्लोकोनवाह
श्लेषो यत्र पदानि स्युः स्यूतानीव परस्परम् ।
ओजः समासभूयस्त्वं तद्गद्यावतिसुन्दरम् ।। १२ ।। पृथग्भूतान्यपि पदानि रत्र सूताना गिनातानी समस्तानीव परस्परं भवन्ति स इलेषगुणः । यत्सनासभ्यरत्वं समासनाचुगं भवति स भोजोगुणः । तत्समारभूयावं गधेपु गयबन्धेष्यतिसुन्दरं भवति ।। १२ ।।
जिस अलंकार में अनेक पद परस्पर संश्लिष्ट रहते हैं वहाँलेप' गुण होता है; और समासबहुला पदावली से 'खोज' गुण उत्पन्न होता है। किन्तु समास. बहुला पदावली गय में ही शोभित होती है, पन में नहीं ॥ १२ ।। श्लेषोदाहरणमाइ--
मुदा यस्योद्गीतं सह सहधरीभिर्वनचरै
मुहुः श्रुत्वा हेलोद्धृतधरणिभारं भुजबलम् । दरोद्गच्छदर्भाकुरनिकरदम्भात्पुलकिता_श्चमत्कारो के कुलशिखरिणस्तेऽपि दधिरे ॥१३॥ तेऽपि कुलशिसरिणः कुलाचला यस्य राशी भुमचलं सई सहचरीभिः सह पत्नीभिर्वगचरैमिलमुहारवार नुदा इर्षेणोद्गीतं व्याख्यातं श्रुपा चमत्कारोंदेक चमत्कारबाशुल्म दधिरे । पाथ भूताः पर्वताः । दरोगर्भावनिकरदम्भात्पुलकिताः ईदुल्पचमानकुझा करसमूहमिषाद्रीमा चिताः । एष इलेषगुणः सप्तमो भवति ॥ १३ ॥
सहचरियों से युक्त वनसरों के द्वारा इस (राजा) के उस भुजबल के यश का गान सुनकर जिससे उसने पृथ्वी के भार को वहन किया था, थोड़े से निकले हुये वर्भारममूह के दंभ से पुलकायमान (महेन्द्रनिषधादि) कुलपर्वत भी माश्चर्य में पर गये । श्रभिप्राय यह है कि प्राणी ही नहीं जड वस्तुयें भी राजा के भुजबल की कीर्सि से चकित हो जाती हैं।
zuf ---इस श्लोक में 'मुदा यस्योद्गीतं' भादि जितने पद हैं वे एक सूत्र में पिरोई हुयी भगिर्यो की भाँति शोमित हो रहे हैं, क्योंकि इसमें कोई भी पद ऐसा नहीं है जो दूसरे के साथ अस्वाभाविक और प्रयाम्छनीय हो । ऐसा प्रतीत होता है कि एक के बाद दूसरा पद अमायास ही निकाल पाता है। अतः सभी पदों के परस्पर संश्लिष्ट होने से यहाँ पर 'श्लेष' गुण है। कुलपर्वत ... सात है-महेन्द्र, निषष, सह, शुक्तिमान् , पारिमान, धिम्य और हिमाचल ॥१३॥ श्रथ गवरन्धेन प्रोजो गुणमा
समराजिरस्फुरदरिनरेशकरिनिकरशिरःसरससिन्दूरपूरपरिचयेनेवारणितकरतलो देव ॥ १४॥