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वाग्मटातारा है जिनके अक में निर्मल जल में निवास करनेवाले कोशी को (बलिमहणार्थ) अक्षानेवाले अझाजी विराजमान हैं ॥ १२ ॥
टिप्पणी-यहाँ पर केवल 'क' क्याम से समस्त श्लोक की रचना होने से पिन मारक अलकार है। तकन्यशनच्युतकमपि व्यसनचित्र ततस्तदेवाइ--
कुर्वन्दिवाकराश्लेषं दधचरणडम्बरम् ।
देव यौष्माकसेनायाः करेणुः प्रसरत्यसौ ॥ १३॥ हे देव, यौष्माकसेनाया असौ करेणुगंजः प्रसरति । कोशः । दिवा आकाशेन सह कराएलेषं कुर्वन् । तथा चरणडम्बरं दधत् 1 पक्षे वर्णच्युतकत्वात्ककारलोपे असौ रेणुः सरति । कीशः । दिनाकरण सूर्येण सहाशेष चन् सूर्य यावनच्छन्त्रिस्यर्थः। न समुश्चये । रणडम्बर संभामडम्बरं दधम । करेणुपदात्ककारच्यतकम् ॥ १३ ॥
हे महाराज ! आप की सेना के हाथियों की विशालता को क्या कहा जाय ! थे अपनी बँड से भाकाश का मालिनन-चुम्बन करते हुए और सेना के श्रावम्बर को धारण किये हुप इधर-उधर विचरण करते रहने हैं। _ 'करेणु' शब्द से 'क' निकाल देने से 'रेणु' शब्द शेष रह जाता है, जिससे इस श्लोक का यह अर्थ होता है
है राजनू ! भाप की सेना के चलने के कारण उठनेवाली धूलि श्राकासातक जाकर सूर्य को एक लेती है। और युद्धभूमि में भीषणता उपस करके वह इधरउधर छ। जाती है।
टिप्पणी--इस श्लोक में आये हुए 'करेणु' हा का दो प्रकार से अर्थं किया गया है-प्रथम 'रेणु' शब्द से और दूसरा करेणु के 'क' को हटा देने के कारण 'रेणु' रह जाने से ॥ १३॥
प्रस्तुतात्परं चास्यमुपादायोत्तरप्रदः 1
भङ्गश्लेपमुखेनाह यन्त्र वक्रोक्तिरेय सा ॥ १४ ॥ अत्र कन्धे उत्तर प्रदः पुमान्प्रस्तुतादांदपरं वाच्यमर्थमुपादाय मङ्गश्लेषपदेन बाद वदति सा बोक्तिरेव ॥ १४ ॥
जव उत्साह देनेवाला व्यक्ति (किसी पद को) भन करके अथवा उस (पद) में आये हुए श्लेष के आश्नय से पूछनेवाले के द्वारा प्रस्तावित अर्थ से भिन्न अर्थ के प्रोतक वाक्य का माशय लेकर उत्तर देता है सष 'वक्रोक्ति' महार समाला जाता है। भा और श्लेष से वक्रोक्ति के दो भेद हुए-सभरलेखबमोकि मोर भाषक्षकोकि ।। १ ॥